Wednesday, August 22, 2012

मेरी डायरी



मेरे पास भी एक डायरी थी,
जिसके हर पन्ने पर मैं कुछ निशानियाँ रोज़ गढ़ता था,
कुछ खट्टे तो कुछ मीठे लम्हे कैद करता था..
मेरे एहसासों की तिजोरी थी,
जहाँ अपने विचारों की वसीहत मैंने संभाली थी,
हृदय के मोती थे मेरे शब्द, जिन्हें मैं रोज़ गिनता था..
जीवन के अनूठे अनुभवों से बनी थी मेरी डायरी,
जिसमे रोज़ नए किस्से, नई कहानियाँ मैं दर्ज करता था..
मेरे सपनों का लेखा-जोखा भी था जिसमे,
अश्कों के खाते भी मैंने बनाये थे,
मेरे कुछ जरुरी कागज़ात जिस पर 
आशा व निराशा के हिसाब-किताब मैं लिखता था..
कुछ पन्ने फटे हुए थे उसके, जो निशानी थी मेरे दुखों की,
और कुछ कोरे थे जिनमें अपनी खुशियों को मैं खोजा करता था..
थोड़ा पुराने कवियों व शायरों से लिया कर्ज़ा भी था उसमें,
जिसका न मुझ पर कोई ब्याज लगता था न कोई भुगतान मैं करता था...

मेरा काफी लगाव था मेरी डायरी से,
वह बंद भी रहती थी तो भी मैं उसे पढने की कोशिश करता था..
बंद किताबें पढना मेरा कोई हुनर नहीं था,
मैं तो बस उसके हर एक पन्ने को रोज़ रटता था..
एक मोर-पंख, एक बुक मार्क
व कुछ यादें समेटे रहती थी वो मेरी डायरी,
जिस पर इतिहास की ख़बरें संजोये
पुराने अखबारों की मैं जिल्द चढ़ा कर रखता था..
वो हर वक़्त मेरे पास रहती थी,
जीवन के हर एक पल को उस पर लिखना चाहता था,
पर जीवन उसका भी सीमित था, अंत उसका भी निश्चित था..

फिर एक दिन उसके धागे ढीले पड़ने लगे,
मेरे न जाने कितने ही कडवे एहसासों को सहनशक्ति से
संजोने वाली मेरी बहादुर डायरी कमजोर पड़ने लगी..
मैं उससे वियोग कि चिंता में हर पल टूटने लगा,
अपनी कलम के कंधों पर सर रख फूट-फूट कर रोने लगा..
मुझे टूटता देख, गुमसुम, आँखों में आँसू लिए मेरी डायरी मुझसे बोली
"पहले तेरी यादों को मैं बटोरे रहती थी, अब कुछ यादें छोड़े जाती हूँ तू समेटे रखना"..

मेरी भी एक डायरी थी जिससे कभी मैं बातें करता था,
आज अकेला हूँ मगर उन यादों संग जी लेता हूँ,
वह मोर-पंख, वह बुक मार्क साथ हमेशा रखता हूँ..

Friday, August 10, 2012

नन्ही कोपल



एक नन्ही कोपल फूटी तो फिर आज बगीचे में आई बहार
अति कोमल व  सौम्य,
बाहरी दुनिया देखने को उत्सुक,
हज़ारों ख्वाबों से गोशे गोशे को महकाती,
संसार में अपने अद्भुत रंग बिखेरने को तैयार..
दो फूलों के रास का सार वह कोपल


जीवन की वास्तविकता से अनजान
खिलने की आस में हर पल रहती है बेक़रार.

कभी पवन वेग संग झूलती, मुस्कुराती हुई कई सपने बुनती
तो कभी सूर्य किरणों में नहाती, वह रहती जोश से निहाल,
झूमती उस कोपल की अटखेलियों से फिजा भी रहती खुशगवार..
आज तितलियाँ भवरे सब झूम रहे, उमंगित,
एक नव जीवन में चेतना से खुश मनो मना रहे हों त्यौहार..

फिर एक दिन पतझड़ ऐसा हुआ
की माली का उस नन्ही कोपल पर से विश्वास डगमगाया,
यह क्या खिलेगी? क्या रोशन करेगी मेरे बगीचे का नाम?
इस विचार से उसका मन भरमाया..

अपने सींचे हुए पोंधे से फल की कामना रखने वाले
स्वार्थी माली को नन्हे फूल का खिलना रास नहीं आया,
अपने हाथों से ही मसल दिया नवजात को उसने,
इस चरम तक स्वार्थ ने उसको अँधा बनाया
एक और नव जीवन माली की चमन खिलाने की
संकीर्ण महत्वकांक्षा का शिकार हुआ,    
उस दिन फिर बगीचे से एक और गुल आबाद हुए बिना ही बर्बाद हुआ..

उस कोपल को सजा मिली जन्नत के  ख्वाब सजाने की,
सत्य से  परिचय यूँ हुआ की कज़ा मिली स्त्री पहचान बताने की..
नवजात कोपल की संवेदनाओं के हत्यारे उस माली को कोई समझाये
की गुल से ही ख़ुशी होती है व चमन आबाद,
उजाड़ने वाले क्या जाने की
फूलों की सुगंध से ही आती है हर फिजा में बहार....