Wednesday, June 26, 2013

"रात का किस्सा"



खुद की खुद से
खैर पूछता रहता
ये अकेला-पन,
एक सूनी सी आवाज़
गूंजती रहती
चारों तरफ कमरे में,
न जाने कौन सी लोरी सुना
तन्हा सपनो को सुलाता
रहता देर रात तक।
मायूसी कस के
पकड़ लेती है इसे,
अकेला-पन सब में बड़ा है
संभाल लेता है सबको।
ना चीखें चिल्लाती इसके आगे,
ना गुस्सा गुर्राता।
एक परेशान बाप की तरह है
ये अकेला-पन
सब समझता है और
झुलसता रहता है
अन्दर ही अन्दर,
अपने आंसुओं को
समेट कर उम्मीद का
खिलौना थमा
सबको पुचकारता है।

फिर दिलासों, और
आशाओं के तकिये
पर सर को टीका,
इंतजार के गद्दे में
लेटे रहते हैं रात भर,
घुले-मिले से खुश रहते हैं
ये मेरे अपने
सूने से इस घर में।

पर कभी-कभी
ये उजाड़ू चाँद खिड़की
पे उतर आता है
चुपके से।
बड़ा शरारती है,
दबे पांव रात में
मेरे स्याह कैनवास पर
रौशिनी उकेर जाता है।
किवाड़ बजने लगे हैं
हडबडाहट में,
अँधेरा बौखला गया है,
साया जाग गया है
छट-पटा के चिपका है दीवारों पे,
अकेला-पन घबरा गया है
हलके से खुले किवाड़ के जरिये
झूमती हवा के संग
न जाने कौन??
अन्दर कोई आ गया है।।


Thursday, June 20, 2013

" हुं भगवान् कुछ नहीं होता "











देखो भईया लिखने पढने से तो कुछ होगा नहीं, न वो जानें ही वापिस आएँगी जो बह गयी अलखनंदा में, न वह महान केदार ही पुन: स्थापित हो पायेगा बिलकुल उस तरह जिस तरह चंद घंटों पहले था|
बसा भी लिया गया अगर मरम्मत पुताई से तो भी सेकड़ों शवों के निशान न मिट पायेंगे | कितने भक्तों ने अपने ही आराध्य के घर मषाण देखा है। लोगों की चीखें क्या भगवान् के कानों तक नहीं पहुंची? ऐसा क्या हुआ की सब उजड़ गया परन्तु भगवान् अभी भी स्थापित है वहां, आसन मोड़ के धरना दिए हुए हैं। सिर्फ वही हैं, जो जूझ रहे हैं प्रकर्ति के भीषण प्रकोप से। क्या भक्तों को बचाना उनका धर्म नहीं? क्या भगवान् भी व्यक्ति-विशेष की तर्ज पर खुद के बारे में सोच कर चुप रह गए और आँखें मूँद कर बेठे रहे अपने स्थान पर की जब लोग पूछेंगे की "क्यूँ कुछ नहीं किया जब तुम्हारे भक्त तुम्हारे ही घर में भीषण रुदन कर रहे थे, क्या वो चीखें नहीं पहुची तुम्हारे कानों तक जबकि वो तो तुम्हारे ही गिर्द थीं?" "तो कह दूंगा की मैं समाधि में लीन था व मुझे कुछ नहीं दिखा, या फिर प्रकर्ति के आगे मेरा कोई वश नहीं, या की मत पूजो मुझे मैंने कब कहा है।"और यहाँ एक संकेत फिर से उजागर हुआ की भगवान् कुछ नहीं होता। सभी नास्तिकों के लिए आज ये एक उत्सव का माहोल है। उनका कहना भी सार्थक है की अगर भगवान् होते तो क्या ये भीषण विध्वंस हो पाता। सभी नास्तिक अपने घमंडी सिरों को उंचा कर, ऊँचे ऊँचे आलाप लगा कर भगवान् की नाकामी के गीत गाने को तैयार होंगे। उनके हिसाब से श्रधा, प्रेम, समर्पण, भक्ति व भगवान् सब निरर्थक साबित हुआ है, आज जीत का जश्न होगा, सत्य सार्थक हुआ है, स्पष्ट दिखा है परम पवित्र केदार भूमि पर। और एक दारु की बोतल लिए उसी गंगा तट पर पैग लगायेंगे जहाँ की रोज़ सुबह और शाम गंगा माँ की पूजा की जाती है, नशे व अपने घमंड के मत में चूर "गंगा की माँ की..." और न जाने कौन कौन सी गालीयां निकाल कर अपनी ख़ुशी ज़ाहिर करेंगे। पास के जंगल में जाकर बरसों पुराना जो पेड़ खड़ा है उसको जड़ से काट कर वहां होटल बनाने की तयारी शुरू कर देंगे। अब अपनी बुरी नज़र गंगा में गडा कर उसे कम से कम 300  बांधों से भेदकर पर्याप्त बिजली(पर्याप्त लाभ) बनाने की मंशा में लग जायेंगे।
देश हित के नाम पर पहाड़ों को काटेंगे, सड़कें(और लाभ) बनायेंगे और देश को सच्चाई से अवगत कराएँगे की ये भगवान् कुछ नहीं होता।
जगह जगह घाटों पर फैक्टरियां लगवाएंगे और अधिक लाभ कमाएंगे, कचरे का क्या है डाल देंगे गंगा में कौन सा बहुत साफ़ है, पहले से ही मैली है।
पूछे जाने पर की "ये प्रकृति से छेड़-छाड़ अच्छी नहीं, क्या तुम्हें भगवान् से डर नहीं लगता?" एक जोर का ठहका लगा कर लोगों को और उनके भगवान् को नज़रंदाज़ कर अपने मुनाफे की सोच में फिर से काम पर लग जायेंगे।
पूरा दिन कमा कर रात को महंगे बारों में अंग्रेजी शराबों में डूब कर आपसी बात-चीत में ये कहेंगे की "भगवान् जो होता था क्या बचा न लेता उस त्रासदी को, "हुं भगवान् कुछ नहीं होता|"                

Tuesday, June 11, 2013

उदासी..





चिरागों की भीड़ में घीरा
लाचार अँधेरा चुप सा 
अकेला कंपकपा रहा है,
ये डर धीरे धीरे 
रेंगता हुआ नसों में
पिघलता हुआ 
उतरा ही जा रहा है,
वो कहते हैं की आज जश्न है, 
शाम रौशन है, 
महताब मेहरबान है,
मगर कोई हो जो पूछे 
सन्नाटों से भी हाल उनका, 
कितना कुछ कहते थे कभी 
आज सब के सब बेजुबान हैं..

अँधेरा- एक रहस्य..

अँधेरा क्या है??
ये फकत हर्फ़ है कोई या इसका कोई अस्तित्व भी है,
अगर है, तो फिर इस अस्तित्व का मूल तत्व क्या है?

अमावस की घुप काली रात में रौशनी की
तलाश में एक ख़ामोशी
जो देर तक गूंजती रहती है कानो में,
क्या अँधेरा वही है??

शीशे में कोई प्रतिबिम्ब न हो, न साया ही नज़र आये
न तलाश हो कोई, न किसी ख्वाब के तकमील
होने की चाह ही बचे, चलती साँसों में
जब ज़िन्दगी मर जाए,
क्या अँधेरा वही है??

किसी जिस्म के देर से पड़े रहने से जर्द होने तक
के सफ़र में जहाँ कोई सांस न हो,
कोई आवाज़ न हो, न हलचल ही दिखाई पड़े,
क्या अँधेरा वही है??

शब्दों की तलाश में जूझती हुई वो शिकस्तां कलमे,
और जख्मो से बहने वाली सियाई में रंगे
पन्ने का गल कर कमज़ोर होना,
जब घायल कलम हो और पन्ने को मौत आये,
क्या अँधेरा वही हैं??

तेज़ हवा के थपेड़ों में बुझते
हुए ख्वाब को हथेली पे लिए ओक से ढक कर बचाती रहे,
हवा बुझाती रहे उसे, तू फिर से जलाती रहे,
तू जलाने सँभालने के इस खेल में जो एक दिन
खुद ही राख हो जाये,
क्या अँधेरा वही है??

अँधेरा कुछ तो है शायद, महज एक हर्फ़ नहीं,
जैसे काली सीलेट पर चाक के चंद निशाओं के पड़ने से
कई मतलब जिन्दा होते हैं, और अँधेरों को
परत-दर-परत कुरेदने पर तह में कैद
कई उजाले दिखाई पड़ते हैं,

शायद उजालों की ना-कामियाबी...
हाँ अँधेरा वही है, अँधेरा वही है!! 

Friday, June 7, 2013

एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..



 बादल, बिजली, बरसातों से नजर बचा कर सब ग्रहों से,
तारा तोड़ एक छोटा सा हम जीभ में रख कर लगे चबाने 
हवा के रुख के साथ में चल कर हवा बदल कर देख लेंगे..
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..

चुपके से फिर दबे पावं से सौर मंडल पर धावा बोलें,

जगह बदल कर सब ग्रहों की, झूम झूम कर लगें चिल्लाने..
चाँद की बालकनी से भी हम पृथ्वी निहार कर देख लेंगे  
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..

बादल पर लात टिका कर, लगे उछल करतब दिखलाने 

किरणों की रस्सी को थामे, पहुँच लगे सूरज से बतियाने
ख्वाबों की नगरी में एक, एक खटिया बिछा कर देख लेंगे
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..  

निकाल कटोरी झोले से हम, बारिश की कुछ बूंदे भर लें  

इन्द्रधनुष में ब्रश डूबा कर, रंगों को कैनवास पर घोलें  
ऊपर से दुनिया की हम, एक पेंटिंग बना कर देख लेंगे 
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..

अपनी धुन में बैठे बैठे कुछ सोचें फिर लगे खोजने,

झट से तोड़े धूप का टुकड़ा अपने जेबों में हम भर लें
अँधेरे की दुनिया में भी, चमक जगा कर देख लेंगे 
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..

अभी यहीं था वो जो बादल कहाँ खो गया अभी अचानक

थोडा सोच कर, सर खुजा कर आगे बढ़ें हम झोला उठाकर 
खोने पाने की सब चित्ना, परे हटा कर देख लेंगे 
एक दिन आसमान का चक्कर लगा कर देख लेंगे..