Friday, May 30, 2014

मैंने लिखते हुए जाना कि
लिखना एक अत्यधिक भ्रमित स्थिति है।
मैंने जाना कि
जब हम लिख सकने की स्थिति में होते हैं
तो न पूर्णतः खुश होते हैं, न पूर्णतः दुखी।
न प्रेमी, न पागल, न उन्मत्त, न सुबोध,
न ही पूर्णतः आशावादी या निराशावादी।
कुछ भी महसूस कर उसे लिख देना
उस महसूस किये हुए से कभी न गुज़र पाने की स्थिति है।
लिख देना सुरक्षित सहवास है !
क्षणिक आनंद के लिए
सावधानी से किया गया गर्भनिरोधक उपाय।
लिख देने भर से जी लेना नहीं होता,
जिस प्रकार दुखी हो जाने भर की अभिव्यक्ति से
खुशियों के कपाट नहीं खुलते।

Monday, May 26, 2014

मुहब्बत हर बार ही ज़ाया नहीं जाती,
ग़म-ए-हिज्र अब शराब से पर टाली नहीं जाती !

आती है तेरी याद, क्योंकर खबर नहीं आती
यारा ने बेखबर पर शायद हर बात नहीं जाती !

लिख-लिख के कूचे पे तेरे भेजा किये हैं नाम्बर
ग़र पढ़ते भी हो फिर क्यों हमें हिचकी नहीं आती !

कुछ तो है जो रोकता है तुझको पेशक़दमी से
ऐसा नहीं के जी में तेरे इक बार नहीं आती !

Tuesday, May 20, 2014

ज़हरीला रंग

शाम ढलते दर्द चढ़ता है
रात होते याद आती है..
जिस्म जाने कहाँ पड़ा हुआ, 
शराब रगों तक जा पहुंची है..
आँखें पथराने लगी हैं आहिस्ता, 
ज़हर तीरता है समंदर में.. 
आसमाँ की इंतहा अब और क्या होगी,
बाहें कड़क के टू/ट चुकी हैं कन्धों से.. 
बुझी-बुझी सी सासें उतरती चढ़ती हैं,
रह-रह के चूल्हों से उठते हैं गुबार आहों के..

सुनो दिल से न लगा लेना इश्क़ कोई
नीले रंग के निशाँ पक्के होते हैं......!!

Friday, May 16, 2014

"तरबूजा"

आज इन गर्मियों का पहला तरबूजा काटा,
रसीला, मीठा, सुपड़ा, चाटा, पचाया, ख़त्म किया !!
कोई दुःख नहीं हुआ 
और न कोई टीस महसूस हुई। 

दरअसल मिठास एक सुखद स्वाद है  
क्षणिक! पल छीन में बीत जाता है..
इतनी तेज़ी से कि 
आपको अंदेशा तक नहीं होता,
आप भूल जाते हैं कि स्मृतियाँ भी इन
सुखद घटनाओं के प्रारूप में तैयार होती हैं
दरअसल गुठली होती हैं-
एक मीठे ताज़े खुमानी के गर्भ की वो गुठली
जो फोड़ी तो इस उम्मीद में जाती हैं कि मीठी हो
लेकिन अक्सर उनको चबाते हुए जीभ नीम हो जाती है।

Thursday, May 15, 2014

"डर"

सुनो मुझे डर लग रहा है, वे लोग मुझे ढूंढ रहे हैं। वे हर जगह मौजूद रहते हैं, उनकी निगाहें मुझ पर ही गड़ी रहती हैं, उनका घूरना मुझे लाचार महसूस करवा देता है। मेरी खूबसूरती फीकी पड़ने लगी है, मैं कुरूप नहीं दिखना चाहती। नहीं वे मुझे मारना नहीं चाहते। उन्हें मेरे जिस्म से भी कुछ लेना देना नहीं है। उनके इरादे वहशी हैं, वे मुझे हर पल डरा हुआ देखना चाहते है। वे हालातों का जाल बिछाते हैं। वे दिखने में हैवान नहीं हैं, उनकी सूरतें अच्छी हैं, वे सुन्दर कपडे पहनते हैं, वे इंसान हैं। देखो ये कहते हुए मेरा पूरा शरीर थरथरा उठा है। हाँ वे इंसान ही हैं... मुझे असहज महसूस हो रहा है.. मेरे होंठ सूख रहे हैं.. हाँ वे इंसान हैं। मेरी दृष्टि धुंधली पड़ रही है... मेरा शरीर मेरा साथ छोड़ रहा है... 
पानी, पानी, पा..न.. !!
...... पर तुम मुझे ऐसे क्यों घूर रही हो.. तुम अचानक इतनी बदसूरत कैसे हो गयी... तुम्हारे चेहरे पे इतनी शिकन क्यों है? मुझे घबराहट हो रही है.. तुम्हें ये क्या होता जा रहा है। तुम्हारा चेहरा पीला क्यों पड़ रहा है। देखो तुम्हारी नाक से खून भी बह रहा है... तुम किस सोच में डूब गयी.. कुछ कहती क्यों नहीं। तुम बेहोश हो रही हो, नहीं नहीं बेहोश नहीं, तुम्हारी साँसें चलना बंद क्यों हो रही हैं... क्या तुम मर रही हो, नहीं तुम मर नहीं सकती... नहीं नहीं नहीं !!
ज़ोर की चीख सामने वाले आईने पर पड़ती है और एक पल में आईना चकनाचूर हो निचे बिखर जाता है..

हस्पताल का दृश्य-

एक अधेड़ उम्र अपनी २६ साल की बेटी के सिरहाने पर स्तब्ध बैठा है। उसकी आँखें सूखे रेगिस्तान जैसी दिखाई पड़ रही हैं- सूनी, खाली, नाउम्मीद !! शब्द हलक में ही अटक के रह गए हैं, मस्तिष्क निष्क्रिय। झुके हुए कंधे सूचक हैं कि हिम्मत ने हथियार गिरा दिए हैं। हाथ कांप रहे हैं और कानों के छिद्रों वाले फाटक बंद हो चुके हैं....
माँ लगातार बेटी की छाती को ज़ोर ज़ोर से पीस रही है और ज़ार ज़ार रो रही है..!
डॉक्टर ने हाथ में काग़ज़ात पकडे हैं, उसे मौत का कारण भरना है...
"अत्यधिक मानसिक दबाव.. झेलने के स्तर से बहुत ऊपर व उच्चतम रक्तचाप। ये ड्यू टू मेजर हार्ट स्ट्रोक इंस्टैंट डेथ का केस था"
उसने लाल स्याही से रिपोर्ट पर हस्ताक्षर कर अपना काम निबटा लिया है, फाइल अब बंद हो चुकी है..!!

नोट: इस कहानी का नारीवाद  से कुछ भी लेना देना नहीं है, यहाँ किरदार पुरुष भी हो सकता था..!

Monday, May 12, 2014

"चकले के बाहर"

चकले के बाहर दलालों की भारी भीड़ जुटी हुई है, तनाव भरा माहोल है। 
प्रधान दलाल : आजकल इन वैश्याओं की मांग कम हो रही है, सबका रुझान फाइव स्टार होटलों वाली अंग्रेजी ब्रीड की तरफ बढ़ रहा है. कुछ करना होगा वरना अब धंधा बदलने का टेम आ गया है..
दूसरा दलाल: (ऊपर सीढ़ियों पर बैठी एक अधेड़ उम्र ढल चुकी वैश्या की तरफ देखते हुए) ऐसे हाथ पे हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं होगा। आम को उतना ही चूसा जा सकता है जितना उसमे रस हो.. अब गुठलियाँ और नहीं बिकने वालीं।
अन्य दलाल : वो बस्ती के पीछे वाले मोहल्ले के दूसरे मकान में एक बहुत खूबसूरत लौंडिया है.. कंचा पीस उम्र १९ साल, कमर कूल्हे सब अपनी जगह... रस्ते से गुज़रते हुए रोज़ दिख जाती है, आँखों में असर है, कॉलेज जाती है, 
… क्या ख्याल है उठा लें... धंधा ज़ोर पकड़ जायेगा।
तभी भीड़ के बीच से लगभग चालीस, पैंतालीस साल का एक दलाल मुह में दबी ब्लेड निकाल कर अन्य दलाल का गाल चीर देता है.. खून छल छला के उछलता है और अन्य की सफेद कमीज़ लाल हो जाती है.. 
"भैनचोद वो मेरी बेटी है... वो डॉक्टर बनेगी रंडी नहीं।" 

Friday, May 9, 2014

"प्रेमिका से मुलाकात वाले दिन"




मैंने अपनी धड़कने ठीक से सुनी
वे निरंतर चल रहीं थी।
गालों पे हाथ फेरा तो
खुरदुरापन पहले से कुछ अधिक महसूस हुआ।
आँखें रुआंसी तो थी पर
उनमे एक अलग किस्म की चिप-चिपी मीठी नमी थी।
चेहरा निस्तेज था पर अब पट्ट बुझा नहीं था।
मूछें खुद-ब-खुद दोनों तरफ की बराबर नज़र आने लगी थीं,
उलटे दाढ़ के दातं का कीड़ा जिसने
अरसे से सिर में दम कर रखा था आज अचानक गायब था।
मुस्कान मोनालीसा चित्र सरीखी,
गाल गुलाबी,
चेहरा वसंत सा पीला,
कन्धे उठे हुए, हाथ कुछ लम्बे
व पेट १०० ग्राम फूला हुआ।
जेबें अब भी खाली पर बाहर को लटकी नहीं,
सलीके से अंदर थीं,
हाथों में बची चंद रेजगारियां
झूम झूम कर खनक रहीं थी।
रुमाल गंदला था
पर त्रिकोण बनाये ऊपर जेब से
आधा निकला जच रहा था।
शर्ट का रंग लाल था व हाथ में गुलाब था,
कलाई घड़ी भाग रही थी उसे कहीं पहुंचना था।

Monday, May 5, 2014

"उपर कोई है तो उसका शुक्र है"



मैं किसी प्रेरणादायक कविता के मसौदे से
ऐसा नहीं कह रहा कि-
मैं खुद को कमतर आंक कर आगे बढ़ना चाहता हूँ..!!
मैं जानता हूँ कि मेरे आगे अपेक्षाओं का पूरा विध्यांचल है,
परन्तु मेरे पीछे अतीत की वो गहरी खायी छूट गयी है
जिसे मैं बिना सांस फुलाए एक ही छलांग में फांद कर आ रहा हूँ।
ऊपर कोई है तो उसका शुक्र है मैं बच गया हूँ
परन्तु मेरा शोक उन कीमती चीज़ें के प्रति है जो उस खायी के अंतर में गिर खो गयी हैं।
बहरहाल खुद को कमतर आंकने का मेरा तर्क सिद्ध हुआ।
क्योंकि मैं अतीत में हुई हानियों के लिए शोकाकुल हूँ
और अब तक निर्लिप्त नहीं हो सका हूँ
इसलिए आगत की ही तरह अनंत, अनिश्चित अपेक्षाओं ने मुझे भरमाने हेतु
एक रंगीन इंद्रजाल बुन कर तैयार कर दिया है,
हरियाता "विध्यांचल"
और मुझे इसकी उबड़ खाबड़ पगडंडियों पर चलने को रख छोड़ा है।
उपर कोई है तो उसका शुक्र है कि
भविष्य के गर्त की तरफ भी कोई पगडण्डी जाती है और मुझे चलते रहना है।
दरअसल बात सीधी है कि मेरी आस्था नितांत पर है,
दूरतम, चरम, अनिश्चितता का आखरी सिरा
मुझे "अति" पर भरोसा है
क्योंकि अति एक क्रिया है..अति से कोई क्षति नहीं,
दुखद क्रियाहीनता है।
जिस तरह हानिकारक समय का निकलना नहीं बल्कि समय का अटक जाना है..!!
इसलिए यदि उपर कोई है तो उसका शुक्र है कि समय की प्रकृति बहना है।।

Friday, May 2, 2014

"इतना आसान नहीं है"


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इतना आसान नहीं है 
सड़क के बीचों-बीच चलते हुए आकाश ताकना,
चमकते तारों को घूरते रहना। 
अत्यंत दुखद है आते जाते हर चेहरे को पहचानना, 
डर कर सिर झुका लेना, 
खाली जेबें टटोलना, 
खुद पर मुस्कुराना नहीं बल्कि खिल्ली उड़ना।
आवेश में आ कर अखबारों को फाड़ना,
चिल्लाना लेकिन फिर आवाज़ दबाना।
व्यर्थ चहलकदमी, पसीने बहाना,
खोखले शरीर पर चर्बी चढ़ाना।
बहुत मुश्किल है चुटकुलों पर हँसना, 
हिमायतियों की राय पर सिर को हिलाना,
आंसुओं में भी उलझ कर रहना, 
बहा भी न सकना, रोक भी न पाना।
फूलों का खिलना, हवा का चलना, 
नजारों की तारीफों में कसीदे पढना। 
घड़ियों की टिक टिक का कानो पर पड़ना,
नलको से टप टप लहू का टपकना। 
एक असहनीय क्रिया है पक्षियों को उड़ते हुए देखना,
व अपंगतावश वक़्त के कन्धों पर खुद को रख छोड़ना।
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Thursday, May 1, 2014

"अकविता"

मैं अब कहानी कविता नहीं लिखना चाहता,
ज़िन्दगी को जीते रहने का सिर्फ एक ही तरीका नहीं है, 
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के साथ चल कर भी गुज़ारी जा सकती है।
मुझे खेद है, दिन-ब-दिन मेरी उम्र घटती चली जा रही है,
और इस बात का कि मुझे अब तक अनुभवी नहीं कहा गया है।
दरअसल अनुभव ज़िन्दगी के सन्दर्भ में होते हैं 
पर मैंने तो अपना पूरा बुढ़ापा, आधी जवानी 
ज़िन्दगी से बहुत पहले ही बिता दिये हैं।
और अब धीरे-धीरे मेरे गर्भ पलायन का समय निकट आ रहा है..

मैं जब भी सोचता हूँ अक्सर वो दिन याद होता है
जिस दिन मैं पहली दफा मरा था !
बंद कमरे में फटी आँखों के सामने की दिवार दरकते देखी थी मैंने,
मेरे हृदय में उस दिन कोई रोष नहीं था, मुझे कोई पीड़ा नहीं थी।
मैंने उस मरने को जीया था, उसमे मासूमियत थी।
कोई भार नहीं था जिसे मैं लेकर मर रहा था, कोई तमन्ना नहीं थी।
पहली बार मैंने होश संभाला,
मृत्यु कच्ची उम्र का एक अनूठा अनुभव था..!!