Thursday, October 9, 2014

ठोडी पर सहला सहला मुझे सिखाया गया था हँसना
तत्क्षण मेरा रोना अकृत्रिम था..
मुझे सिखाया गया था प्रेम करना,
फूलों को देख कर ठहरना,
उन्हें महसूस करना 
हवा को हवा बन कर देखना।
मैं पर्वतपुत्र था,
मेरे जीवन में संस्कारों का अन्तःक्षेप था
प्रकृति।
मेरे अंचल से कई नदियों का उद्गम हुआ
करुणा, स्नेह व संवेदना।
मेरे गुलाबी अधरों पर इकरंगा विस्तार था
व आँखों से जब तब फूट पड़ते थे
वात्सल्य के कई झरने।
मेरे बालपन की सैकड़ों तस्वीरों
पर अभी भी आभा विद्यमान है
गेंदे का एक फूल मेरे हाथों पर इस तरह सजा है
जिस प्रकार फूलदेही पर्व के अनपेक्षाकृत प्रतिफल।
कोमलता हावी है गालों पर
जैसे सूर्योदय की लालिमा
ठीक उस तरह जैसे
श्वेत श्याम मिल कर बनाते हों धुमैला।
रंगों के रास का सार था बचपन
जहाँ भीतर के उफानों का क्रंदन न था
बल्कि अबोधता के विज्ञान का प्रयोग
व जिज्ञासा के माध्यम से स्व का बोध था..
आज छूछा पड़ा उन टुकड़ों को जोड़ता हूँ
तो देखता हूँ कि ज़ार-ज़ार बिखरा हूँ
जीवन आदर्श हो यह संभव नहीं
तो अब चाहता हूँ कि नकार दूँ उत्तेजना
नीरस हो जाना चाहता हूँ...
मोनोटनी को सराहता हूँ
कि दुनिया में सबसे मोनोटनस है पूरब से सूर्योदय !
और फिर एक गहरे उंसास के साथ सोचता हूँ
कि मुझसे उकता जाना
सार्वलौकिक आक्षेप है...!!