तुम्हें पता है कुछ चीज़ों के पीछे कोई लॉजिक्स कोई तर्क नहीं होते, वे बस होती हैं.. उस ही तरह सब होता चला गया। दरअसल हम सभी खुद में एक रिक्तता सहेजे रहते हैं, एक ऐसा भाग जिसे हम नहीं चाहते कोई छुए... हमारा अपना भाग, हमारे खुद के लिए एक स्पेस, एक कम्फर्टेबल शैल जहाँ सिर्फ हम होते हैं.. वहां ना कोई दुनियादारी होती है ना कोई इम्प्रैशन ना कोई भार.. वो हमारा हिस्सा होता है, वहां जो संगीत होता है वो भी हमारा निजी होता है, हर आवाज़ हर शब्द हमारा अपना... उस रिक्तता को हर कोई नहीं भर सकता पर जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं जब हमारे हाथ में कुछ नहीं होता, हम अपनी रिक्तता से भी रिक्त हो जाते हैं, पता नहीं कहाँ से कोई आहट होती है और अंतर के अनंत निर्वात को अपने स्नेहिल स्पर्श से भर देती है... हर उजाले की तह में एक अँधेरा छुपा होता है जिसे हम नहीं पहचान पाते, जिस तरह चौंधिया देने वाली रौशनी में फिर कुछ नहीं दिखता, असल में हम खुद के आलोक में खुद को नहीं पहचान सकते, हम सबसे ज़्यादा जिससे गैरवाकिफ होते हैं वे हम खुद हैं.. असल में हम अपने खुद की शान्ति में सबसे बड़ा अवरोध साबित होते हैं... हमारे अंदर एक खोज, एक तलाश निरंतर बनी रहती है... और जब उसकी नस पर कोई हाथ रख उसे सहलाता है ना तो बड़ा आराम मिलता है... और उस स्थिति में कोई ऐसा हमारे दिल को छू जाए तो फिर हम मुक्त हो जाते हैं... हम अपनी उस रिक्तता से उत्पन्न आनंद को साझा करना चाहते हैं... हम आज़ाद तो होना चाहते हैं पर बड़े एहतियात से... हम उड़ना चाहते हैं पर फिर ये भी चाहत रहती है कि कोई हो जो हमें उड़ता हुआ देखे और हाथ हिलाये ये उस रिलीफ फीलिंग जैसा होता है कि वहां निचे कोई है जिसे तुम्हारे सहजता से लौट आने का इंतज़ार है... मुझे इंतज़ार में बने रहना बेहद पसंद रहा है ये वक़्त उम्मीद से भरा होता है... मुझे आज भी याद हैं वे दिन जब बचपन में माँ को कभी बाहर जाना होता था तो वो हमें ताले में बंद कर जाती थी, और फिर उस कमरे में हम बिलकुल अकेला होते थे, बिलकुल अकेला जैसे यहाँ इस वक़्त, इन दिनों। बिलकुल अकेला पर मुझे निजी तौर पर कभी उस अकेलेपन में डर नहीं लगा क्योंकि वहां बेफिक्री रहती थी मुझे पता रहता था कुछ देर में माँ आएगी और मुझे अपने स्नेहिल हाथों से सहला कर सीने से लगा लेगी, और उस बेफिक्री में वो अकेलापन मुझे बेहद भाता था, ऐसे जितने भी टुकड़े मैंने बचपन में अकेले बिताये मैं उतना ही खुद के करीब आता चला गया और बिलकुल ठीक ऐसा मुझे अब भी महसूस होता रहा है.. पर यहाँ वो इंतज़ार तुम्हारे लिए था.. मैं बेफिक्री से इतंजार करता रहा हूँ तुम्हारा, क्योंकि उस इंतज़ार ने मुझे खुद के और करीब ला कर खड़ा कर दिया है... मेरी तमाम उलझनों, तमाम कमज़ोरियों के बावजूद भी तुम हो ये बेहद ख़ास है और तुम्हारा ना होना भी कुछ बदलेगा नहीं, जीवन उस ही तरह, उस ही धारा में चलता रहेगा, दर्द होगा, अनुभव मिलेंगे, कई बदलाव भी आएंगे पर वो सभी चीज़ें मैं तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ दरअसल मैंने अपनी रिक्तता तुम्हारे साथ सहजता से साझा की है और अब मैं उस आनंद को महसूस करने लगा हूँ... लाज़मी है कि मुझमे तमाम कमियां शामिल हैं पर सिर्फ इतना कह सकता हूँ कि इन सभी चीज़ों के ऊपर एक चीज़ है, भाव... सिर्फ इतना भर जानता हूँ कि मेरे लिए जुड़ाव एक वैल्यू का हिस्सा है, मैं वो वविंग हैंड बनना चाहता हूँ जिसके होने पर तुम बेफिक्र अपनी उड़ान भरो और बढ़ती चली जाओ... तुम्हारा होना दरअसल रंगों से भरता रहा है मुझे और शायद तुम जानती हो कि मुझे ब्रश से उम्मीदें उकेरना भी उतना ही पसंद है जितना कि शब्दों से प्रेम लिखना।
The sun rises with a new day, with new hopes, with shining wealth, gloomy night is replaced with lights and hopes, joy encloses by stealth. It has always an end, how dark a day and complex a way, And I am a verse of a poet,I am a dream statue the formation of clay.
Monday, March 21, 2016
Wednesday, March 9, 2016
"Mumbai diaries"
"When you become a character and the city becomes your dialogue."
With love to Mumbai <3heart emoticon
आजकल नींद कम ही आती है तीन चार घंटे कभी आँख लग गयी तो लगता है भरपूर नींद है.. अँधेरा अभी पूरी तरह छठा नहीं है और सामने की खिड़की से आकाश बेहद खूबसूरत नज़र आ रहा है.. सामने से चमचमाती हैडलाइटों में वाहन जगमगाते हुए एक कतार से गुज़र रहे हैं तो लग रहा है जैसे स्वप्न हैं विविध रंगों में... सोचता हूँ अगर यूँ ना होता तो क्या होता। अगर यहाँ ना होता तो कहाँ होता। किस हाल में होता, क्या कर रहा होता। हम सारी ज़िन्दगी कितने ही रूपों में अपने अस्तित्व का एनेल्सिस कर चुकते हैं, पर फिर भी एक बाधा बनी रहती है... एक सटल सी कन्फूज़न साथ चलती है और उस अनिश्चितता से ही एक रोमांच बना रहता है.. जीने में मज़ा आता है.. दिन कितना भी साफ़ क्यों ना हो पर सुबह का कोहरा सबसे ज़्यादा आकर्षक होता है.. उसमे से गुज़र कर निकल जाना कई विस्मयों को सफलतापूर्वक पार करने सी अनुभूति देता है.. हर वो चीज़ जो धुंधली है उसमे खोज का स्कोप बना रहता है.. आप जितना ज़्यादा उस धुंध में उतरते जाते हैं सिरे खुलते रहते हैं.. मैं सोचता हूँ कि ये रैस्टलैसनैस क्यों है, धैर्य क्यों टूट जाता है, ये उत्तेजना कहाँ तक साथ रहने वाली है और इससे क्या मिलना है.. पर मुझे लगता है कि ये स्वाभाविक है, अगर सांस चलती है तो दिल का धड़कना भी बनता है.. जीते जी जड़ हो जाना उस बाँझ पेड़ के सामान है कि जिसमे कोई फल नहीं लगता, उस बंजर बाग़ की तरह के जिसमे कोई फूल नहीं महकता।मुझे लगता है कि हर आदमी में एक पैशन होता है और ज़िन्दगी में एक बार ही सही पर उस पैशन को औबसैशन की शक्ल देनी चाहिए। मैंने कला को चुना या यूँ कहूँ की मुझे कला ने चुना तो इसमें क्या फ़र्क़ है.. पिछले कुछ समय से यहाँ घर से हज़ारों किलोमीटर दूर रह कर महसूस किया कि जीना असल में क्या है.. यथार्थ के पटल पर संघर्ष के क्या माने हैं.. कला किस हद तक कंस्ट्रक्टिव है.. यहाँ आये दिन न जाने कितने ही लोगों से मिलना होता है, कितने अनुभव ज़िन्दगी के पन्नों में दर्ज़ हो रहे हैं.. चमत्कार कोई सुपर नेचुरल चीज़ नहीं वो यहीं हैं हमारे आसपास, रोज़मर्रा की गतिविधियों में.. मैं आये दिन चमत्कृत होता हूँ.. और अभी इनसे भरा नहीं हूँ, हमें सरलता से जीना चाहिए, ताकि हम जीवन द्वारा चमत्कृत हो सकें। मैंने ये भी महसूस किया ये शहर वाकई कमाल है, इसकी हवा में ही एक आज़ादी है, जब से यहाँ हूँ एक अजीब सी थ्रिल महसूस करता हूँ, परेशानियां घेरे रहती हैं फिर भी कमज़ोर महसूस नहीं होता। जीवन जीने का एक मात्र तरीका यही है कि स्वाद लिए जाएँ। कुकिंग पसंद आने लगी है अब तो रेसिपी रेफेर करना अच्छा नहीं लगता, इसके रेफरेन्स से ज़्यादा सहज है कि खुद ही ट्राई किया जाए, जैसा भी पके, परोसा जाए क्योंकि जो हमारा अनुभव है, जो हम महसूस करते हैं सिर्फ वही हमारा सत्य है और वह जो हम रेफ्रेंसेज़ में पढ़ते हैं या दूसरों से सुना होता है वह किसी दूसरे का.. जब हम उससे जुड़ते हैं तो हम दूसरे के सत्य को अपना मान रहे होते हैं... वह मिथ्या है... ठीक वैसा कि क्लिफ जम्पिंग करने से पहले खुद को आखिर तक बचाए रखना व साथियों को कूदते हुए देखते कूदने के बाद की संभावनाओं का पूर्वानुमान लगाना।
तस्वीर : Raj Jain
"अलीगढ़"
"शेम"
अलीगढ़ ये केवल एक विषय नहीं है ना ही दो घंटे की सधी हुई, कसी हुई कोई विविध दृश्यों से भागती, रिझाती हुई फिल्म। अलीगढ तो ठहराव है.. यह तथाकथित समाज की स्वनिर्धारित नैतिकताओं के पीछे दबती हुई मानवीय संवेदना का संताप दर्शाती हुई कहानी है, यह कहानी है एक ६४ वर्षीय प्रोफेसर की, उसकी प्रौढ़ दुविधाओं की, उसके अविरत अकेलेपन की, उसकी प्रेममय प्रवृति व अस्वीकार्य संवेदनाओं की... यह कहानी उस शख़्स की नहीं जो एक होमो या गे है बल्कि ये कहानी चुनौती है हमारी उस संकुचित सोच के खिलाफ जो मानवता की आड़ में संवेदनहीनता के सर्वोच्च शिखर पर खड़े हो कर समाज के विकास के खिलाफ खोखली आवाज़ें व नकली आंसू बहाते हैं..ये कहानी है उन सभी बलात्कारी प्रवर्ति वाले तमाम नौजवानों की जो निर्भया कांड पर सबसे ऊँची आवाज़ में शोर मचाते सुनाई दिए गए, ये कहानी है हमारे खोखली नैतिकताओं की, ये कहानी है बदलाव के खिलाफ खड़ी अंध व कट्टर विचारधारा की, ये कहानी है गांधारी समाज की जिसने जन्म तो लिया खुली आँखों के साथ ही लेकिन कुछ एकालाप करती आवाज़ों के शोर की बिनाह पर खुद ब खुद आँखों पर पट्टी बांध ली.. उस भीड़ की जिसने खुद को धार्मिक, नैतिक, व संवेदनशीलता के आधार व्यक्ति विशेष से ऊपर ला खड़ा किया व खुद को समाज के नाम से हर उस व्यक्ति पर थोप दिया जिसने अपनी इंडिविडुअलिटी को सभी सरोकारों से ऊपर समझना चाहा। जिसने मानवता के आधार पर अपने दिल को संभाला व सोच को विकसित किया उस पर अमानवीय होने का दवा ठोका गया.. जिसने बदलाव की बात की उसे गैरसमाजिक बता कर उसके तर्कों को बिना सुने ख़ारिज किया गया.. हो सकता है कि आज मेरा ये कंटेंट कहानी पर बात रखते रखते आपको भटका रहा हो पर सार्वभौमिक मुद्दा यही है कि हमने खुद को आदी बना लिया है पूर्वनिर्धारित कथ्यों के आधार पर घुट-घुट कर जीने का और जो यहाँ खुली साँस भर जीना चाहता है हम जाने अनजाने उसकी इस अप्प्रोच से आहात होने लगते हैं.. हम बदलाव की बात करते हैं उस पर अमल भी करते हैं पर सिर्फ उस ही बदलाव पर जो हम चाहते हैं, हमें सही लगता है, किसी दूसरे के बदलाव की परिभाषा हमारी वाली से अलहदा हो जाये तो हम असहज होने लगते हैं.. हम उस बात को सामाजिक कांटे के आधार पर तोलने लगते हैं, उस सामाजिक आधार पर जो हमारी समझ व सहूलियत के हिसाब से बना है... मैं इतना सब इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मैं उस असहाय व संकोची प्रोफेसर की भावनाओं से भरा हुआ महसूस कर रहा हूँ.. फिल्म ख़त्म होने से एग्जिट करने तक, सड़क पर चलते हुए व घर पहुँचने तक जो एक बात मुझे कचोटती रही वह यह कि ये वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है जो जो लोग आत्महत्या करके मृत्यु को चुनते हैं असल में वे सबसे अधिक जीवन के प्रेम में होते हैं अगर उन्हें जीवन से प्रेम ना होता तो वे कभी दबाव महसूस नहीं करते, असामयिक मृत्यु को ना चुनते, उन्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता, जीना उनके लिए मृत्यु सामान ही होना था। जीवन का सेंसेशन ना रहता ना मृत्यु का कोई भय पर नहीं जिन जिन लोगों ने स्व्हत्या को चुना ये जीते रहने की बाज़ी को हारते चले गए... दुखद है कि हम समाज की चिंता करते हैं, दुखद है कि हम लोगों को दूसरे लोगों से फ़र्क़ पड़ता है, दुखद है कि हम खुद को सही व दूसरों को गलत ठहराने की अजीब सी मानसिकता से ग्रसित हैं... दुखद है कि हम जीते कम हैं और आँकते ज़्यादा हैं... डॉक्टर श्रीनिवास रामचन्द्र साइरस गे नहीं थे वे प्रेमी थे, बस उन्होंने प्रेम की उस कड़ी को तोडा जो लिंगों तक सिमित रही.. इन सभी बातों के बीच जो अत्यधिक दुखद रहा वह ये था कि वो भाषा पढ़ाने वाला, कविताओं को जीने वाला प्रोफेसर किसी को अपनी बात नहीं समझा सका.. अपने बनाये शैल में एक धारा में बह कर जीवन जीने वाला वह सामान्य सा आदमी जिसको इस समाज ने धाराओं के जाल में फसा कर अदालत तक घसीटा, अपनी मुट्ठी में उपज रखने वाले उस प्रगतिवादी शख़्स का हश्र ये हुआ कि उसकी प्रेम से लबरेज़ आँखें कब भय से तिरने लगी वो भी नहीं समझ पाया। हालांकि अंत में उसे अदालत ने मुक्त छोड़ा परन्तु वह समाज द्वारा रची हुई नैतिकताओं की पहेलियों में इस कदर उलझता चला गया कि अदालत के फैसले एक दिन बाद ही शरीर त्याग कर सही मायनों में खुद का मुक्त होना चुना।
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