गज़ालों की उस जुम्बिश में हमने भी अपनी एक नज़्म पेश की,
उठ खड़े हुए सब सर ज़मीन से,
हवाओं में लहराती वाह-वाही ने हमारी ताज पोशी की..
कदमों के लड़खड़ाने को तुम मदहोशी न समझो,
ये तो यूँ है की हमें मंजिल आसान पसंद नहीं...
रातें खुश नुमां, दिन धुआं,
अब तो हाल ये है की उजालों से डर लगता है हमें..
इस ही तरह दिन बदले, रातें गुज़री, ज़माने रुकसत हुए कई,
कई परिंदे जुदा हुए, कई ख्वाब धुआं, कई क़ैद में ही रहे,
थे कुछ जो उड़ गए वो भी जकडे गए आसमानी जंजीरों में,
क्या खुला आसमां भी कहीं थमता है?
इस ही सवाल में उलझे हुए बस हम अभी तक हैं यहीं...
मेरी नज़र और नजरिया दोनों में तुम हो,
नज़र तुम पर अर्ज़ है और नजरिया खुद का मुकरर्र..
रात भी शबाब पर है आज और चाँद भी पूरा है,
सितारे भी गिनने को है फलक पर और बादलों का मेला है..
ऊपर खुला आसमां जैसे बुला रहा है ये कहता हुआ,
की बस रात ही है जिसमे तुझे खोना है,
दिन तो हर रोज़ तू एक नया खोता है..
राह की तलाश में गुमराह में चलता रहा,
न मैं हारा कभी, न राह-ए-उलझन सुलझी...
ये मेरा खालीपन है या उसकी जुदाई है,
नूर बरसा दे मुझ पर, तेरी खुदाई है ..
शमा-ए-इश्क की लौ में हम इस कदर जल गए,
न दिखे हम, न घाव, रूह लुट गई बस धुँए रह गए..
दुनिया में आशिकों कमी न थी,
हम ही थे जो गम के हवाले रह गए..
मिट गए सारे नज़ारे, रौशनी,
हम सूनी गलियों को गम के रखवाले रह गए..
कहा है खूब उस शायर ने भी की,
घर से तो हम चले थे खुशियों की चाह में,
गम राह में खड़े थे वो भी साथ हो गए..
शमा-ए-इश्क की लौ में हम इस कदर जल गए,
न दिखे हम, न घाव, रूह लुट गई बस धुँए रह गए..
इन लफ़्ज़ों की आवा-जाही में हर पल फसते हैं मेरे अलफ़ाज़,
के यहाँ अदब से आदाब नहीं मिलता और शादाब से शब नहीं घटती..
सीने में रौशन मेरी खामोशी सब दफ्न कर देती,
पर तेरी चीखों ने सभी दर्द फिर से आज़ाद कर दिये..
रोज़ रात अपने बिस्तर पर धसा हुआ मैं खुली आँखों को बढा कर
देर तक कुछ सोचता हूँ, कुछ ढूँढता,
उस ख्वाब की तकमील तलाशता हूँ शायद,
जिसके आगाज़ की तारीख मैंने अभी तय नई की...
रात बस मलाल में डूबा मैं खो गया,
निगल गया अँधेरा मेरे साये को, मैं तन्हा सा हो गया..
चाँद सोया हुआ और सब लौ गुम,
किससे करूँ शिकवा की ये क्या हो गया?
एक तारे की हुई फज़ल, वो टिमटिमाया,
तो हल्की रौशनी में मुझे मेरा साया नज़र आया..
बड़े एतीहात से करना चाहता था इस्तेकबाल उसका,
पर नींद से लड़ता हुआ मैं फड़फड़ा के बुझ गया,
अब मैं शिकस्ता सो रहा मेरा साया जी गया...
सांस अभी बरक़रार है, मुझको महसूस होती है,
खुली आँखों में ये दुनिया मेरी नज़रों मन बंद रहती है..
आवाज़ बाकीं है अभी, गूंजती है कमरे में,
दीवारें आज भी कभी कभी मेरे राज़ सुनती हैं..
हाथ पैर हिलते भी हैं झूलते हुए तो यकीं है के मैं जिंदा हूँ,
वगरना जीस्त के इस सुकूं को लोग मेरी लाश कहते हैं..
दिनों को रातों में तब्दील होती देखती हैं ये निगाहें रोज़,
सूरज को बुझा कर, रौशनी चिरागों में ढूँडती हैं ये निगाहें रोज़
सच की तलाश में रहती मगर एक नया भ्रम खोजती हैं ये निगाहें रोज़..
फिसलती अक्सर हाथों से, ये रेतें आज़ाद हैं
या की फिर मुट्ठी की पकड़ कमज़ोर है..
बादलों की कहानी भी अजीब है,
कभी बरसना है गरज कर तो कभी हवा की ठोकरें हैं..
मैं तो शीशा हूँ,
मेरा अपना कोई वुजूद तो नहीं..
न नाम है मेरा जुदा कुछ,
मुख्तलिफ कोई अंदाज़ भी नहीं..
न ही ख्वाबों के मंज़र,
न उम्मीदों के मकां,
न चमकने की ख़ुशी,
और न टूट जाने का गम कोई..
जज्बातों में क़ैद मैं होता नहीं,
न ही एहसासों की समझ कोई...
न ही गिरने का डर और बिखरने का दर्द,
मैं तो सिर्फ शीशा हूँ, कोई शख्सियत तो नहीं..
हो तुम जो हो दिखता हूँ,
नहीं अगर पसंद, मेरा कुछ कुसूर तो नहीं..
मैं तो सिर्फ शीशा हूँ,
मेरा अपना कोई वुजूद तो नहीं..
राख ही नहीं यहाँ थे निशाँ-ए-ज़िन्दगी भी,
शोर-ओ-गुल में चूर थे, अब जो सन्नाटों में तैरते हैं
तूफानों के शोर में भी राग हैं जो गूंजते से,
उनको सुन कर फूलती नसों में खून झूमते हैं...
थे न काबिल के तब रुसवा किया था तूने हमे,
तुझ में ही खोये रहे, अब खुद को भी हम खोजते हैं..
के गिर गए जो टूट कर लहरों में दफ़्न थे कुछ महल..
आज भी उन रेतों में हम अपने मकाँ को ढूंढते हैं..
ये तो शब-ओ-रोज़(दिन-रात) का तमाशा है,
के जहाँ से आये थे वहीँ को निकल पड़े,
जो पड़े थे बिस्तर पर लाश की तरह रात भर,
सहर होते ही मुर्दे भी रूह तलाशने निकल पड़े..
शहर में चीखें तैरती हैं कश्ती की मानिंद,
सैलाब एक सिलसिला हुआ जो मुसलसल चल पड़ा है,
शख्स तो वो मोम है जो आंच से पिघल जाए
ये कौन आतिश है जिससे बयाँबा जला है..
नहीं आती न सही कज़ा, ज़िन्दगी कटती नहीं तो क्या,
पूछ जहाँ बिन बुलाये पहुची ये कैसी बेहया है..
तेरे दर पे या रब ये कैसा है मंज़र,
कभी काबा था जो, आज कब्रिस्तां हुआ है
बादल थे मेरे ख्वाब टंगे रहते थे आसमाँ पर।
अबके मौसम ख़राब था, के आँखें बरसी जमकर।
उमस भरे घर में घुटते हुए यूँ,
क्या देखा है तुमने भी
टपकते ख्वाबों को
खिड़की से झांक कर??
Very Good Bro.......
ReplyDeleteBahut achha likha hai