Wednesday, July 25, 2012

मैं और मेरा साया


वह शाम क्या कहूँ बस मेरी आँखों में नज़र आज भी है,
हल्की सी बची धूप से सजा असमान किसी मंझे हुए कलाकार 
की अद्भुत रचना मालूम पड रहा था, 
जिसमे बिखरे हुए रंग थे तो गूंजता संगीत भी,
नृत्य भी था व उमंग भी..  
कुछ बातें भी छिपी थी जहाँ 
व कुछ जज़्बात भी घर कर चुके थे..
जहाँ हवाओं संग झूमते पेड़ बेफिक्र अपनी महक लूटा रहे थे
तो पंछियों की मीठी आवाजों के कोलाहल से सुरमई थी सारी फिज़ा..

भावुकता की धार में कल्पना की नाव पर सवार 
मैं रोमांच की सभी सीमाओं को लांघ कर 
बहुत दूर निकल गया था, की तभी
शांत हवा एक झोंखा हल्के से मेरी 
आँखों तक पहुंचा तो कई पलों बाद मेरी पलकें झपकी
और पाया वहां नज़ारा कुछ और था,
चांदनी में नहाई हुई रजनी, आधी भीगी, आधी सुर्ख
अपने गीले केशों की छठा बिखेरती हुई सागर से निकली 
तो असर यूँ हुआ की पूरी फिज़ा को रंग चढ़ गया और अँधेरा हो गया....

वहाँ चाँद भी था थोडा खिला हुआ व तारे भी अपने किरदार में थे. 
नीले जल के बीचों-बीच बसे एक छोटे से टापू पर थे हम दोनों,
मैं और मेरा साया, खुशगवार माहोल था वहां
पर मेरा साया शायद कुछ रूठा था,
मैं टापू के ऊपर तो वह पानी पर लेटा था..
मैं उत्साहित था, वह निराश..
मैं हर्षित मन से विकसित, वह सर्व दुखों से सिकुड़ा हुआ 
मेरे विचलित मन की व्यथा थी जिससे मेरा साया चिंतित था,
मैं तो फिर भी बहल गया पर वह स्तब्ध स्थिर था, 
मैं कल्पना से भ्रमित था शायद परन्तु वह सत्य से परिचित था..

उस दिन कुछ यूँ था मेरा साया,
मुझसे अधिक जीवित, मुझसे अधिक गहरा....  
  

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