मेरे पास भी एक डायरी थी,
जिसके हर पन्ने पर मैं कुछ निशानियाँ रोज़ गढ़ता था,
कुछ खट्टे तो कुछ मीठे लम्हे कैद करता था..
मेरे एहसासों की तिजोरी थी,
जहाँ अपने विचारों की वसीहत मैंने संभाली थी,
हृदय के मोती थे मेरे शब्द, जिन्हें मैं रोज़ गिनता था..
जीवन के अनूठे अनुभवों से बनी थी मेरी डायरी,
जिसमे रोज़ नए किस्से, नई कहानियाँ मैं दर्ज करता था..
मेरे सपनों का लेखा-जोखा भी था जिसमे,
अश्कों के खाते भी मैंने बनाये थे,
मेरे कुछ जरुरी कागज़ात जिस पर
आशा व निराशा के हिसाब-किताब मैं लिखता था..
कुछ पन्ने फटे हुए थे उसके, जो निशानी थी मेरे दुखों की,
और कुछ कोरे थे जिनमें अपनी खुशियों को मैं खोजा करता था..
थोड़ा पुराने कवियों व शायरों से लिया कर्ज़ा भी था उसमें,
जिसका न मुझ पर कोई ब्याज लगता था न कोई भुगतान मैं करता था...
मेरा काफी लगाव था मेरी डायरी से,
वह बंद भी रहती थी तो भी मैं उसे पढने की कोशिश करता था..
बंद किताबें पढना मेरा कोई हुनर नहीं था,
मैं तो बस उसके हर एक पन्ने को रोज़ रटता था..
एक मोर-पंख, एक बुक मार्क
व कुछ यादें समेटे रहती थी वो मेरी डायरी,
जिस पर इतिहास की ख़बरें संजोये
पुराने अखबारों की मैं जिल्द चढ़ा कर रखता था..
वो हर वक़्त मेरे पास रहती थी,
जीवन के हर एक पल को उस पर लिखना चाहता था,
पर जीवन उसका भी सीमित था, अंत उसका भी निश्चित था..
फिर एक दिन उसके धागे ढीले पड़ने लगे,
मेरे न जाने कितने ही कडवे एहसासों को सहनशक्ति से
संजोने वाली मेरी बहादुर डायरी कमजोर पड़ने लगी..
मैं उससे वियोग कि चिंता में हर पल टूटने लगा,
अपनी कलम के कंधों पर सर रख फूट-फूट कर रोने लगा..
मुझे टूटता देख, गुमसुम, आँखों में आँसू लिए मेरी डायरी मुझसे बोली
"पहले तेरी यादों को मैं बटोरे रहती थी, अब कुछ यादें छोड़े जाती हूँ तू समेटे रखना"..
मेरी भी एक डायरी थी जिससे कभी मैं बातें करता था,
आज अकेला हूँ मगर उन यादों संग जी लेता हूँ,
वह मोर-पंख, वह बुक मार्क साथ हमेशा रखता हूँ..