Tuesday, September 24, 2013

*एक घर*


कब तक तेरे सारे सपने

पैरों में हैं उलझे हुए,
कब तक तेरी आँखें प्यासी, 
इन सूखे सपनों की परत लिए।

कब से तेरा आकाश है सूना,
इन बरसातों के सैलाब पीये,
कब तक इन कच्चे रास्तों पर
तू ठोकरें और ख़ाक सहे।

कब तक तू यूँ बेघर हो,
घूमेगा सड़कों-सड़कों,
कब तक तेरे नंगे सर को
एक टूटी छत का इंतज़ार रहे। 

1 comment:

  1. बहुत सही ....

    कैसे करूँ मैं बारिश की दुआएं ...
    देखे हैं मैंने भी कच्चे झोंपड़े ... !!

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