आज "मकबूल" देखी। बहुत देर से देखी पर संतुष्ट हूँ की मिस नहीं की। वैसे तो बड़े बड़े कलाकारों की एक लम्बी लिस्ट शामिल है पिक्चर में। एक से एक फ़नकार, किरदार-निगार। सभी अव्वल दर्जे के अभिनेता मगर फिर भी आज पियूष मिश्रा के लिए दिल में इज्ज़त और बढ़ गयी है। बहुत ही असल व सरल तरीके से निभाया उन्होंने काका का किरदार। एक जगह जब मकबूल(इरफ़ान खान) जहाँगीर(पंकज कपूर) और काका(पियूष मिश्रा) को बताता है की काका के बेटे गुड्डू व जहाँगीर की बेटी इश्क के लपेटे में हैं, ये सुनते ही जैसे पियूष मिश्रा का खून खौल उठता है। उन्हे अपने बेटे से गद्दारी व नमक हरामी की बू आने लगती है और वह जहाँगीर के सामने शर्मिंदा हो कर रह जाते हैं, तभी गुस्से में उठते हैं और उसको तो तब तक मारते रहते हैं की जब तक वो खून से लथ-पथ नहीं हो गया। कितना सच्चा अभिनय, मारते वक़्त वो उनकी आँखों और लहजे में पागलपन देखते ही बनता था। बेचारगी, कुंठा व लाचारी में अवसाद का यूँ बहार आना लाज़मी था।मुझे तो लगता है की इस तरह का पागलपन सिर्फ पियूष जी ही दिखा सकते थे। बहरहाल एक बहुत अच्छी फिल्म, सभी किरदारों ने अभिनय को सातवें आसमान तक पहुंचा दिया था और अंत में मकबूल की गोद में तबू का आंखरी साँसे गिनना और रो रो कर ये पूछना की "हमारा इश्क पाक था ना? बोलो न मियां हमारा इश्क पाक था ना?" पूरी कहानी को इन दो पंक्तियों में ही बयां कर देता है।
विशाल भारद्वाज का एक बार फिर बेहतरीन काम।
पंकज कपूर, इरफ़ान खान, तबू,
नसीर-साहब, ओम पूरी व
पियूष मिश्रा की जानदार अदाकारी।
एक बहुत अच्छा सिनेमा।
विशाल भारद्वाज का एक बार फिर बेहतरीन काम।
पंकज कपूर, इरफ़ान खान, तबू,
नसीर-साहब, ओम पूरी व
पियूष मिश्रा की जानदार अदाकारी।
एक बहुत अच्छा सिनेमा।
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