Thursday, October 10, 2013

"मुनियाँ के चाँद"

रात भर फुट-पाथ पर लेटे घंटों 
चाँद को निहारती रही मुनियाँ,
अनहद तुलनात्मकता 
कभी चाँद का उजलापन, 
तो कभी फीकी मासूम हथेलियाँ। 

उसकी समझ से परे था। 

दरअसल सुबह
माँ से जिद्द कर हिना के
दो चाँद रचावा लायी थी हथेली पर,
और अब न जाने किस उम्मीद में थी??
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फुट-पाथ पर रहने वालों
की कोई कल्पना नहीं होती।
उनके कैनवास सिर्फ स्याह होते हैं,
वहां कोई और रंग नहीं ठहरते।
रात शाश्वत होती है पर
कभी रौशन नहीं होती।

फिर भी मुनियाँ की नन्हीं हथालियों पर
माँ अकसर उम्मीद के चाँद उकेर देती है,
"शायद जिंदा रहने के लिए पड़ने वाली
जरूरतों को खूब समझती है "बेचारी"

1 comment:

  1. फिर भी मुनियाँ की नन्हीं हथालियों पर
    माँ अकसर उम्मीद के चाँद उकेर देती है,
    "शायद जिंदा रहने के लिए पड़ने वाली
    जरूरतों को खूब समझती है "बेचारी"
    ***
    मार्मिक!

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