कहानी ज़र्द पन्नों में दर्ज़ प्राण, आभ्यंतर विकसित अपेक्षाएं व उम्मीद आधार।
इतनी जिवंत कि उस अंतराल में उससे इतर यथार्थ कुछ नहीं...
मृदु अतः मूढ़ नक्काश।
आकृति- किरदार परदराज़ अंतिम आकाश में अभी तक धुँधली अब अदृश्य।
भाव ढाँचे से निकलकर अपने मौलिक आवरण में स्थापित व शब्द गल कर पुनः कच्छ।
अधघटे किस्सों के ढेर में गर्द में लिपटे संवाद।
......स्मृति पटल पर मंचित यह एक उदासीन रंगमंच।
इतनी जिवंत कि उस अंतराल में उससे इतर यथार्थ कुछ नहीं...
मृदु अतः मूढ़ नक्काश।
आकृति- किरदार परदराज़ अंतिम आकाश में अभी तक धुँधली अब अदृश्य।
भाव ढाँचे से निकलकर अपने मौलिक आवरण में स्थापित व शब्द गल कर पुनः कच्छ।
अधघटे किस्सों के ढेर में गर्द में लिपटे संवाद।
......स्मृति पटल पर मंचित यह एक उदासीन रंगमंच।
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