"उजला ही उजला शहर होगा जिसमे हम तुम बनाएंगे घर"
इस गीत में इतना कुछ कहा जा चुका है कि अब बस इसे रिवाईंड करती रहना, परतें खुलती रहेंगी और कुछ देर बाद तुम महसूस करने लगोगी कि ये गीत एक चिठ्ठी की शक्ल में तब्दील हो चुकेगा कुछ इस तरह कि लिखा गया हर शब्द लयबद्ध तुम्हारी आँखों के आगे थिरकने लगेगा। यह एक मात्र लैटर होगा जो जीवंत हो उठेगा, जिसमे संगीत भी होगा, गायकी भी, जिसमे भाव, सम्वेदना का उदगार होगा। तुम्हारी आँखें छलकें ना सही अगर मुंद भी गयी तो समझना कि किसी ने इसे चरम तक महसूसा होगा।
तुम्हें पता है तुम्हारा तसव्वुर मुझे ज़मीनी नहीं रखता, मैं बड़ा मामूली सा आदमी हूँ जो खुद को कई मुगलतों में रखे हुए है.. मैंने कला को चुना और प्रेम से बाध्य हुआ... और सच कहूँ तो इन दोनों की ही व्यापकता का विस्तार नहीं ढूंढ पाया हूँ आजतक ठीक उस तरह जिस तरह नहीं ढूंढ पाया हूँ आजतक चरम उस अलौकिक स्पर्श का जब तुम्हारी निर्मल देह को मेरी आँखों ने नेह की गहराईओं से छुआ था...
तुम जब सामने होती हो तो नदी सी बहती जाती हो, तुम्हारे वो एक्सप्रेशंस, वो आँखों व होंठों को ओवर ड्रेमटाइज़ रुख देते हुए रैपिड लगते हैं मुझे, कि जितने रैपिड आते हैं मैं उतने ही उद्वेगों से भर उठता हूँ.. तुमने सुन रखा होगा कि हर रैपिड के साथ ही राफ्ट की थ्रिल और बढ़ती जाती है..
दुनिया की कितनी भी कहानियां क्यों न हों कितने गीत सब में एक बात कॉमन मिलेगी, चाहे कर्ट कोबैन हो या कोल्ड प्ले, जेम्स, जॉर्ज या ज़ैप्लीन या चार्ली, क्लूनी या फिर पियूष, साहिर या गुलज़ार इतना भी आसान नहीं रहा होगा गुलज़ार हो जाना। सफर लम्बा रहा होगा, तमाम पथरीली राहों पर भटक कर धूल खाती ये बेढ़ब नज़रें जब तुम पर ठहरी होंगी तो एक बार फिर रंगों से भर गयी होंगी। इन सभी के फन की एक और कॉमन बात होगी कि इन सभी ने ज़रूर तुमसे ही प्रेम किया होगा कि दुनिया की हर "तुम" किसी न किसी वीराने में गुलिस्तां ईजाद करती रही हो कि तमाम चितेरों के रंगों से ये महक यूँ ही नहीं आती......
सुनो कभी अगर मौका मिले और पहाड़ों पर हो तो महसूस करना आसपास की घाटियों में साँझ की आड़ में कई इंतज़ार सिम सिम कर बल रहे होते हैं और हवाएं अपनी पेशानी पर हाथ रखे नंगे पाँव ही निकल पड़ती हैं "हम ही" में की राह में.... और वे जब मिलते हैं ना वहां से सभी राहें गुम हो जाती हैं।
दरअसल प्रेम कुछ बदलता नहीं है बल्कि यह बने रहने की हिम्मत देता है.. रस्ते रूखे सही पर सूखे पत्तों से वीरान नहीं लगते। उनमे राहगीरों के कदमों की आहटें उम्मीद की शक्ल में सरसराहट पैदा करती हैं... और फिर पियूष कहते हैं ना " आँगन में बिखरे पड़े होंगे पत्ते, सूखे से नाज़ुक से पीले छिटक के, पाँवों को नंगा जो करके चलेंगे, चरपर की आवाज़ से वो बजेंगे"
दरअसल प्रेम कुछ बदलता नहीं है बल्कि यह बने रहने की हिम्मत देता है.. रस्ते रूखे सही पर सूखे पत्तों से वीरान नहीं लगते। उनमे राहगीरों के कदमों की आहटें उम्मीद की शक्ल में सरसराहट पैदा करती हैं... और फिर पियूष कहते हैं ना " आँगन में बिखरे पड़े होंगे पत्ते, सूखे से नाज़ुक से पीले छिटक के, पाँवों को नंगा जो करके चलेंगे, चरपर की आवाज़ से वो बजेंगे"
सुनो ठीक उस तरह जैसे लौटना होता है ना दूर निकल जाने के बाद भी मवेशियों को चरवाहे तक, जिस प्रकार थक कर ऊब चुकी पगडंडियां घर की बखलियों पर पहुँच कर ही आह भरती हैं... ठीक उस ही तरह मुझे मेरा घर महसूस होता है तुम तक पहुंचना।
तुम्हारी किवाड़ों सी खुली बाहें वो आरामकुर्सी लगती हैं जहाँ तमाम उलझनों, थकावटों, व्यथाओं की केचुल उतार कर मैं इत्मीनान से सुस्ता सकता हूँ...और जब कभी भी अस्तित्व की भारी जद्दोजहद से उकता कर पहुँचता हूँ तुम तक तो अपने आप ही सभी उत्तर पा लेता हूँ..
"दुनिया बस यहीं तक खूबसूरत है कि तुम हो वरना कभी झाँख कर देखना झरोके से कि खाली सडकों पर चलती हुई वो बस कितनी अकेली है कि देखना दूर तक फैली उन वादियों में कितनी उदासी पसरी हुई है.."
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