Monday, December 9, 2013

"एक ग़ज़ल"

खुद के ही "वुजूद" से पैदा हुआ हूँ मैं,
रेशा ख्याल हूँ उलझ "पेचीदा" हुआ हूँ मैं।

ग़मों का "मुंजमिद" एक पुतला हुआ हूँ मैं,
एक "लम्स" रूहाना और पिघला हुआ हूँ मैं।

अनजान राहें "तीरगी" "अय्यारी" कि बातें,
इस शहर में सबसे ही अब "डरा" हुआ हूँ मैं।

"दुनियादारी" कि ये "सीखें", हैं मेरे किस काम कि
खुद में ही उलझा हुआ, एक "मुअम्मा" हुआ हूँ मैं।

ये "अज़ीयतें" "दुश्वारियां", "दर्द-ए-दिल" कि "दास्ताँ"
"ग़ारत" किसी शायर के "अशआर" हुआ हूँ मैं।

है गर ये "इब्तिदा" तो "इन्तहा" न पूछिए,
"जंग-ए-ज़िन्दगी" में अभी तक "चूका" हुआ हूँ मैं।

ख़ैर छोड़िये, कहिये, क्या "खबर" है आपकी
खुद ही कि कह-कह के अब तो "उबा" हूँ मैं।



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पेचीदा-जटिल, वुजूद- अस्तित्व, मुंजमिद-जमा हुआ,
तीरगी-अँधेरा, अय्यारी-होशियारी, मुअम्मा-पहेली,
अज़ीयतें-तकलीफें, दुश्वारी-मजबूरी, ग़ारत-बर्बाद,
अशआर-शेर, इब्तिदा-शुरुआत, इन्तहा-अंत
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1 comment:

  1. "दुनियादारी" कि ये "सीखें", हैं मेरे किस काम कि
    खुद में ही उलझा हुआ, एक "मुअम्मा" हुआ हूँ मैं।
    ***
    So true about each one of us... Life is a puzzle and so are we...!

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