मैंने देखा है सूरज को भी जलते, बुझते, फड़फड़ाते हुए
संघर्ष करते, पसीने बहाते हुए।
नियति की मार झेलते किसी काले बादल के पीछे
निस्तेज मुख को छुपाते हुए मैंने देखा है।
मैंने देखा है सूरज के हाथों में त्याग-पत्र।
उसके ललाट पर चिंताओं की महीन रेखाएं
अवसादों की गर्द से फीका पड़ा अलोक।
मैंने देखी हैं मजबूरियां,
जिम्मेदारियों के बोझ तले
दबते हुए उसके जोश को मैंने देखा है।
ठीक दोपहर-
युवावस्था में हांफते, लम्बी आहें भरते,
मस्तिष्क पर चक्रवात व आँखों पर अंधकार झेलते
उसके कमजोर पड़ते
कदमों को लड़खड़ाते हुए मैंने देखा है।
मैंने उजालों की अथाह मांगें देखी हैं।
बगावत के ऊँचे स्वरों में रौशनियों को नारा लगाते सुना है,
अगिनत किरणों को षड्यंत्रों के चक्रव्यूह रचते,
अनंत अपेक्षाओं और दबावों से बिगड़ी जलवायु
व वातावरण की असहजता को मैंने देखा है।
मैंने कटने से पहले ही फसलों को उजड़ते हुए देखा है,
भांपा है मायूसी को, सन्नाटों के छिद्रों से
फूटते उद्वेगों को महसूस किया है।
विषाद से भरे हुए, रुदन में सिक्त
बेवक़्त चढ़ती रात में
मुरझाये हुए सूरज को अस्त होते हुए मैंने देखा है।।
मैंने कटने से पहले ही फसलों को उजड़ते हुए देखा है,
ReplyDeleteभांपा है मायूसी को, सन्नाटों के छिद्रों से.......बहुत ही अच्छी रचना
सूरज के इस रूप की पहले कभी कल्पना नहीं कर पाई। बहुत ही सशक्त है आपकी ये कविता। एक अनदेखे आयाम को स्वरूप देती।
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