Thursday, May 1, 2014

"अकविता"

मैं अब कहानी कविता नहीं लिखना चाहता,
ज़िन्दगी को जीते रहने का सिर्फ एक ही तरीका नहीं है, 
ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के साथ चल कर भी गुज़ारी जा सकती है।
मुझे खेद है, दिन-ब-दिन मेरी उम्र घटती चली जा रही है,
और इस बात का कि मुझे अब तक अनुभवी नहीं कहा गया है।
दरअसल अनुभव ज़िन्दगी के सन्दर्भ में होते हैं 
पर मैंने तो अपना पूरा बुढ़ापा, आधी जवानी 
ज़िन्दगी से बहुत पहले ही बिता दिये हैं।
और अब धीरे-धीरे मेरे गर्भ पलायन का समय निकट आ रहा है..

मैं जब भी सोचता हूँ अक्सर वो दिन याद होता है
जिस दिन मैं पहली दफा मरा था !
बंद कमरे में फटी आँखों के सामने की दिवार दरकते देखी थी मैंने,
मेरे हृदय में उस दिन कोई रोष नहीं था, मुझे कोई पीड़ा नहीं थी।
मैंने उस मरने को जीया था, उसमे मासूमियत थी।
कोई भार नहीं था जिसे मैं लेकर मर रहा था, कोई तमन्ना नहीं थी।
पहली बार मैंने होश संभाला,
मृत्यु कच्ची उम्र का एक अनूठा अनुभव था..!!

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