मैं सबसे पहले बता देना चाहता हूँ
कि यह कविता नहीं
और न ही मैं कोई कवि हूँ।
मेरा शब्दकोष अपशब्दों
से भरा पूरा व बहुत सिमित है,
और क्योंकि मुझे अलंकारों, विशेषणों का कोई ज्ञान नहीं
इसलिए मेरी अभिव्यक्तियाँ भी
एकदम स्पष्ट, सपाट, नीरस व निंदनीय हैं।
मेरी रचनाशीलता में प्रकृति के
विभिन्न रंगों के लिए कोई स्थान नहीं,
मेरे सृजन का आधार सिर्फ और सिर्फ अन्धकार है।
और कविता?
कविता से मेरा सम्बन्ध सिर्फ इतना भर है जैसे
छाले भरे मुह के समक्ष रख दिए गए हों छप्पन भोग।
या जैसे सड़क के बीचों बीच स्थित बदबूदार सुलभ सोचालय
में बिना नाक दबाये बेशर्म खड़े हो बड़े आराम से मूतना।
न! मेरी साहित्य में भी कोई ख़ास रूचि नहीं है,
न ही कोई शौक है भंडारों में
अपनी कविताओं की आलू पूरी बाटने का,
न! मैं स्वीकारा भी नहीं जाना चाहता
और न ही कभी कहलाया जाना चाहता हूँ
"बच्चन" "शुक्ल" या "दिनकर।"
बात दरअसल ये है कि
दुर्भाग्यवश मेरा अपना एक पूर्ण नाम है
"मुकेश चन्द्र पाण्डेय"
और मेरा सबसे बड़ा डर व संशय उसके लुप्त हो जाने के प्रति है
व मैं संघर्षरत हूँ केवल उसके अस्तित्व को बचाये रखने के लिए................................
मेरे लिए कविता शुरू करना गांडीव पकड़ने सरीखा है
व उसे लिख चुकना ज़िंदा मछली की आँख फोड़ देने जैसा।
"एक तड़पती अंधी मछली है मेरी पूर्ण कविता।।"
No comments:
Post a Comment