मेरी चीखें अकेले ही निपट लेगीं
दुनिया भर के सन्नाटे से।
अँधेरे से कई तरंगें उभरेंगी,
तैरते इंसानों के सर नहीं दिखेंगे,
व भूमि सतह से नहीं आंकी जा सकेगी।
जब पेड़ों की जड़ें आपस में उलझ रही होंगी,
तब कोसों दूर किसी दूसरे जंगल में
घर्षण से आग की लपटे उठेंगी।
गर्मी से झुलस रहे कंकाल चादरों से चिपकने लगेंगे,
और कुत्ते गलियां छोड़ घरों में जा छिपेंगे।
तथ्यों व दस्तावेजों की आंच पर पड़े-पड़े पृथ्वी
धीरे-धीरे सिकुड़ रही होगी
और इंद्रधनुषों के गलने से
एक असहनीय गंध का आविष्कार होगा।
जिस आखरी दिन उल्काएं आकाश का हृदय भेदेंगी,
धरती पर तकनिकी विकास अपने चरम पर होगा।
What a haunting description of the inevitable!
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