Friday, July 27, 2012

आगे बढ़ा




नव खोज सा प्रतीत होता मुझको मेरा कारवां,

चक्षु प्रकाशित, ह्रदय उत्साहित, मुदित मन आगे बढ़ा,
कण-कण समेटे राह में रख पद कमल आगे बढ़ा...

रात सितारों ने झिलमिला कर थी नई जो राह सुझायी,
उस ही पथ, सर पर मुकुट, पुष्प-माल गल आगे बढ़ा...

चाप मथ सिन्दूर गढ़, ध्वज लाल संग आगे बढ़ा,
नभ तक पहुँच, रुक कर क्षणिक फिर ले विदा आगे बढ़ा...

पवन रथ पर हो सवार, काट घन आगे बढ़ा,
पहुँच प्रकाश नगरी जहाँ उन्मुक्त बह रही गगन गंगा,
लगा डूबकी, अमृतव चख, फिर प्रफूलित मन आगे बढ़ा...

अतुलित प्रसन्नचित, होम कर व्यथा, अनुराग सब मोह सुख,
बेराग के अंगोछे में कर हवन दुःख आगे बढ़ा...

अश्रु श्राद्ध कर, तार स्वयं को, नव प्रभात सन्मुख चला,
चक्षु प्रकाशित, ह्रदय उत्साहित, मुदित मन आगे बढ़ा...  

Wednesday, July 25, 2012

मैं और मेरा साया


वह शाम क्या कहूँ बस मेरी आँखों में नज़र आज भी है,
हल्की सी बची धूप से सजा असमान किसी मंझे हुए कलाकार 
की अद्भुत रचना मालूम पड रहा था, 
जिसमे बिखरे हुए रंग थे तो गूंजता संगीत भी,
नृत्य भी था व उमंग भी..  
कुछ बातें भी छिपी थी जहाँ 
व कुछ जज़्बात भी घर कर चुके थे..
जहाँ हवाओं संग झूमते पेड़ बेफिक्र अपनी महक लूटा रहे थे
तो पंछियों की मीठी आवाजों के कोलाहल से सुरमई थी सारी फिज़ा..

भावुकता की धार में कल्पना की नाव पर सवार 
मैं रोमांच की सभी सीमाओं को लांघ कर 
बहुत दूर निकल गया था, की तभी
शांत हवा एक झोंखा हल्के से मेरी 
आँखों तक पहुंचा तो कई पलों बाद मेरी पलकें झपकी
और पाया वहां नज़ारा कुछ और था,
चांदनी में नहाई हुई रजनी, आधी भीगी, आधी सुर्ख
अपने गीले केशों की छठा बिखेरती हुई सागर से निकली 
तो असर यूँ हुआ की पूरी फिज़ा को रंग चढ़ गया और अँधेरा हो गया....

वहाँ चाँद भी था थोडा खिला हुआ व तारे भी अपने किरदार में थे. 
नीले जल के बीचों-बीच बसे एक छोटे से टापू पर थे हम दोनों,
मैं और मेरा साया, खुशगवार माहोल था वहां
पर मेरा साया शायद कुछ रूठा था,
मैं टापू के ऊपर तो वह पानी पर लेटा था..
मैं उत्साहित था, वह निराश..
मैं हर्षित मन से विकसित, वह सर्व दुखों से सिकुड़ा हुआ 
मेरे विचलित मन की व्यथा थी जिससे मेरा साया चिंतित था,
मैं तो फिर भी बहल गया पर वह स्तब्ध स्थिर था, 
मैं कल्पना से भ्रमित था शायद परन्तु वह सत्य से परिचित था..

उस दिन कुछ यूँ था मेरा साया,
मुझसे अधिक जीवित, मुझसे अधिक गहरा....  
  

Monday, July 9, 2012

When It is a lunar eclipse


When, I sit alone on the courtyard in a lunar eclipse.
I curiously gaze at the moon to find my answers through the whole night,
but it seems flunked like me, eclipsed behind the clouds, unable to save its own light.

Dissatisfaction is the trails of imbalance, I bosom in my heart,
endless clamours overflow within, trolling and darting like an abstract art.
Keep rising desires scorch me like the flames of burning fires,
whole body seared with torment, carting me to the desperate despairs.
Shadow cries with the thirst of salvation but soul craves to survive,
this anarchy creates chaos and leaves me in the pursuit of a life.
Irresistible demands squeeze the sky in my dreams,
like a long hopeless search in the steeped dark night for the beams.
Life flows in with so many falls of new beings but unable to trace one,
like a melting candle lighting the whole surrounding, eventually lost by its own flame.

My heart screams “Why I wish? Why I desire?”
There are lots of titans inside me sharing the same spheres.
I brood sometimes for increasing the evil transactions on the pavement inside,
there is no accounting, there is no archive, there is nothing to refer at my side.
Just a lost uncalculated cluster of goods which is flourishing inside as dreams,
I wonder I was born naked but gradually became wicked just to chase false fames.
I am overburdened with the 
fictitious desires which shall reduce my living,
Oh my God! I implore, I sue for peace, please return me the reason of my being.
I am disillusioned from all the traps and complexities today,
Just the last desire is to rest my soul in peace some day.

I find myself reposed at the same place 
when I come back from the ride of my thoughts,
the night swoops over my desire, 

sometimes night, sometimes the desire near winning the fight.
At last the desire succumbs to the darkness of the night in the blitz,
this story, when I sit alone on the courtyard in a lunar eclipse.