Tuesday, February 25, 2014

"सूर्य अस्त"




मैंने देखा है सूरज को भी जलते, बुझते, फड़फड़ाते हुए
संघर्ष करते, पसीने बहाते हुए।
नियति की मार झेलते किसी काले बादल के पीछे
निस्तेज मुख को छुपाते हुए मैंने देखा है।

मैंने देखा है सूरज के हाथों में त्याग-पत्र। 
उसके ललाट पर चिंताओं की महीन रेखाएं 
अवसादों की गर्द से फीका पड़ा अलोक।
मैंने देखी हैं मजबूरियां,
जिम्मेदारियों के बोझ तले
दबते हुए उसके जोश को मैंने देखा है।

ठीक दोपहर-
युवावस्था में हांफते, लम्बी आहें भरते,
मस्तिष्क पर चक्रवात व आँखों पर अंधकार झेलते
उसके कमजोर पड़ते
कदमों को लड़खड़ाते हुए मैंने देखा है।

मैंने उजालों की अथाह मांगें देखी हैं।
बगावत के ऊँचे स्वरों में रौशनियों को नारा लगाते सुना है,
अगिनत किरणों को षड्यंत्रों के चक्रव्यूह रचते,
अनंत अपेक्षाओं और दबावों से बिगड़ी जलवायु
व वातावरण की असहजता को मैंने देखा है।

मैंने कटने से पहले ही फसलों को उजड़ते हुए देखा है,
भांपा है मायूसी को, सन्नाटों के छिद्रों से
फूटते उद्वेगों को महसूस किया है।
विषाद से भरे हुए, रुदन में सिक्त
बेवक़्त चढ़ती रात में
मुरझाये हुए सूरज को अस्त होते हुए मैंने देखा है।। 

Thursday, February 20, 2014

"काला इंद्रधनुष"




मैं कहता हूँ काले में सारे रंग देख ले,

जा तुझे मोक्ष कि प्राप्ति हो...
मात्र रंगों द्वारा छले जाना ही 
क्या आदर्श जीवन के संकेत हैं?

हो ऐसा कि तेरे पंख काट के फैंक दिए जाएँ 
तेरी ज़ुबान को मोड़ कर उस पर 
कसके एक गाँठ बाँधी जाये,
बुद्धि पर जंग लगे ताले फसा दिए जाएँ
और मायूस होने की लत पड़ जाने तक
तुझे सपनों के चलचित्र दिखाए जाएँ।
(चित्रों में सातों रंग व कुछ और मायावी रंगों का अनोखा समावेश हो)
और फिर अकस्मात ही तुझे
अवसाद, पीड़ा, निराशा
जैसे शब्द रटाये जाएँ,
तू तड़पे, घुटे, तपे, बुझे
जा तू जीते जी मरे,
तुझे ज्ञान प्राप्त हो"
बुद्ध का सा भ्रम हो
और तू ईसा के पुनर्जन्म को तरसे।
अतीत कि सभी विफल लकीरें
कोड़ों से पीठ पर गाढ़ दी जाएँ
व जब-जब तू मुक्ति को रोये
तुझे अपराध बोध पिलाया जाए।
तेरे माथे पर शिकन खिंचे,
व तेरे चेहरे के आलोक पर
भयानक नज़र भट्टू पड़े।
तुझ पर सिद्धांतों के सरियों से
नैतिकता की चोट पड़ें,
तेरा आत्म सम्मान हताहत हो,
और स्वाभिमान गिरे पड़े।
जिन चेहरों पर करुणा ढूंढे
तुझ पर थूक-थूक के जाएँ,
तू चूर चूर हो बैठ जहाँ
कव्वे तुझ पर बीट गिराएं।
तेरे धड़ पर दुखों के बरगद
व सर पर कैक्टस उग आये
जड़ों पर तेरी कुत्ते मूतें,
रातों में चमगादड़ मंडराएँ।

मात्र रंगों द्वारा छले जाना ही
क्या आदर्श जीवन के संकेत हैं?
मैं कहता हूँ काले में सारे रंग देख ले,
जा तुझे मोक्ष कि प्राप्ति हो...

Sunday, February 16, 2014

"तपता भूमण्डल"






मेरी चीखें अकेले ही निपट लेगीं
दुनिया भर के सन्नाटे से। 
अँधेरे से कई तरंगें उभरेंगी, 
तैरते इंसानों के सर नहीं दिखेंगे,
व भूमि सतह से नहीं आंकी जा सकेगी।
जब पेड़ों की जड़ें आपस में उलझ रही होंगी, 
तब कोसों दूर किसी दूसरे जंगल में 
घर्षण से आग की लपटे उठेंगी। 
गर्मी से झुलस रहे कंकाल चादरों से चिपकने लगेंगे, 
और कुत्ते गलियां छोड़ घरों में जा छिपेंगे।

तथ्यों व दस्तावेजों की आंच पर पड़े-पड़े पृथ्वी  
धीरे-धीरे सिकुड़ रही होगी 
और इंद्रधनुषों के गलने से 
एक असहनीय गंध का आविष्कार होगा। 

जिस आखरी दिन उल्काएं आकाश का हृदय भेदेंगी, 
धरती पर तकनिकी विकास अपने चरम पर होगा।

Monday, February 10, 2014

"स्वीकारोक्ति"




मैं सबसे पहले बता देना चाहता हूँ 
कि यह कविता नहीं 
और न ही मैं कोई कवि हूँ।

मेरा शब्दकोष अपशब्दों 
से भरा पूरा व बहुत सिमित है, 
और क्योंकि मुझे अलंकारों, विशेषणों का कोई ज्ञान नहीं 
इसलिए मेरी अभिव्यक्तियाँ भी 
एकदम स्पष्ट, सपाट, नीरस व निंदनीय हैं।

मेरी रचनाशीलता में प्रकृति के 
विभिन्न रंगों के लिए कोई स्थान नहीं, 
मेरे सृजन का आधार सिर्फ और सिर्फ अन्धकार है। 

और कविता? 
कविता से मेरा सम्बन्ध सिर्फ इतना भर है जैसे 
छाले भरे मुह के समक्ष रख दिए गए हों छप्पन भोग। 
या जैसे सड़क के बीचों बीच स्थित बदबूदार सुलभ सोचालय
में बिना नाक दबाये बेशर्म खड़े हो बड़े आराम से मूतना।

न! मेरी साहित्य में भी कोई ख़ास रूचि नहीं है, 
न ही कोई शौक है भंडारों में 
अपनी कविताओं की आलू पूरी बाटने का, 
न! मैं स्वीकारा भी नहीं जाना चाहता 
और न ही कभी कहलाया जाना चाहता हूँ 
"बच्चन" "शुक्ल" या "दिनकर।" 

बात दरअसल ये है कि 
दुर्भाग्यवश मेरा अपना एक पूर्ण नाम है 
"मुकेश चन्द्र पाण्डेय" 
और मेरा सबसे बड़ा डर व संशय उसके लुप्त हो जाने के प्रति है 
व मैं संघर्षरत हूँ केवल उसके अस्तित्व को बचाये रखने के लिए................................

मेरे लिए कविता शुरू करना गांडीव पकड़ने सरीखा है 
व उसे लिख चुकना ज़िंदा मछली की आँख फोड़ देने जैसा। 

"एक तड़पती अंधी मछली है मेरी पूर्ण कविता।।" 

Friday, February 7, 2014

"अजस्त्र कविता"

________________

महिला अधिकारों
से जुड़ा मेरा समाजवाद।
निपट अँधेरा कमरा,
रक्त रिसती कलम, 
शब्द षड्यंत्र, 
कालिख पुती शक्ल,
गर्दयुक्त संवेदनाएँ,
मजबूरी व कामनाएं,
निर्वस्त्र अबला,
नग्न कवि,
कोमलता व लाचारी,
हवस व तृप्ति,
शोषण व प्रताड़ना,
कामुकता व वासना,
न्याय की पुकार,
कविता का बलात्कार।।
_________________ 

Sunday, February 2, 2014

"क्षणिक मृत्यु"




मेरी आयु २६ साल ९ महीने हो चुकी है
और आज से ठीक २७ साल ६ महीने पूर्व
मुझे जन्मे जाने की प्रक्रिया के दौरान ही
एक अज्ञात दिवस पर मेरा मृत होना भी तय हो चुका था.........

ये खबर एक हफ्ते पहले की है
एक नवजात दुधमुँहा बच्चा (मेरे जैसे नैन नक्श वाला)
जिसकी माँ उसको जन्म देते ही चल बसी
रात भर भूखा तड़पता रहा व प्रातः ४ बज कर २० मिनट पर
उसकी लाश को गंजेड़ी बाप ने पास के गटर में बहा दिया.......

उसी रोज़ लगभग ३ बज कर १५ मिनट पर
पैदल रोड क्रॉस करते हुए
कुछ क्षणों के लिए जैसे ही मेरी आँख लगी,
ठीक उसी क्षण सड़क हादसे में मेरी ही कद काठी के
एक किशोर की मौके पर मृत्यु हो गयी.......

उस वाकिये के दो रोज़ बाद शहर से
लगभग ५५४ मीटर दूर स्थित छोटे से होटल में
मेरी मुलाकात मेरे ही एक हमशक्ल मनोरोगी से हुई
जिसकी प्रेमिका बीती रात उसके स्वप्न लोक से छूटकर
किसी बुद्धिजीवी के साथ फरार हो गयी
और जो अगली सुबह होटल के पंखे पर झूलता पाया गया.........

उस शाम सूरज डूबने से ठीक पहले
चौक पर स्थित शराबघर में
मेरी ही नाम राशि का एक अवसादग्रस्त अधेड़ उम्र युवक भी
शराब की दो बोतलों में डूब कर चित पड़ गया.............

व उस वारदात के ठीक १३ मिनट बाद
मेरे पड़ोस में रहने वाला निपट अकेला कमज़ोर दिल बूढ़ा
(जिसका वजन लगभग मेरे ही बराबर था)
अत्यधिक रक्त चाप बढ़ने से औंधे मुंह पड़ा था..............

वैसे ही कल रात ठीक ३ बज कर ३७ मिनट पर
मेरे घर के वॉशरूम में एक कॉकरोच भी तड़पता रहा.........
और उसी प्रकार ठीक इस क्षण १० बज कर ३७ मिनट पर
मेरे हाथों एक क़त्ल हो रहा है
जबकि अब मेरी यह कविता भी ख़त्म हो चुकी है................

खैर जन्मे जाने की प्रक्रिया के दौरान ही
एक अज्ञात दिवस पर मेरा मृत होना भी पहले ही तय हो चुका है………………