Wednesday, July 9, 2014

"प्रक्रिया"

सुदूर प्रदेशों से उड़ते शिथिल पँछी
आ पहुंचें हैं आरामदेह पिंजर में,
जटिल हस्त रेखाओं के बीच उलझे हुए कुछ पेचीदा स्वप्न
धूल के पीछे धूमिल होते हैं,
क्षितज के समानांतर एक महीन रेखा साथ चलती है,
स्मृति !
व मृत्यु जीवन के ललाट पर सज्जित
चन्दन टीके सी..
घटनाएँ जो अकारण प्रतीत होती हैं
दर्ज़ होती हैं नियति के खाके में प्रार्थमिकता सूची पर...
जबकि पंचतत्वों से मुक्त ओजस्वी देह
मुस्कुराती है दुखों वाले वर्जित क्षेत्र के निकास द्वार पर....
पलायन एक सुगम विकल्प है
सहजता से फिर लौट आने का..!!
व संघर्ष देहलीज़ पर प्रज्जवलित प्रतीक्षा दीप !!

Wednesday, July 2, 2014

"ओ मेरी प्रियतमा !"

ओ मेरी प्रियतमा !
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि तेरे न होने से घबरा कर बुझते दिये देखे हैं
मैंने अपने घर के..
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि बरसात की नब्ज़ टटोलता हूँ जब तेरे बिना
वो कमज़ोर है, आँखों से आ गिरती है, नमकीन मिजाज़।
तेरी आँखों के किनारे खड़ा हो के सोचता हूँ
गहरायी के बायस,
और उतरता चला जाता हूँ किसी महासागर की तहों तक
वहां प्रगाढ़ में पनपते जीवन में खुद को पाता हूँ उत्सवों में,
तेरे होंठ जो तरतीब से रखे हैं पत्तियों की मानिंद चेहरे पे
चूमने के ख्याल भर से उन्हें लाल हुआ जाता हूँ शर्म से
किसी भोर के सूर्य सा..
अपनी मुट्ठियों के सभी रंग फ़ोक आता हूँ आसमान पर..
तेरी हंसी गूंजती है मेरे एकांत लोक में,
और प्रतिध्वनित हो कर घुल जाती है हर कतरे में..
तेरी आवाज़ मिश्री सी उतरती है मेरी सांसों में..
और रक्तकणों के बहती कविता उतरती है पन्नो पे..
कंधे पर गिरते तेरे बालों पे फिसला हूँ
तेरी धड़कनों के सहारे से तेरे दिल तक पहुँचता हूँ
तेरी गर्दन पे मरता हूँ, तेरे कानो पर हौले से
अपनी साँसों से कहता हूँ,
"मुझे तुमसे प्रेम है"
ओ मेरी प्रियतमा !
तू कभी न होना मेरी आँखों से ओझल
कि दुनिया में कितना कुछ घट रहा है यूँ तो
भूगोल की सरहदों, इतिहास के गर्त,
विज्ञान की उन्नति, अर्थ की बहस
इन सब के प्रति जब कहने को कुछ नहीं होता और
मैं भावशून्य हो जाता हूँ
तब मात्र
इतना कह पाता हूँ कि
"मैं प्रेम में हूँ"