Friday, September 27, 2013

मैं भगत हूँ


मैं भगत हूँ 
कान खोल कर सुनो, 
और आँख पीस कर देख लो
इस आज़ाद भारत में बेड़ियों में जकड़ा 
हुआ, अंग्रेजों के छोड़े गए 
इन हुक्मरान कुत्तों 
द्वरा आज फिर घसीटता हुआ 
ले जाया जा रहा हूँ। 
सुना है आज मेरी फांसी का दिन है।
"इतिहास खुद को दोहराता है"
और मैं लटकने को तैयार भी हूँ,
पर अभी धमाका करना बाकि है।
स्वराज के लिए चीखते
लोगों का एक जुट होना बाकि है।
एम टीवी, वी टीवी
और ज़ूम के माया जाल में सूक्ष्म हो चुके
जॉब, बिज़नस के मुनाफे, करियर
की चिंता से ग्रस्त आई मीन, यू नो के रागों के
बीच कॉम ओन डूड लेट'स पार्टी करने वाले
युवाओं का भारत माता की जय का नारा लगाना बाकि है।
अभी इन्कलाब आना बाकी है।
अभी भगत तो है मरने को
पर जवाब में उमड़ता
हुआ जन सैलाब आना बाकी है।
अभी स्वराज पाना बाकी है।

मेरा क्या मैं तो इतिहास हो चुका
वर्तमान न अब बन पाउँगा,
कहने को हो तुम भविष्य देश के
पर अपनी प्यारी भारत माँ को
किसी वीर भगत ही को सौंप जाऊंगा।

(तुम अमर हो भगत सिंह)

Wednesday, September 25, 2013

"मकबूल"

आज "मकबूल" देखी। बहुत देर से देखी पर संतुष्ट हूँ की मिस नहीं की। वैसे तो बड़े बड़े कलाकारों की एक लम्बी लिस्ट शामिल है पिक्चर में। एक से एक फ़नकार, किरदार-निगार। सभी अव्वल दर्जे के अभिनेता मगर फिर भी आज पियूष मिश्रा के लिए दिल में इज्ज़त और बढ़ गयी है। बहुत ही असल व सरल तरीके से निभाया उन्होंने काका का किरदार। एक जगह जब मकबूल(इरफ़ान खान) जहाँगीर(पंकज कपूर) और काका(पियूष मिश्रा) को बताता है की काका के बेटे गुड्डू व जहाँगीर की बेटी इश्क के लपेटे में हैं, ये सुनते ही जैसे पियूष मिश्रा का खून खौल उठता है। उन्हे अपने बेटे से गद्दारी व नमक हरामी की बू आने लगती है और वह जहाँगीर के सामने शर्मिंदा हो कर रह जाते हैं, तभी गुस्से में उठते हैं और उसको तो तब तक मारते रहते हैं की जब तक वो खून से लथ-पथ नहीं हो गया। कितना सच्चा अभिनय, मारते वक़्त वो उनकी आँखों और लहजे में पागलपन देखते ही बनता था। बेचारगी, कुंठा व लाचारी में अवसाद का यूँ बहार आना लाज़मी था।मुझे तो लगता है की इस तरह का पागलपन सिर्फ पियूष जी ही दिखा सकते थे। बहरहाल एक बहुत अच्छी फिल्म, सभी किरदारों ने अभिनय को सातवें आसमान तक पहुंचा दिया था और अंत में मकबूल की गोद में तबू का आंखरी साँसे गिनना और रो रो कर ये पूछना की "हमारा इश्क पाक था ना? बोलो न मियां हमारा इश्क पाक था ना?" पूरी कहानी को इन दो पंक्तियों में ही बयां कर देता है।
विशाल भारद्वाज का एक बार फिर बेहतरीन काम।
पंकज कपूर, इरफ़ान खान, तबू,
नसीर-साहब, ओम पूरी व
पियूष मिश्रा की जानदार अदाकारी।
एक बहुत अच्छा सिनेमा।

Tuesday, September 24, 2013

ब्लॉगर पर अर्ध-शतक

आज अपने ब्लॉग "राइजिंग सन" पर कुछ लिखने का मन कर रहा है। इस ब्लॉग की शुरुवात २०१२ की जनवरी में हुई थी, उससे एक महीने पहले तक मैं एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी कर रहा था और लिखने का शौक होते हुए भी उससे कोसों दूर था। पर फिर लिखने के प्रति बढ़ते जूनून ने नौकरी छोड़ने पर मजबूर कर दिया। मानता हूँ की अचानक लिए हुए फैसले अक्सर गलत साबित होते हैं, पर यहाँ ये भी बता देना चाहता हूँ की गलत और सही का मापदंड आपके सफल व विफल होने के प्रतिशत पर निर्भर करता है और हिम्मत करके फैसले लेने वाले चाहे जितनी बार भी विफल हो जाएँ पर जब सफलता उनके हाथ लगती है तो उस फल का स्वाद ही अलग होता है(बहरहाल अभी तक सफल नहीं हुआ हूँ और विफलताओं के कडवे फलों को चख-चख कर एक मीठी सफलता की तलाश में हूँ)। खैर ब्लॉग की शुरुवात करने से अब तक लग-भग दो साल के इस अंतराल में छोटी ही सही लेकिन लेखन को लेकर कुछ खुशियाँ ज़रूर हाथ लगीं उनमे से कुछ साझा कर चुका हूँ और कुछ की उम्मीद अभी भी बरक़रार है। पर इस बीच इस यात्रा में जहाँ मुझे सब कुछ बिना सहूलियत, बिना किसी अनुभव के शुरू करना था, वहां मेरा ये ब्लॉग (जिसका नाम उस दौरान मैंने "राइजिंग सन" सिर्फ इसलिए रखा था की वो मेरे लेखन से जुड़े जीवन की पहली सुबह थी और उस उम्मीदों से भरी सुबह की शुरुवात मैं उगते सूर्य के तेज़ के साथ करना चाहता था) मेरे लिए किसी हमसफ़र से कम नहीं रहा और हमारी इस अटूट दोस्ती के लिए आज का दिन भी किसी पर्व से कम नहीं है। बहुत हर्ष और उल्लास के साथ बताना चाहता हूँ की इस ब्लॉग पर आज ये मेरा पचासवां पोस्ट होगा जो मैं बेहद ख़ुशी से इस ही को समर्पित कर रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ की हमारा ये साथ यूँ ही बना रहेगा और इस पर मेरे लिखे पोस्ट्स की संख्या निरंतर बढती रहेगी।

मेरे हिसाब से जीवन में हर एक नया काम कविता या कहानी लिखने जैसा ही होता है की बस एक कोरा-कागज़ और कलम हाथ होती है और लिखते-लिखते नज्म, अफसाना या कवितायें तैयार होती रहती हैं ठीक वैसे जैसे जीवन में चलते-चलते कई मुकाम आते हैं, और इस ही तर्ज़ पर मंजिलें तैयार होती हैं।
वैसे आज से २० महीने पहले बनाया गया ये ब्लॉग भी मात्र एक खाली डायरी की तरह ही था जिस पर सबसे पहले मैंने अपना परिचय लिखा था।  

*एक घर*


कब तक तेरे सारे सपने

पैरों में हैं उलझे हुए,
कब तक तेरी आँखें प्यासी, 
इन सूखे सपनों की परत लिए।

कब से तेरा आकाश है सूना,
इन बरसातों के सैलाब पीये,
कब तक इन कच्चे रास्तों पर
तू ठोकरें और ख़ाक सहे।

कब तक तू यूँ बेघर हो,
घूमेगा सड़कों-सड़कों,
कब तक तेरे नंगे सर को
एक टूटी छत का इंतज़ार रहे। 

Monday, September 16, 2013

"शुन्यता"


जब हिसाब नहीं रख पता मैं कुछ भी,
और बाँझ हो जाती हैं
ज्यामिति, त्रिकोणमिति
और बीजगणित भी।
जब रक्तकणों में बहती
कविता मर जाती है
बिना लिखे ही, 
और शुन्यता में डूबी रहती 
सब अभिव्यक्ति, स्मृतियाँ भी।
दूर तलक लम्बी सड़क पर
रह न जाए कोई भी पंथी,
और शुष्क हो जाते हैं सावन,
मौन हो जाते हैं घन भी।
जब मर जाती है संवेदना,
प्रेम, करुणा, मोह-माया
विचलित नहीं होता हृदय तब,
समाप्त हो जाती सम्भावना ही।
स्वप्न रहित इन चक्षुओं में
अन्धकार जब व्याप्त रहता
तब विकाल्पों में भी केवल
शेष रहता समर्पण ही।
जब सभी रंग रक्त होकर
शवों से रिसते निरंतर,
और जब स्वं ही स्वं से संघर्षरत हो
तब केवल प्रश्न(??) ही रहता
जटिल जीवन का निष्कर्ष भी।। 







Friday, September 13, 2013

"दी स्टोरी ऑफ़ ए रियुंड आर्टिस्ट"


*
4, सफ़दर हाश्मी रोड, नजदीक मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन  
ये पता है दिल्ली के श्री राम सेण्टर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स का जो जाने कितने ही सालों से लाखों, करोड़ों सपनों की मजबूत नीव पर खड़ा है। कई मुस्कुराते चेहरों के प्रतिबिम्ब उभरते हैं इसमें तो कई टूटे ख्वाबों के शीशे आज भी दिख जाते हैं इसकी बड़ी बड़ी आँखों सी खिडकियों पर। यहाँ बड़े से ऑडिटोरियम में संवादों दृश्यों को सहेजे समेटे एक साथ कई किरदारों को कूदते हुए निभाते, नाचते, गाते ये मासूम चेहरे हर रोज़ खुद को एक अद्वितीय अभिनयकार की पहचान दिलाने की ज़द्द--जहद में लगे रहते हैं। और नाटक के ठीक बाद लोगों की बेशुमार तालियों से उपजी मधुर ध्वनियों में खोये हुए एक उज्जवल भविष्य की परिकल्पना में लग जाते हैं। यक़ीनन कुछ ख्वाब तो उड़ान भी भर लेते हैं, और अपनी पहचान एक दुरुस्त अभिनयकार के रूप में बना लेने में सफल रहते हैं मगर कुछ बस अपनी मंजिल से -आशना थक हार कर फड़-फड़ा के यहीं इसकी दहलीज़ पर ही दम तोड़ देते हैं। पर कुछ भी हो लोगों का यहाँ आना कभी नहीं थमता। और एक रोज़ आशीष भी अपनी कला से लूटी हुई तारीफों की गठरी जो की उसकी एक मात्र पूंजी थी लिए रानीखेत छोड़ कर यहीं पर खड़ा था। पढाई-लिखाई के दिनों से ही एक कलाकार बनने के सपने देखने वाले आशीष को थिएटर करते-करते 5 साल का अनुभव हो चुका था और उसके अभिनय के चर्चे गाँव-गाँव में मशहूर थे। उसे लिखने का भी शौक था, आज तक लगभग 5 नाटकों की पट-कथा, संवाद, 40 छंद 100 गीत लिख चुका था। उसकी आवाज़ भी बहुत सुरीली थी हारमोनियम पर उसकी अंगुलियाँ कुछ इस कदर थिरकती थी जैसे नाटकों के दौरान उसके कदम। एक सम्पूर्ण कलाकार था आशीष, ऐसा उसके दोस्त कहते थे और हमेशा उसको कला के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते। आशीष भी बहुत हद तक समझ चुका था की उसका जन्म सिर्फ एक कलाकार बनने के लिए ही हुआ है और इसके अलावा उससे कुछ और बन भी पायेगा। पर यहाँ उसका दायरा बहुत सिमित था, रोज़ वही गाँव के 15,20 घरों के 70,75 लोग और अगर नौटंकी किसी ख़ास दिन पर हो तो दूसरे गाँवों से 5,10 लोग और जुट जाते थे, तो कुल-मिला कर आशीष की असीम कला पर ज्यादा से ज्यादा 80 से 85 लोगों की ही नज़र जा पाती थी। पर जो भी उसका अभिनय एक बार देख लेता या गायकी सुन लेता तो उसका कायल हुए बिना नहीं रह पाता था। आशीष इतने संकुचित दायरे में नहीं रहना चाहता था बल्कि अपनी पहचान लाखों, करोड़ों में बनाना चाहता था। कई बार मुंबई जाने का ख्याल भी उसके ज़हन में आया, पर माया नगरी के माया-जाल से उसे डर लगता था, उसने सुन रखा था की उसके जैसे लाखों लोगों के सपने मुंबई में रोज़ चकनाचूर होते हैं। आशीष हारने से नहीं घबराता था, पर वो बिना तैयारी कोई भी काम करने के पक्ष में कतई नहीं था। उन्ही दिनों जब आशीष इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसके चाचा ने बताया की थिएटर आर्ट्स के मामले में दिल्ली बिल्कुल सही जगह है, वहां आशीष नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के लिए भी अप्लाई कर सकता है और दूसरे भी कई कला केन्द्रों से जुड़ सकता है। आशीष को ये सुझाव पसंद आया पर उसके बाबूजी माने। बाबूजी को लाख समझाने पर भी जब उन्होंने हामी नहीं भरी तो एक दिन अपने सपनो का हाथ थामे, माँ-बाबूजी को बिना बताये आशीष ने दिल्ली वाली गाड़ी पकड़ ली।

*
दिल्ली के बारे में आशीष की जानकारी सिर्फ इतनी ही थी की इसे देश की राजधानी कहा जाता था और यहाँ हर रोज़ छोटे छोटे शहरों से आशीष के जैसे हज़ारों लोग अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहुँचते थे। आशीष भी नए शहर पहुँचने को उत्सुक था। पूरे सफ़र में एक पल के लिए भी आशीष ने खुद को अकेला महसूस नहीं किया, उसके सपने जो थे उसके साथ। गाड़ी ने जैसे ही गाज़ियाबाद क्रॉस कर दिल्ली में प्रवेश किया तो ऊँची ऊँची बिल्डिंगों की लम्बी कतारों को देख कर आशीष की आँखें फटी की फटी रह गयी। सड़कों पर नाचती महंगी-महंगी कारों मोटरसाइकिलों से उसका सर चकराने लगा शहरी मॉडर्न छोकरे-छोकरियों की चाल-ढाल पहनावा देख खुद के सीधेपन पर विचार करने लगा। इतने लम्बे सफ़र में पहली बार आशीष की धड़कने तेज़ हुई थी, अब उस पर दिल्ली की चकाचौंध ज़िन्दगी का खौफ हावी था। "क्या मैं यहाँ पर अपना मुकाम हासिल कर पाऊंगा, क्या यहाँ के तौर-तरीके, अंदाज़ सीख पाऊंगा?" सोच सोच कर आशीष का दिल निकला जा रहा था। खैर गाड़ी कश्मीरी गेट बस-अड्डे पर पहुँच चुकी थी और आशीष अपने झोली-झपाटे के साथ बाहर खड़ा जेब में से एक पर्ची निकाले जिस पर उसके चाचा के इक करीबी दोस्त जो की गोल मार्किट में रहते थे उनका पता लिखा हुआ था ऑटो वाले को दिखा कर पूछ रहा था। आशीष के आने की इत्तला इन सज्जन को पहले ही कर दी गयी थी, सज्जन भले थे और गाँव में आशीष का अभिनय भी देख चुके थे तो कुछ दिनों तक जब तक आशीष को कुछ काम नहीं मिल जाता रात बिताने के लिए एक छत दो वक़्त की रोटी का आश्वासन दे चुके थे। और आशीष को किस चीज़ की दरकार थी। अगले ही दिन आशीष ने मंडी हाउस की तरफ रुक किया। शाम के 7 बजे थे और श्री राम सेण्टर का माहोल किसी मेले से कम नहीं था। आधे घंटे के अन्दर ही "मोहन राकेश" का लिखा ऐतिहासिक नाटक "अषाड़ का एक दिन" शुरू होने वाला था। नाटक महा कवि कालिदास के जीवन पर आधारित था। आशीष ने इस नाटक के बारे में खूब सुना था तो उसने देखने का फैसला किया। नाटक शुरू होने को था और ऑडिटोरियम खचा-खच भर गया था। आशीष के होश उड़े हुए थे, उसने नाटक तो खूब किये थे पर इस तरह इतने साज़--सामान और प्रॉप्स के बारे में तो उसने कभी सोचा भी नहीं था। खैर पूरी दिल्ली में यही जगह थी जो आशीष को पसंद आई। नाटक देख कर उसके मन में इस ही ऑडिटोरियम में अभिनय करने की इच्छा पैदा हुई। अपने ख्यालों में डूबा हुआ जैसे ही वो ऑडिटोरियम से बाहर निकला तो अचानक एक लड़की से टकरा गया। आशीष को ये समझते बिल्कुल देर लगी की ये वही लड़की थी जिसे थोड़ी देर पहले अभिनय करता देख वो जोर-जोर से ताली बजा रहा था। उसने धीरे से लड़की से माफ़ी मागी और उसके अभिनय की तारीफ करते हुए कहने लगा, "की आपकी परफॉरमेंस बहुत अच्छी थी, आप एक अच्छी एक्ट्रेस हैं।" लड़की ने मुस्कुराते हुए धन्यवाद कहा और वहां से चल दी। वो चली तो गयी थी पर उसकी मुस्कान पा कर आशीष के हाव-भाव कुछ बदल गए थे। वो दिल्ली में आशीष की दूसरी पसंद थी और अब आशीष को श्री-राम सेण्टर आने की एक और वजह मिल चुकी थी।

*
दिल्ली आये हुए 10 दिन हो चुके थे और आशीष को कुछ नहीं सूझ रहा था। वो यहाँ तो गया था पर उस सीधे-साधे दिखने वाले गाँव के गंवार को यहाँ  कौन पूछने वाला था। नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के फॉर्म्स भी अप्रैल में निकलने थे और ये दिसम्बर चल रहा था। फिलहाल क्या किया जाये?
आशीष ग्रेजुएट था और किसी पर बोझ नहीं बनना चाहता था इसलिए पूरे दिन अनजान शहर में गुजारे के लिए नौकरी ढूंढ़ता रहता और शाम होते ही श्री राम सेण्टर पहुँच नाटक देख कर चलता बनता। आशीष जो की एक अति प्रतिभाशाली कलाकार था और जिसका अभिनय देखने याद-शहर में लोग दूसरे गाँवों से भी आते थे, यहाँ भीड़ में बैठकर नए-नवेले कलाकारों की धमा चौकड़ी पर ताली बजाना बिल्कुल पसंद नहीं करता था। उसे देखने का शौक था और उसकी नज़र काफी पैनी थी पर वह कला का मज़ाक उड़ते बिल्कुल नहीं देख सकता था। हमेशा स्टेज पर कलाकारों को ऑब्जर्व करता रहता और घर पहुँच कर उनके संवादों को अपने अंदाज़ में दोहराता। ऐसा नहीं था की आशीष को सब कलाकार बुरे लगते थे, कुछ एक ऐसे भी थे जिनके अभिनय को आशीष खूब सराहता, उसमे अव्वल दर्जे पर थी सुप्रिया। सुप्रिया जिससे आशीष पहले ही दिन टकरा गया था, आज तक उसके रंग में रमा हुआ था। जिस दिन भी उसे पता चलता की आज सुप्रिया अभिनय करने वाली है तो वक़्त से पहले पहुँच जाता और स्टेज के सबसे नजदीक पहली कतार की बीच वाली कुर्सी पर बैठ जाता। सीन के बाद जोर जोर से ताली बजाता और नाटक पूरा होने पर उसे बिना बधाई दिए कभी जाता। और सुप्रिया भी बड़े अदब से हर बार सर झुका कर आशीष का शुक्रिया अदा करती। "एक कलाकार का असली पारितोषित होता है लोगों का स्नेह और तालियाँ", और सुप्रिया को भी आशीष की तालियों की अदात पड़ चुकी थी। नाटक से ठीक पहले उसकी नज़र भीड़ में बैठे आशीष को ही खोजती और उसकी एक झलक मिलते ही निश्चिन्त हो कर अभिनय करती। आशीष की प्रेज़ेंस सुप्रिया का लकी-चार्म बन गयी थी। इतने दिनों में एक बार भी इन दोनों में बातचीत नहीं हुई थी, पर एक दूसरे के इतने आदि हो गए थे जैसे अरज़े से जान-पहचान हो। सुप्रिया की सादगी ने आशीष को दीवाना बना दिया था और आशीष मन ही मन सुप्रिया को चाहने लगा था। एक रोज़ चोरी से अपने पुराने मोबाइल फोन के धुंधले कैमरे को अभिनय करती सुप्रिया की तरफ बढा उसकी एक तस्वीर खींच लाया था बस फिर हर रात अपने बिस्तर पर धसा उसका धुंधला चेहरा ताकता रहता और विचारों को कोरी कल्पनाओं की स्याही में डूबा सुप्रिया के साथ अपने प्रेम प्रसंग लिखता रहता। इश्क का बुखार इस कदर सर पे चढ़ा हुआ था, की आँखों से नींद गायब थी, ख्वाबों पर भी सुप्रिया का ही पहरा था। और होना लाज़मी भी था, जनाब को पहली बार मुहब्बत हुई थी वो भी अनजान शहर में। दिल्ली में कुछ और हो हो इश्क की हवा खूब चलती है। खैर अफ़सोस इस बात का था की ये इश्क सिर्फ कल्पनाओं में ही कैद हो कर रह गया था, आज तक आशीष इतनी हिम्मत भी नहीं जुटा पाया था की सुप्रिया से दो चार बात ही कर पाए, इज़हार--मुहब्बत तो कोसों दूर थी।

*
एक रोज़ आशीष जैसे ही नाटक देख कर ऑडिटोरियम से निकला तो उसने सुप्रिया को चाय की दूकान के पास अकेली खड़ी पाया। दिसम्बर की सर्द रात, 9 बजे का वक़्त। सुप्रिया खुद में सिकुड़ी हुई कांपते कांपते चाय के गिलास को हथेलियों पे घुमा शरीर में कुछ नरमी पैदा करने की कोशिश में लगी थी। आशीष को आता देख मुस्कुराने लगी, उसकी मुस्कराहट सांकेतिक थी। आशीष अन्दर ही अन्दर ख़ुशी से झूम रहा था, आज इतने वक़्त में पहली बार वह सुप्रिया से बात करेगा, मुलाकातें बढेंगी तो धीरे धीरे अपने दिल की बात भी उसे बता देगा, वो आशीष को देखकर मुस्कुराती है जरुर उसके दिल में भी आशीष के लिए कुछ कुछ तो होगा। आशीष ख्वाबी पुलाव पकाने लगा। अन्दर तो भावनाओं का सैलाब उमड़ रहा था, पर सुप्रिया के आगे चुप चाप नज़ारे झुकाए खडा था। "तुम इतना शरमा क्यूँ रहे हो??" "पहली बार किसी लड़की से ऐसे बात कर रहा हूँ , आदत नहीं है इसलिए" आशीष ने सुप्रिया के पूछे गए प्रश्न का उत्तर बड़ी इमानदारी से दिया। सुप्रिया ने भी उसके भोले से उत्तर में सच्चाई को भांप लिया और ज़ोर-ज़ोर  से हँसने लगी। हँसती हुई सुप्रिया की छवि आशीष के दिल पर गहरी छप गयी। सुप्रिया को भी आशीष के भोलेपन ने आकर्षित किया। दोस्ती गहरी हुई और मुलाकातें बढ़ने लगी। उसने सुप्रिया को सब बता दिया, कला के प्रति अपना प्रेम, अभिनय, अपने लिखे गीत, संवाद, सब खुली किताब की तरह बयान कर दिया। और उसकी प्रतिभा ने सुप्रिया को उसका कायल बना दिया। वह दिन भर उसके सुरीले गीत सुनती रहती और रात रात भर उसकी कवितायें पढ़ती उसकी भावनाओं, कल्पनाओं में डूबी रहती। सुप्रिया के पिता दिल्ली के पूसा एग्रीकल्चरल इंस्टिट्यूट में प्लांट-पैथोलॉजी के प्रिंसिपल साइंटिस्ट थे, उनको सिफारिश कर सुप्रिया ने आशीष को वहां कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर 12000 रूपये महीने पर टाइपिस्ट लगवा दिया था। वो आशीष की प्रतिभा को ज़ाया होते नहीं देखना चाहती थी इसलिए उसने श्री-राम सेण्टर फैकल्टी को कह कर आशीष को अपने नाटकों में अभिनय करने का भी मौका दिलवा दिया। यही मौका था जिसकी आशीष को तलाश थी, आशीष ने कुछ ही नाटकों से अपनी छवि एक बहुत ही कुशल अभिनयकार के रूप में स्थापित कर ली थी। अब दूसरे कला केन्द्रों से भी आशीष को अभिनय करने के प्रस्ताव आने लगे। आशीष ने कभी सपनों में भी नहीं सोचा था की वो थिएटर के इस गढ़ में अपनी इतनी पहचान बना लेगा। पर वह जनता था की उसकी इस सफलता के पीछे सबसे बड़ी भूमिका सुप्रिया ने निभाई थी, हालाँकि उसको शुक्रिया अदा करने के लिए आशीष पर्याप्त शब्द कभी जुटा पाया।
सुप्रिया उसका हर नाटक देखने जाती और तालियाँ पीट पीट कर उसका मनोबल बढाती रहती। अब आशीष का इश्क सिर्फ एक तरफ़ा नहीं रह गया था, सुप्रिया पर भी उसका असर सर चढ़ के बोल रहा था। नाटक के बहाने देर रात तक दोनों साथ में घुमते और घर पहुँच कर बातों का सिलसिला मोबाइल पर ज़ारी रहता। अब जब कभी भी आशीष की कलम उठती तो कोरे कागज़ पर सुप्रिया की खूबसूरती का ही बयान होता और सुप्रिया के हाथों में भी आशीष के नाम की हिना अक्सर दिख जाती। इश्क जवान हो चला था। दोनों को अपने हिस्से के महताब हासिल थे। पर इश्क को नज़र लगते देर नहीं लगती।

*
एक वक़्त ऐसा था जब सुप्रिया का पूरे कला समुदाय में एकाधिकार स्थापित था, कोई भी विशेष नाटक बिना सुप्रिया के होना संभव ही नहीं था। पर अब आशीष की लोकप्रियता सुप्रिया के नाम को फीका करती जा रही थी और ये बात सुप्रिया को कहीं कहीं थोड़ी सी खटकने लगी थी, ये सच था की आशीष की इस सफलता के पीछे सारा हाथ सुप्रिया का ही था, पर वो सबसे पहले एक कलाकार थी। एक कलाकार अपनी लोकप्रियता और उसके प्रति लोगों के स्नेह को बटता हुआ कभी नहीं देख सकता। आशीष भी कई दिनों से उसके प्रति सुप्रिया के बदले व्यवहार को महसूस कर रहा था और उसको ज्यादा से ज्यादा खुश रखने की नाकामियाब कोशिश कर रहा था। पर वक़्त के साथ साथ सुप्रिया का रुख और कड़वा होता रहा। वो हर छोटी बात पर हंगामा खड़ा कर देती, बात बात पर उसे ताने देती की अब तो वो बड़ा कलाकार हो गया है हम जैसों को क्यूँ पूछेगा। आशीष सुप्रिया को बेइन्तहां मुहब्बत करता था और उसके बदलते अंदाज़ को हज़म नहीं कर पा रहा था। जब कभी भी वो सुप्रिया से कुछ भी जानने की कोशिश करता सुप्रिया उसे टाल देती।
और एक रोज़ कुछ यूँ हुआ की जिससे सुप्रिया और आशीष के नाजुक रिश्ते में कई गिरहें एक साथ पड़ गयी। अप्रैल का महिना था और आशीष नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का फॉर्म भर चुका था, तभी भारतीय कला केंद्र ने इंडियन हैबिटैट सेण्टर लोधी रोड में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित एक नाटक का आयोजन किया। आशीष को इस नाटक का मुख्य किरदार सौंपा गया। और जैसे ही आशीष अभिनय करने मंच पर पहुंचा तो उसने देखा की आज सुप्रिया वहां उपस्थित नहीं थी। चार महीनों में पहली बार ऐसा हुआ था की आशीष अभिनय कर रहा हो और उसका हौसला बढ़ाने के लिए सुप्रिया वहां उपस्थित हो। आशीष का मन उदास हो गया। वह सुप्रिया को फोन करना चाहता था पर उसने ऐसा नहीं किया। खैर इसका उसके अभिनय पर कोई असर नहीं पहुंचा बल्कि ये नाटक आजतक के किये उसके सभी नाटकों में सबसे अच्छा साबित हुआ, और उसने अपने अभिनय के बूते पर वहां बैठे सभी लोगों से खूब वाह-वाही लूटी। शायद इसलिए की आज आशीष के ऊपर सुप्रिया की अपेक्षाओं का कोई भार नहीं था, और सच भी है अपेक्षाओं के पिंजरों से आज़ाद हुए परिंदे ही, असल उड़ान भर पाते हैं, असल आसमान चख पाते हैं। खैर नाटक ख़त्म होते ही आशीष खुद को रोक नहीं पाया और सुप्रिया को फोन कर बैठा, सुप्रिया ने फोन तो नहीं उठाया, पर उसे एक मैसिज भेज दिया की वो आज के बाद सुप्रिया को फोन करे, उसके पिता को आशीष का फोन करना या सुप्रिया से मिलना बिल्कुल पसंद नहीं। आशीष को कुछ भी समझ नहीं रहा था, अचानक ऐसा क्या हो गया? पहले जो सुप्रिया एक पल के लिए भी आशीष को अकेला छोड़ना पसंद नहीं करती थी, दिन में कई कई बार फोन कर उसके हाल चाल का ब्यौरा रखती, रोज़ सुबह शाम उसे एक मैसिज जरुर भेजती वो अचानक ही आज उससे कटने लगी थी?? ये बात आशीष बिल्कुल ना पचा पाया, और उसका दिमाग फटने लगा। वो जानना चाहता था की उससे ऐसा क्या गुनाह हो गया था जो उसके प्रति सुप्रिया का मिजाज़ बिल्कुल ही बदल गया। आशीष उस पूरी रात सुप्रिया को फोन मिलाता रहा पर सुप्रिया के कानो में एक जूँ तक रेंगी।

*
करीब करीब महिना बीत गया था, सुप्रिया ने आशीष का फोन उठाया इस दौरान एक दिन भी उनकी मुलाक़ात हुई। सुप्रिया को श्री राम सेण्टर आये हुए भी अरसा हो चला था। हालाँकि आशीष मायूस हालत में दो तीन बार सुप्रिया के घर के चक्कर लगा चुका था, पर अन्दर जा कर वो कोई बखेड़ा खड़ा करना नहीं चाहता था। नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का टेस्ट भी सर पे था
पर उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। पिछले एक हफ्ते से वो दफ्तर गया था, श्री राम सेण्टर। एक बेचैनी सवार थी उसके सर पर। हर वक़्त बस सुप्रिया के बारे में ही सोचता रहता। इस बीच उसने किसी भी नाटक में अभिनय करने से भी मना कर दिया था। उसका चेहरा मुरझा  गयास्वास्थ बिगड़ने लगा और वह डिप्रेशन में जाने लगा। मुहब्बत में ये स्वाद आज तक उसने कभी नहीं चखा था। कई रोज़ बाद बहुत बुरी हालत में वो श्री राम सेण्टर पहुंचा, तो जानने वालों ने घेर लिया और उसकी इस खस्ता हालत की वज़ह पूछने लगे, वो खीझा गया और सबके साथ गाली गलौच और बद्तमीजी करने लगा। एक दो लोगों से उसकी झड़प हो गयी और बात हाथापाई तक पहुँच गयी, और उन लोगों ने उसे बुरी तरह पीट दिया। आशीष खून में लथपथ बेहोश हालत में वहीँ बैठ गया और तभी अपनी आधी खुली आँखों से उसने देखा की सुप्रिया उसके सामने ही खड़ी थी, पर आज वो अकेली नहीं थी, किसी लड़के के साथ थी। सुप्रिया को किसी गैर की बाहों में हँसी-ठहाके लगाते वह देख पाया और उसके पास पहुँच कर उसकी बेवफाई के कसीदे सुनाने लगा लेकिन सुप्रिया पर इसका कोई असर नहीं हुआ और वो उसे वहीँ उस ही हालत में छोड़ कर चली गयी। वो चली तो गयी थी पर उसकी बेवफाई पा कर आशीष के हाव-भाव कुछ बदल गए थे उसने शराब पीना शुरू किया, उसके दिन और रात शराब में डूबे रहते। दिन में कई कई डिब्बे सिगरेट फूंक देता। अभिनय करना तो दूर उस दिन के बाद से आजतक श्री राम सेण्टर तक नहीं गया था। दफ्तर जाना पहले ही छोड़ चुका तो धीरे धीरे पैसे-टक्के भी ख़त्म होने लगे।उसकी हालत बिगड़ने लगी।
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मई, ये वो दिन था जिसका आशीष को कब से इंतजार था, आज नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा का टेस्ट होने वाला था। सभी युवा अभिनयकारों के लिए एक बहुत बड़ा दिन। मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन बुरी तरह भरा हुआ था और सब लोग सुबह-सुबह ही तैयार हो कर एनएसडी  पहुँचने लगे थे। आशीष को भी वहां होना चाहिए था, पर वो बाबा खड़क सिंह मार्ग पर राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल में एडमिट था। एक रात पहले शराब के नशे में रोड क्रॉस करते हुए गाड़ी से टकरा गया था।
उसकी हालत पर तरस खा कर आस पास के लोगों ने उसे हॉस्पिटल में एडमिट करवा दिया। अगले दिन होश आया तो डॉक्टर्स ने बताया की गाड़ी के नीचे आने से एक टांग पूरी तरह ख़राब हो चुकी है। आशीष की आँखों से आंसुओं का सैलाब उमड़ आया, पर वो जानता था की ये सब उसका ही किया धरा है, खुदको सँभालते हुए, हॉस्पिटल द्वारा मिली बैसाखी की टैक लगाये श्री-राम सेण्टर पहुँच गया। कुछ देर वहां खड़े नए कलाकारों को देखता रहा और फिर फूट-फूट कर रोने लगा। खैर उसी रात कश्मीरी गेट बस अड्डे से टिकट कटवा कर रानीखेत वापिस लौट गया, उसकी गठरी तो आज भी उसके पास ही थी पर शायद उसके सपने उसका हाथ छोड़ चुके थे। और इस बार उसे अकेले ही सफ़र करना था