Wednesday, March 26, 2014

"प्रेम के प्रति"





प्रेम के प्रति मेरी बस यही राय है कि 
रात (जिसके पास चाँद है) की सुबह हो जानी है।
लोग जो कब्रों में दफना दिए गए थे
मरणोपरांत उनकी डैक पर गुलाब रखे जाते हैं।
चूँकि पूरी देह के जल चुकने के बाद भी अस्थियाँ बची रह जाती हैं, 
उन पर आत्मा का प्रभाव शेष रहता है, 
अत: उन्हें जीवित ही नदी में स्वाहा दिया जाता है!!
कल्पनाओं के तीव्र घोड़ों पर सवार भावनायें भयातुर रहती हैं, 
उनके गिर जाने का डर बना रहता है!
व बिजली कड़कने मात्र से बरसात डरावनी लगने लगती है,
अन्यथा अद्धपकी फसलों पर गिरी पहली बूँद का स्वाद मीठा ही होता है!!

प्रेम खुद में पनपने वाला एक ऐसा संक्रमण है
जिसका "बिछड़ने" वाली प्रक्रिया से कोई लेना देना नहीं होता!!

Tuesday, March 18, 2014

"प्रेम कविता लिखते हुए"




मुझे एक प्रेम कविता लिखने को कहा गया।
मैंने अपनी जेबों में हाथ डाला,
स्मृतियाँ टटोलीं, अनुभवों के जितने थे
गढ़े मुर्दे उखाड़े व सन्दर्भों के सभी चिठ्ठे फाड़ डाले,
लेकिन अतीत से कुछ भी विशेष हासिल न कर सका!

न ! प्रेम से मुझे कोई पैदाशयी नफरत नहीं रही,
अरे मेरा तो जन्म ही प्रेम के आधार पर हुआ था।
प्रेम के चरम पर ही तो मैंने विभत्सता, द्वेष व ईर्ष्या
जैसे अत्यधिक भौतिक शब्द(दुनियादारी के लिए सटीक) सीखे,
नफरत भी!

सच तो ये है कि
मैं जब-जब रोया या तो प्रेम के अभाव में
या प्रेम भाव में रोया।
व प्रेम ने ही तो मुझमे
संवेदना जैसा बहुत ही गैर ज़रूरी बीज भी बोया।

मैं कभी सही गलत का अंतर नहीं समझ पाया
बल्कि सीखा पक्षपात करना,
प्रेम को आधार बना कर मैंने कमज़ोर मित्र बनाये,
(अपनी असफल छवि से
निजात पाने हेतु तैयार कई सफल क्लोन!)
और उनमे बेहतर खुद को ढूँढा।

मैंने ईश्वर को प्रेम से सम्बोधित कर
पूरी इंसानियत को नकार दिया,
पुण्य को हमेशा पाप से ऊपर आँका,
व प्रेम के बदले प्रेम चाहा।
(इस तरह मैंने प्रेम की मौलिकता का हनन किया।)
मुझे तैरना नहीं आता था
परन्तु मैंने प्रेम के अनकंडीशनल होने का दावा किया
और इस तरह एक उत्तम तैराक को डुबोना चाहा।

मैंने प्रेम को मनगढ़ंत तरीकों से अभिव्यक्त किया।
प्रेम पर कई परिभाषाएं गढ़ दीं,
व उसे अपेक्षाओं के तराज़ू पर रखा।
मैंने प्रेम से लेन-देन व सौदाबजी करना सीखा,
व किसी पाखंडी धर्म प्रचारक की तरह
प्रेम को प्रेम कह कर ताउम्र वाह-वाही बटोरी।
(इस तरह भावनाओं के बाज़ार का सबसे बड़ा व्यापारी बना।)

परन्तु सच तो ये है कि मैं जीवन भर प्रेम के अर्थ से छला गया
व प्रेम की चिकनी सतह पर बार-बार बार फिसला।
मैंने अपना प्रेम दूसरों पर अहसानों की तरह थोपा
व बदले में उनसे सूद बटोरना चाहा।
पहले मैंने दुखी होना सीखा व फिर दुखी रहना।

और इस तरह प्रेम बिंदु से शुरू कर
दुख, अवसाद, कुंठा, निराशा व घृणा तक का सफ़र तय किया
व अंतत: प्रेम में लिप्त ईश्वर को पूजते-पूजते नकार दिया।