Wednesday, June 17, 2015

"एक रात के तवे पर चाँद पकाते हुए"

मुझे मत पढ़ाओ कविता,
संवेदनाओं से क्षीण बाँझ ज़मीन पर शब्दों की बुआई छोड़ दो।
छोड़ दो ज़िद
कि पिंजरे में छटपटाते पंछी को निहारते रहो देर तक, 
कि आज़ादी दिवस पर कम-अज़-कम
"एक उम्मीद का पौंधा" रोप सको।
देर तक आकाश ताकना छोड़ो,
कि समझने लगो बादलों की बनावट को खुला खेत
कि कबूतरों की नाक में ज्यौड़ा डाल के जुता सको।
रतजगे न करो,
कि उदास गुलाब के मुरझाने पर
बीत गए को याद करो।
लोगों से इतना मत भागो के अकेले हो जाओ
कि सिगरेटों को चूस कर धुएँ के गरारे करो
और खांस-खांस के भीतर का खालीपन भर सको।
ठहरो!
उस शहर में ना बसो,
जहाँ न कोई ठोर हो,
लैंप-पोस्टों से वेदना बरसे व समय पे "छाता" भारी हो।
और सुनो मुझे मत पढ़ाओ कविता,
कुछ हाथ का काम करो-
"हो सके तो ठण्ड से ठिठुरी दुर्गा की पीठ मलो,
शम्भू महतो के हिस्से का रिक्शा खींचो,
या फिर विलिंगटन वुड्स की दवात में ओक से स्याही भरो।"
और न हो सके कुछ भी अगर
तो अपनी उड़ान पर नज़र रखो,
जब परों को चस्पा कर छतों से कूदो
इतना ख़्याल करो कि यह
किसी विफल किसान की आत्महत्या का काव्यात्मक प्रयास न हो !