Friday, January 24, 2014

"अज्ञात महाद्वीप"



आजतक विश्व में हो चुकी सभी महान खोजों
का आधार अनुभवहीनता ही रहा है।
कितनी ही परिकल्पनाएं, नमूने,
सिद्धांत, शोधें, मॉडल व नक़्शे धरे के धरे रह गए,
और कितनी ही पूर्वनिर्धारित रूप रेखाएं ख़ारिज कर दी गयीं।

अम्मा हव्वा व बाबा आदाम ने भी
नहीं पढ़ी होंगी कभी अनुभवों कि किताबें।
व पूर्वलिखित सभी फिलोसॉफीयाँ भी जब लिखी जा रही होंगी
संभवतः अटकलों से भरी तरुण जिज्ञासाएँ ही रही होंगी।

युद्ध भूमि पर लड़ रहे
किसी भी सिपाही को नहीं होता है मरने का अनुभव,
ना ही दुनिया कि कोई भी माँ
अपने दूसरे बच्चे से अधिक स्नेह करती दिखती हैं कहीं.......  

कवि द्वारा लिखी गयी हर कविता भी,
कविता लिखने का पहला प्रयास ही होता है,
और हर कालजयी कृति पर भी बनी रहती हैं कितनी ही आशंकाएँ।

परन्तु फिर भी तुम नकार देते हो मुझे
कह कर कि "मैं अनुभवहीन हूँ।"

तो सुनो हाँ मैं अनुभवहीन हूँ
परन्तु मेरे अंतर में उमड़ रहा है भावनाओं का सैलाब,
मेरा हृदय ज्वलंत है हज़ारों उम्मीदों से,
व कितने ही स्वप्न दृश्य बन चमक रहे हैं आँखों पर.  
मेरे मस्तिष्क में चकराते रहते हैं जुनूनी भंवर,
और मेरा पूरा शरीर थरथराता रहता है व्यग्रतावश।

हाँ मैं अनुभवहीन हूँ
और ताउम्र भटकता रहूँगा अनुभवहीन ही
परन्तु मुझे पूरा यकीन है की
अंतत: खोज ही लूंगा अपने स्वप्नों पर का एक पूरा महाद्वीप।

क्योंकि अंतत: "कोलम्बस" महान ने भी
खोज ही निकला था अमरीका चाहे भारत न सही..................

Monday, January 20, 2014

"लंगड़ा वक़्त"



मेरी लिखी कविताओं में वक़्त लंगड़ा सिद्ध होगा,
घड़ियाँ दम तोड़ चुकी होगीं व सुईयां घायल,
मेरा एक मात्र उद्देश्य १२ अंकों को "मुक्त" करवाना है।
मेरी फिल्मों के क्रेडिट्स में
नायक का नाम सबसे अंत में प्रकाशित होगा
और वह अंत तक एक विवश व्यक्तित्व होगा,
अंतत: सभी फ़िल्में बिना "क्रमश:" के ही समाप्त हो जाएँगी।

मेरी स्मरण-शक्ति सशक्त होगी
परन्तु मेरी सूचनाएँ खोखली,
व सूटकेस निपट खाली।
दर्शन कि किताबें रट रट कर
मैं राजनीति पर समीक्षाएँ लिखूंगा,
व चै गुवेरा कि टी-शर्ट पहन कर
क्रिकेट मैच देखने जाऊँगा।

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखने
में मेरा योगदान उल्लेखनीय होगा,
व मैं दुनिया का वह एक मात्र अमीर कहलाऊंगा
जिसकी बनियान ठीक बीच से फटी होगी
व जहाँ से गर्द भरी नाभि व सिकुड़ा पेट उभर आएगा।

मेरा समाजवाद नारी सशक्तिकरण
की दिशा में कारगर साबित होगा,
उसे ईमानदारी से बलात्कारी खुले आम चलाएंगे।
प्रजातंत्र अराजकता से भरा होगा
व तानाशाही अपने चरम पर होगी
और हर पांच साल में सबसे योग्य तानाशाह के चयन
हेतु मतदान का प्रावधान होगा।

मेरे दोनों अंगूठे जूतों से बगावत कर
बाहर निकल आयेंगे
और मैं जहाँ भी लिखूंगा "शी/शा"
वो शब्द चटक जायेंगे।
मेरा बुद्ध ज्ञानी होगा
परन्तु रावण उससे बड़ा पंडित,
मैं किस्मत के भरोसे
अपने कर्मों के खिलाफ धरने पर बैठ जाऊँगा।

मैं जानता हूँ मेरा भविष्य अंधकारमय होगा व
दुनिया के किसी भी इतिहास में
मेरा नाम दर्ज़ नहीं किया जायेगा,  
परन्तु क्रांति से मेरा अभिप्राय सिर्फ इतना भर है
कि अतीत से अब तक मेरी उम्मीदें शेष हैं,  

और इसीलिए मेरी एक तरफ़ा प्रेम पर भी पूर्ण आस्था है,
क्योंकि वह स्थिति अलगाव के खतरे से "मुक्त" होती है।  

Tuesday, January 14, 2014

"आत्म-दाह"





 "आत्म-दाह" काश के मेरे एक हाथ में पिस्तौल होती और दूसरे में ६ गोलियां, मैं सबसे पहले क़त्ल कर देता अपने आत्म विश्वास को, उम्मीदों की कनपट्टी पर नली रख ट्रिगर दबा देता, तीसरी से आस्था को मार देता, चौथी से अपनी सभी अपेक्षाओं को व पांचवी से ख़त्म कर देता भविष्य की सम्भावनाओं को। एक-एक करके अपने पांच हम सायों की हत्या कर चुकने के बाद अब हवा में छोड़ देता आखरी गोली.................. और इस तरह अपने पहले ही प्रयास में सफलतापूर्वक कर देता "आत्म-दाह" क्योंकि दुनिया की कोई भी लघु कथा इतनी लघु नहीं हो सकती जितनी कि ज़िन्दगी, पैदा हुए, बढ़ने भर के लिए, बढ़ गए और मर गए.... !!

Friday, January 10, 2014

"बेरोज़गारी अनलिमिटेड"




हो गयी है "झंड" बहुत, अब ज़िन्दगी बदलनी चाहिए,
न लगे नौकरी सही कोई "लॉटरी" निकलनी चाहिए।

हम तो "टैलेंट" के वहम में रोड पर ही आ गए ,
शर्त लेकिन थी की ये "किस्मत" चमकनी चाहिए।

हर गली में, हर नगर में "चुटकुला" सा बन गए,
चाहते तो ये थे हम पर "फ़िल्म" बनानी चाहिए। 

सिर्फ "हंगामा" खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
कोशिश है की अपनी भी "सुनवाई" होनी चाहिए।

मेरे बस की कुछ नहीं, "खुदा" तेरे बस में ही सही,
जल्द ही लेकिन ये "खज्जलमेंट" मिटनी चाहिए।

विथ मॉडेस्टी
मुकेश चन्द्र पाण्डेय

Wednesday, January 8, 2014

"हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ"

हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ,
आज तक दुनिया भर में हो चुकी
सभी क्रांति की कोशिशों का
एक निर्विवाद पक्षधर हूँ।

मैं आज भी तेज़ रफ़्तार वाहनों के समान्तर
मीलों चलता हूँ और कई बार तो रफ़्तार भी दुगुनी कर देता हूँ,
भागने लगता हूँ, लम्बी छलांगें भरता हूँ
सोच कर कि
"हरा सकता हूँ इन्हें पैदल ही।"

मैं लगभग ३३७ साल पहले पहाड़ों के
किसी छोटे से गावं में सूख चुके नौले
का शोक अब तक मनाता आ रहा हूँ।
और आज भी कभी नुकीले पत्थर से
उसकी सीर खरोंचने लगता हूँ
सोच कर कि
"अवसादों (जीवन में अवसादों का होना आवश्यक है) की दीर्घायु के लिए
रिसाव का होना आवश्यक है।"

मैं पथ पर जब-जब देखता हूँ कोई भी पागल,
उसका मनोविश्लेषण करने लगता हूँ,
वो सचेत हो जाता है, मुझ पर पथराव करता है,
और अब मैं विज्ञ हूँ, ज़ोर से हँसता हूँ
सोच कर कि
"एकाग्रता के भंग होते ही अंधकारमय हो जाता है बौद्धित्व।"

मैं घूरता हूँ बदसूरत पत्थरों के ढेर में दशकों पहले
लुप्त हो चुकी एक प्राचीन नदी,
और उसके अस्तित्व को पुनः जागृत कर देता हूँ
सोच कर कि
"दो पत्थरों को घंटों घिस कर पैदा कर सकता हूँ उनसे नमी।"

मैं आज भी रोता हूँ फूट-फूट कर
अपनी सभी "सफलताओं" पर।
क्षण भर के उबाल से पैदा हुई उम्मीद
को उसी क्षण में पूरा जी लेता हूँ,
और फिर कर देता हूँ उसे क़त्ल खुद-ब-खुद
सभी तथ्यों, सुरागों को भी उसी वक़्त मिटा देता हूँ
और अब मैं अकेला चश्मदीद शेष हूँ,
एक क्षण पूर्व "जी" गयी अपनी सबसे सफल क्रांति का।

हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ मैंने देखे हैं कई-कई पल, घंटे, दिन, साल, दशक,
मौसम, स्व्भाव और मनुष्य बदलते हुए....