Sunday, December 28, 2014

वाया "फेसबुक"

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1. मुझमें पहाड़ों की याद बसी है.. मैं जहाँ कहीं भी हूँ मेरा एक हिस्सा पहाड़ों पर छूटा हुआ है... मुझे याद है हल्द्वानी से गुज़रते हुए का सफर जहाँ से पहाड़ों की शुरुवात होती है..
पहाड़ों की एक ख़ास बात है, इनमे "पुलिंग" पावर होती है... 
...तुम्हें सिर्फ इनके दायरे तक पहुंचना होता है.. उसके बाद ये खुद तुम्हें खीचते चले जाते हैं...!
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2. कोहरा तुम्हारे परे भी है तुम्हारे आगे भी.. कोहरा मिस्टीरियस है, 
किसी साईको थ्रिलर उपन्यास के क्लाइमैक्स की तरह। वह दिन जो कोहरे के आवरण में होता है दरअसल तुम्हारी ज़िन्दगी सरीखा होता है। एक ऐसी कहानी जिसमे कई वक्र हैं। जिसका विगत भी धुँधला है और आगत भी। कोहरा तुम्हें वर्तमान में रख छोड़ता है। तुम चुपचाप थिएटर में बैठे एक ऐसी कहानी का हिस्सा हो जो हालाँकि घट तो तुम्हारे साथ ही रही है पर तुम्हें सिर्फ इसे घटते हुए देखना है। 
.........कोहरा एक स्मार्ट प्लॉटर है.. तुम भले ही उसके दूसरी तरफ न उतर सको लेकिन उसकी दो ऑंखें हैं वह सब देख रहा है...!
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3. इस दुनिया में फूल का खिलना एक विचित्र घटना है,
जैसे कि धरती ध्यानमग्न है 
और फूल उसकी ध्यानऊर्जा से उभरा प्रकाश। 
इस दुनिया में हर वह चीज़ जो घट रही है एक चमत्कार है। 
हर वह चमत्कार जो निरंतर है एक नीरसता। 
फूल का मुरझाना यथार्थ है...!
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4. मल्लिका (मोहन राकेश की नहीं) पहले बड़े सख़्त दिनों में हम हर क्षण एकांत की तलाश में रहे और दिल पर पत्थर रख कर चुना अलग होना परन्तु फिर उन दिनों में जब तुम नहीं थी वहां एकांत तो था पर शान्ति नहीं। उन "हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलीट्यूड" वाली लम्बी काली रातों में अषाड़ के एक अदद दिन की दरकार सूखे बीहड़ रेगिस्तान सी हो गयी थी... वहां जीवन का हर भौतिक सुख था, वन थे आसपास...घने, वृक्ष, बाग़बगीचे, वहां हवाएँ थी, मयूर, काक, कोयल। 
वहां छावं नहीं थी, वृक्ष फल रहित थे, फूल बेरंग थे व उनमे सुगंध नहीं थी, ज़मीनें बंजर हो चलीं थीं, वहां गीत नहीं थे... वहां की संस्कृति से संगीत लगभग विलुप्त हो गया था...

दरअसल यादों की तासीर गर्म होती है,
वे जलते मोम की तरह होती हैं, टपक के साथ देह पर टीस उठाती हुई...

सुनो हमारा फैसला गलत था.. हमें बूंदें चुननी चाहिए थीं.. मेघों की गर्जना ताज़ा मौसम के संकेत होते हैं... बरसात का देह पर चुभना शीतल है... उनमे शुभकामनायें होती हैं... !!

तुम्हारे साथ बिताये हरित दिनों को याद करते हुए
यहाँ भव्य महल के विश्रामकक्ष में रुदन में सिक्त अधीर बैठा
तुम्हारा कालिदास !!

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5. नींद में देखा गया हर स्वप्न क्योंकि एब्सट्रैक्ट होता है आधी लिखी जा चुकी कविता हो सकता है....!
जैसे दूर गावँ में इष्टदेवता के मंदिर का ज़र्द चित्र या चौथे माले से कुत्ते के पिल्लै का हाथ से छूट कर नीचे गिरना या किसी की असामयिक मौत या जन्मे हुए किसी का फिर से जन्मना या बरसों पहले मर चुके किसी पुरखे का हाथ हिला कर धुंधली हो चली अपनी अनुपस्थिति दर्ज़ करवाना।
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6. जब आप विचारों के नो मैन्स लैंड पे खड़े हों, शून्यता आप पर बुरी तरह हावी हो और जीना आपके लिए मौत सरीखा हो, बर्बादी की पराकाष्ठा ऐसी कि आप हिम्मतवाले बर्बाद हो चुके हों, हंसना सिर्फ रोने का पर्याय मात्र बचे और रोना सूखा हो चले..आत्म हत्या निहायत ही सुखांत खेल हो जाये, 
इतना आसान कि आप उसे विकल्पों से निष्काषित ही कर दें..... 
एक घाव जो इतना गहरा हो जाये कि अब उसका दर्द महसूस ही न हो, 
अरसे से खड़े-खड़े आपके पैर ऐसे जम जाएँ कि अब दुखन महसूस न हो,
जीवन इतना दुखांत हो जाये कि समय-समय
पर दुखों के उत्सव मनाएं जाएँ...

वो जो हर वक़्त तलवारों की बातें करते हैं,
अक्सर उनके हृदय गुठली तक भेदे जा चुके होते हैं,
वो जो रोज़ हालातों के खिलाफ षड्यंत्र रचते हैं, 

तेज़ करने वास्ते अपनी तलवारें घिस-घिस कर नाकाम कर चुके होते हैं.....!!! 
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7. मुसाफिर होना मेरी नियति है... पृथ्वी पर जितनी सड़कें हैं वहां मेरे पदचिन्ह पहले से अंकित हैं.. मेरी मंज़िलें तयशुदा हैं... मैं विज्ञ हूँ.. मेरा मोक्ष इस तथ्य पर आधारित है कि मैं जी रहा हूँ..
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8. कविता तुम तक स्वं आएगी अन्यथा कभी नहीं आएगी, इस दृष्टि से तुम कवि नहीं माध्यम हो... न तो बीज हो, न खाद, न पानी बल्कि वह भूमि जो अनायास ही फट पड़ेगी व एक नव चेतना का अंकुरण होगा। 
कविता को प्रज्ञा की आवश्यकता नहीं और न ही सोच, समाधि, ध्यान की।
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9. मैं किसी सफल आदमी से नहीं मिलना चाहता। जीवन में जो असफल हुए हों वे मुझे मिलें मैं उनसे बात करूँगा, उनकी मनोस्थिति, उनके दुखों के लिए मेरे हृदय में करुणा होगी, उनके घावों पर मेरे करों का स्पर्श लेप होगा। न मेरे पास उनके लिए सहानुभूति न होगी बल्कि मुझे तो वे चलते पुर्जे नज़र आते हैं। वे अनन्तकालीन प्रक्रिया के हिस्से होते हैं... वे आशावान होते हैं इसलिए दूषित नहीं होते। 
उन्हें हादसों ने पाला होता है व मजबूरियों, उदासियों, वृथाओं से उन्हें मातृत्व प्राप्त होता है.. वे जीवन में इतने आहत हो चुके होते हैं कि अब संवेदनाएं हथिलयों पर लिए घूमते हैं.. उनकी एक मात्र सम्पति ग्रहणशीलता व भावुकता होती है....
सफलता परोक्ष रूप से एक बड़ी दुनियावी चीज़ है जबकि एक असफल इंसान बड़ी आसानी से खुद को इससे विच्छिन्न रख कर भी बड़ी ईमानदारी से सबसे जुड़ा रह सकता है..!!

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10. जीवन में किस्म-किस्म के भय होते हैं.. दरअसल वे भय ही हमें सचेत रखते हैं... पर हर हाल में आत्महत्या एक अत्यंत दुखद स्थिति है जब हमारे भय हम पर हावी हो जाते हैं.. भय उत्तरजीविता के प्रति होना प्रासंगिक है.. भय प्रासंगिक हैं परन्तु जीवन में भयों का संतुलन व उन पर नियंत्रण होना आवश्यक है.. किसी चीज़ के बिखर जाने के बाद पैदा हुए डर से अधिक ज़रूरी है उसके टूटने की सम्भावना का डर होना। मुझे शुरू से एक ही भय रहा है जब भी मुझे मेरी माँ के मरने का ख्याल आता है.. मैं सिहर उठता हूँ... मैं उम्र के किसी भी पड़ाव पर माँ के बिना रह पाने की कल्पना भी नहीं कर सकता.. मैं आश्चर्य में रहता हूँ कि कैसे लोग किसी से अलग हो कर आगे बढ़ जाते हैं क्या वे उनकी चिता के साथ ही जला चुकते हैं सब कुछ जो जिया होता है... हर किसी का जीवन में एक अलग स्थान होता है... 

हर किसी के साथ अलहदा यादें जुडी होती हैं.. समयोचित चीज़ों का ख़त्म होना प्रकृति है, परन्तु एक भर आंच से जल चुकी ज़िंदा देह अधरों पर नर्तन उठा देती हैं... मैं भयातुर हूँ किसी भी रिश्ते के ख़त्म होने के ख्याल भर से, क्योंकि गौरतलब है कि पेड़ से गिर चुके सिकुड़े हुए पीले पत्ते का भी उतना ही सम्बन्ध होता है जितना की शाख पर लहराते हरे पत्ते का.. हर वो एक सांस महत्वपूर्ण रही जो हमने छोड़ दी... 

मैं मानता हूँ कि जीवन जिज्ञासारत है..जिज्ञासा मुक्त सर्प है, अपने विगत अस्तित्व से निकल कर आगत की ओर प्रस्थान और भय उसकी पीछे छूट चुकी केचुली, उसके विगत में होने की क्षत कल्पित छाप।
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11. दरअसल पूर्णतः गवा देना भी न पा सकने को पूर्णतः पा लेना है !!
जीवन स्वं की रिक्तता के अंतर्गत अपने मध्यबिंदु(दृष्टिकोण) 
पर खींचा गया गोलाकार है...!!

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12. तुम जानती हो एक सहज आदमी कमज़ोर न दिखने का हर असफल प्रयास कर चुकता है, आँखों की कोरें सूखी रखता है पर असल में उसका लिखा हर एक शब्द भीगा होता है...!!
शब्दों की कद्र सिर्फ उन्हें होती है जो इसे पेशा नहीं समझते। शब्द तरकश के बाण नहीं कि इन्हें अस्त्रों की तरह इस्तेमाल किया जाए.. ये भीतर का कुछ होता है जिसे ज़रिया चाहिए होता है निकल आने का (वर्ड्स अार ऑलवेज दी बेटर वे ऑफ़ एस्केप).. जटिलता अंतर को खोखला कर देती है... 

जीवन एक बड़ी नाज़ुक चीज़ है और शब्द बड़े कीमती। इन्हें किफ़ायत से खर्चा जाना चाहिए। 
जो चीज़ तुम्हारी हो उसे सहेज कर रखना। उसके प्रति एक विशेष डर बनाये रखना होता है। तुम्हारा डर ही उसे खोने से बचाता है
...........और जो तुम्हारी कभी रही ही न हो बेफिक्र रहो वो कभी कहीं नहीं खोती।

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13. हम कितने भरे रहते हैं न! जीवन में कितने मील के पत्थर होते हैं जो हम पार कर आगे बढ़ जाते हैं पर हर बार कुछ न कुछ बचा ही लेते हैं ताकि हमारे पास खुश होने या रोने के कारण बचे रह जायें। 
दरअसल जीवन सिर्फ कट जाए तो नीरस होता है,
हम आगत के रोमांच के लिए वजहें इकठ्ठा कर आगे बढ़ते हैं...!!

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14. 
अकेले जीने के लिए कुछ चीज़ें अत्यंत अनिवार्य होती हैं 
एक कोरी नोट बुक, रुका हुआ पैन, 
सूखी आँख, ठहरती साँसें और खालीपन।

दरअसल शब्दों के मौन से उत्पन्न होती है एक उत्कृष्ट कविता, 
जबकि स्वर मात्र कविता लिखने का विफल प्रयास।

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15. हर स्टेशन एक गाड़ी के इंतज़ार में रहता है 
और हर गाड़ी को किसी न किसी स्टेशन पर पहुंचना होता है.. 
जो स्थिर है वो भी बेचैन जो चल रहा है वो भी अधीर!!
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16. 
कितना विचित्र है कि दुनिया में सब तरफ अकेलापन, ऊब, उदासी तारी है। हर आँख नम है कि उसे प्रेम नहीं मिला। जो प्रेम में है उसे बिछड़ जाने का संशय सताता है। देह में हलचल और मस्तिष्क में जिज्ञासा भरी पड़ी है। न जाने कितने ही अन्वेषक खुद की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रहे हैं। हर तरफ एक रुदन है, सब कुछ होते हुए भी एक ज़रूरी ख़ालीपन।
आपकी नियति है जटिलता, आप चमत्कृत हो जाना चाहते हैं।
सरल रस्ते आपको नहीं लुभाते !!

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17. रुदन फूटने के लिए ज़रूरी है किसी एक अपनी चीज़ का साथ होना।
सामने दिवार का दिलासा भर ही काफी है कि वह साथ है, बनी रहेगी।
आंसू इतने भी निजी नहीं होते !!

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18. “सिर्फ प्राणों को त्यागना भर ही तो मृत्यु नहीं होता। यह तो ताउम्र साथ बनी रहती है। हर एक उम्मीद के मर जाने से जुडी होती है मृत्यु। इसका बायस विश्वास के धागों का उधड़ जाना होता है। जब स्वप्न धूमिल होते हुए दीखते हैं तब मृत्यु जन्मती है। हम जीवन में आये हर एक शुन्य के साथ मृत्यु की सीमा के अंदर प्रवेश करते हैं। यह नकारात्मक बोध नहीं और न ही यह अंत है बल्कि पश्चात का आरम्भ है। हम ताउम्र कई कई मोड़ों पर मरते हैं व उसके उपरांत एक नए अंदाज़ में अपने जीवन चक्र की शुरवात करते हैं। 

मृत्यु बेहतर जीवन की अथाह संभावनाओं का संसार है.... !!”

(कहानी का एक अंश)

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18. मय आदमी को बुरा नहीं बनाती आदमी मय को बनाता है

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19. यूँ तो देखे हैं हमने भी आफ़ताब कई 
नीदें अपनी भी ख़्वाबगाही में जाती हैं 

बस रातें इतनी अन्यारी हैं कुछ शहरों की 
ज़िन्दगी बेसहर गुज़र जाती है !

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20. एक किताब को खोलने के दौरान कभी पृष्ठों की खुशबू को महसूस किया है.. 
.......मैं जीवन में बस इतना ही चमत्कृत होना चाहता हूँ !!

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21. असफलता द्वारा पैदा हुआ व्यक्तित्व कहीं अधिक बेपरवाह अत: प्रभावी होता है...

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22. हर वह कविता जो प्रश्नवाचक हो एक पूर्ण कविता है !!

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23. इस दुनिया में हर वो शख्स जो खुद को सभी मोह-माया, विषय, विलास, भोग, विश्वास, उम्मीद, आस, संगीत, नृत्य, कला, प्रेम, चाह व चुपड़ी रोटी से अलहदा कहता है वह इन सभी का सबसे अधिक ज़रूरतमंद है।

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24. सुबह होती है, रात आती है, मैं दिन में दो बार खाना खाता हूँ, एक-आध बार फोन भी बज जाता है और शाम को अक्सर टहलने भी निकल जाता हूँ....मेरे साथ सब कुछ व्यवस्थित रूप से ठीक ठाक घट रहा है परन्तु अब मैं आदी हो चुका हूँ, दुखी रहने का !!

-[एक किरदार]


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25. हमारी सारी जद्दोज़हद यात्रा के आरम्भ बिंदु पर पहुँचने को लेकर है !!

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26. "हम सब एक किस्सा हैं, सभी किस्सागो भी..!!"

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21. "सुनो जीवन में तुम्हें किस चीज़ की ज़रूरत सबसे अधिक महसूस होती है?
"जीने की !"
मतलब ये क्या बात हुई..?
बात कुछ नहीं होती, सब व्यर्थ है.. इतना गैरज़रूरी कि अगर उसके बारे में सोचा भी ना जाए या सोचा भी जाए तो भी कुछ नहीं बदलने वाला।
तुम्हारा मतलब है जीवन का कोई अर्थ नहीं यह व्यर्थ  है?
नहीं जीवन का अर्थ है । जैसे प्रॉप्स केवल सहायक होते हैं, तो हर वह चीज़ जिसको सोचना है हर विचार प्रॉप्स है.. जिनके होने से चीज़ों को दिशा मिलती है परन्तु संकेतों में जीना ज़्यादा प्रासंगिक है... हर दिशा की तरफ का गंतव्य हो यह ज़रूरी नहीं। इसलिए दिशाहीनता... 
वह कहीं न कहीं छोड़ ही देती है.. और फिर उससे कोई विशिष्ट अपेक्षा भी नहीं होती। जानीबूझी चीज़ों से चमत्कृत होने का क्या तर्क। 
जबकि उसकी विचित्रता की मयाद उस ही दिन पूरी हो गयी थी जिस दिन तुमने उसे महसूस कर आँख पीस कर एक बार फिर देखा था...!

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लेखन खुद को अभिव्यक्त करने से पहले खुद के बहुत करीब तक पहुँचने का प्रयास लगता है... हर शब्द भावों का एक पूर्ण संसार होता है, अपने पूरे अस्तित्व में वह एक देह होती है जिसमे नमी, वायु, आकाश, अग्नि व समंदर जितनी गहराई होती है और इस प्रकार हर शब्द उस शब्द के न रहने से एक ज़रूरी रिक्तता मैं बदल जाता है अर्थात जब वह वहां था तब उसका प्रभाव अपरोक्ष था परन्तु अब जब वह नहीं है तब भी परोक्ष रूप से वह दो सम्मिलित शब्दों के मध्य एक ज़रूरी खाई के रूप में बना हुआ है... लेखन शुद्ध समाधि है, एकांत व धर्य का बोध रचना प्रक्रिया के दौरान उतना ही ज़रूरी है जितना बुद्ध के बोध के लिए बोधि वृक्ष को जानना। मृत्यु की अनुभूति आधारभूत मोक्ष सामाग्री है.. और शब्द उन ध्यान-करों से जपे जाने वाले मानक, इनके महत्व को समझा जाना कुछ भी रचे जाने से अधिक ज़रूरी है.. उनके प्रति मितव्यय होना आवश्यक है... बात जितनी सशक्त तरह से संकेतों में अभिव्यक्त हो सकती है वह शब्दों की उपव्ययता से उतनी ही अर्थहीन अत: भावभटकाव की स्थति पैदा कर देती है......दरअसल लिखना बह जाने व डूब जाने के मध्य का आलौकिक आनंद है...!
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भविष्य मैं हमे जब याद किया जाएगा तो उन चीज़ों की वजह से जो हमने चुनी और वे अपरोक्ष रूप से हमारे व्यक्तित्व से रिफ्लेक्ट हुई परन्तु हमारी पहचान का एक हिस्सा उन चीज़ों से जुड़ा है जो हमसे छूट गयी या हमने छोड़ दी.. या वह स्वप्न जो बाकि सभी दुनियावी वस्तुएं पा सकने के बाद भी एक फंतासी बन कर रह गया.. दरअसल स्वप्न देखना ज़रूरी क्रिया है यह एक रिक्त स्थान भरने सरीखा होता है, जीवन के अभाव स्वप्नों के रूप में हमारे साथ रहते हैं..
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वह जब कभी भी अपने अच्छे दिनों की कल्पना करता तो अचानक डर कर ठिठक जाता, वह इस तरह जीने का इतना आदि हो चुका था कि अब उस बदलाव में ढल पाना उसके लिए अत्यंत ही कष्टदायक होने वाला था।


-[एक किरदार]
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बादलों पे सवार चाँद को धीमे धीमे चलते देखो, हवा की सरसराहट से तन के रूएँ महसूस करो.. बर्फ पे लेट जाओ, रेगिस्तान का खुलापन नज़र में उतार लो... जितने हो सके पेड़ लगाओ, बीज बो दो, पहाड़ों पर घर बनाओ, शहरों की हर इमारात से गुज़रो तो घर की ड्योढ़ी याद करो, रोटी पे रख कर सब्जी कुछ ऐसे भी स्वाद चखो, गन्ने को दांत से छिल के खाओ, और कभी शहतूत के पेड़ पे चढ़ के देखो।


....जीवन उकताहट तो है पर स्वादिष्ट भी कमतर नहीं।

-[टेस्ट ऑफ़ चैरी देखते हुए]
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पहाड़ों की उस अत्यंत बर्फीली चोटी पर जली चार लकड़ियों की पैंठ से उठता धुंआ जीवन की हाँजरी में उठे हाथ थे..
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रात बारह बजे के बाद वह समय बिल्कुल अपना हो जाता है, अगर बिस्तर खिड़की से सट के लगा हो तो बाहर से कुछ विशेष आवाज़ें सुनाई देती हैं.. मूक आवाज़ें। जैसे गाढ़ी काली स्लेट पर कोई चुपचाप ग्रेफाइट से लिख रहा हो "जीवन"
...हर संज्ञा लिविंग व नॉन लिविंग के मध्य एक उत्कृष्ट कम्युनिकेशन होता है यह भी रात में अलग से झलक कर आता है जब आप खुद की नब्ज़ महसूस कर सकते हैं तो नलकों का सांस लेना भी कानों को छूता है.. जब कीबोर्ड और घड़ियाँ उस तरह चटकती हैं जिस तरह अँगुलियों की जोड़ें और जब नींद और स्वप्न अपने अपने हिस्से की आरक्षित जगह ढूंढते हैं.. 
इस विशिष्ट वक़्त जितना सड़कों पे कारोबार गरम रहता है अंदर कमरे में आपके सुपरविज़न में भी कई नीरव हलचलें निरंतर बनी रहती हैं..."एक शांत नाईट लाइफ !"
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अँधेरे में तुम थोड़े और सचेत हो जाते हो.. जब अचानक बत्ती चली जाती है तो तुम्हारी चेतना पहले से अधिक एक्टिव हो जाती है जैसे उस अँधेरे में अनुमान की दृष्टि से सब कुछ और भी क्लियर और भी साफ़ दिखने लगा हो... अंधेरे के दूसरे छोर पर किसी का होना इतना भरोसा भर है कि अँधेरा जितना गाढ़ा होता है तुम खुद के उतने नज़दीक होते हो.. यह क्या उस रिलीफ फीलिंग जैसा नहीं कि तुम्हारे ही किसी अक्स ने चुपचाप बगल में आकर तुम्हारा हाथ थाम लिया हो.. और अब तुम निश्चिन्त हो..
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ज़िन्दगी वह आर्टिफिशल गहना है जिस पर कोई सोने का पानी चढ़ा के जीता है तो कोई वह पानी अफ़्फोर्ड नहीं कर पाता। और उस हिसाब से हम अपने-अपने कमज़ोर व स्ट्रांग चुन लेते हैं।

तो जब सोने का पानी नहीं चढ़ा सका तो वह "रस्ट" की नज़र हो गया न!

नहीं रस्ट को भूल जाओ।
सोने को भी भूल जाओ।
एक बार सब चीज़ों को भूल जाओ।
सिर्फ यह याद रखो कि ज़िन्दगी एक आर्टिफिशल गहना है !! 
इतना ही ज़रूरी है किसी भी स्थिति में सर्वाइव करने के लिए क्योंकि जीने का कोई दूसरा ऑप्शन नहीं होता सिर्फ जीना होता है!
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तुम लोगों ने फिल्मों में ढिशुम की आवाज़ें सुनी और आँखें फाड़ ली, तुमने बड़े से चाँद के आगे हीरोइन को थिरकते देखा और टकटकी बाँध ली, तुमने माँ को हीरो की गोद में मरते देखा और आंसू गिरा दिए, तुमने अपने भीतर का एक बड़ा व बेहद संजीदा हिस्सा फिल्मों में जीया जबकि पूरा जीवन मुखौटे में ज़ाया कर दिया।
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कविता लिखना पिंग-पौंग खेलने सरीखा है, हर भाव निरंतर नज़रों से गुज़रती हुई सूक्ष्म व्यास वाली गेंद, अवसाद नैट-जाल व शैली रब़ड़ भाग वाली ग्रीप। प्रेम बैलेंस, व्यंग्य चौपिंग, कटाक्ष स्मैश और तर्क बैकहैंड हिट..
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हम अपने समूचे जीवन को इतना यादगार बना देना चाहते हैं कि हर पल के जिवंत होने की एक निशानी रख छोड़ते हैं..कविता, तस्वीरें, इंतज़ार व दुख।

सुख इतने चिकने होते हैं एक पल भी नहीं ठहरते!!
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अत्यधिक मीठे बन के रहो जहाँ कसैला स्वाद आये। एक आखेटक के शिकार की तलाश पूरी करो और ठगे जाने के बाद ही संदेह जताओ.. नब्ज़ जांचना इतना ज़रूरी नहीं, न ही चेहरे पढ़ना। बस इतना करो एक रुमाल जेब में रखो और जब कभी भी लोगों से मिलो
उनसे हाथ ज़रूर मिलाओ।
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तुम आदर्श स्थिति में यह देह छोड़ के दूसरी देह में नहीं जा सकते, लाख काशों के बाद भी अपनी उम्र से पीछे या आगे नहीं फांध सकते, तुम जो वक़्त बुरा हो उसे बदल डालो यह मुमकिन नहीं, तुम अनुकूल वक़्त को तावक़्त थाम नहीं सकते। तुम इस जीवन के समान्तर एक जीवन का निर्माण करो, कल्पना का नहीं बल्कि यथार्थ की वृत्ति का। तुम इस तरफ सक्रिय रहो और कठपुतली की तरह हर उस कार्यकलाप का हिस्सा बनो जो नियतसम्मत हो और दूसरी तरफ तुम वह डोर तोड़ दो व स्वम के संचालन में भीतर घुटते किरदार को जिवंत करो।
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Friday, December 26, 2014

"चार्ली"





कॉमेडी एक सबसे कठिन विधा है। सभी भावों में सबसे गहरा भाव है। यह दुखों को उनके संकुचित दायरे से बाहर निकाल कर सार्वभौमिक बना देने की कला है या कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अगर दुखों का विस्तृत अन्वेषण किया जाए तो वह हाँस्य है। कॉमेडी करते हुए किसी भी कलाकार को सबसे अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है। कॉमेडी एफोर्टलेस होनी चाहिए। प्रयासों से रुदन फूट सकता है, गंभीर भाव दर्शाये जा सकते हैं परन्तु हँसाया नहीं जा सकता। दरअसल हाँस्य परिस्थिति पर आधारित होता है और एक प्रभावी कॉमेडियन उसे दी गयी उन परस्थितियों का लाभ उठता है। अच्छी कॉमेडी टाइमिंग, हाज़िरजवाबी (इशारों व मुद्रा के लिहाज़ से भी) और क्रियान्वयन के द्वारा दर्शायी जा सकती है। इसमें जितना कंटेंट का कॉम्प्रिहेंशन महत्वपूर्ण है उतना ही ज़रूरी है उसका आर्टिक्युलेशन जो कि ज़ाहिर है दर्शकों की प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है उस लिहाज़ से कलाकार, कहानी व दर्शकों के बीच तारतम्य बनाये रखते हुए यह एक गूढ़ बात को सरलतम अंदाज़ से कह देने का साधन है।
हाँस्य का असर बहुत गहरा होता है। यह ऐसा बाण है जो भेदते हुए घाव भले ही न दे जाए परन्तु इसकी टीस लम्बे अरसे तक ज़हन में तैरती रहती है। एक हाँस्यकार बेहद संजीदा, भावुक, गंभीर व मेधावी होता है, उसका काम ड्रामा के सभी तत्वों के एकत्रित व अतिरंजित इस्तेमाल (रोमांस, सेडनेस, हैप्पीनेस, इमोशनल सीक्वेंस ) के साथ उस स्थिति को विनोदपूर्ण दिखा देना है इस प्रकार एक सफल हाँस्यकार अपनी संजीदगी के साथ किसी भी प्रकार के किरदार में जान डाल सकता है...!
चार्ली चैप्लिन- अभिनय का एक पूरा संस्थान। उनको फिल्मों में देख कर आश्चर्य होता है। सही मायने में गिफ्टेड कलाकार। उन कुछ महानुभावों में से एक जिन्हें नियति द्वारा एनलाइटेंड भेजा गया होगा। लम्बी लम्बी रील वाली फ़िल्में व उस पर भावों को बचाते हुए निरंतर मूक अभिनय। स्थिति की मांग पर अभूतपूर्व पकड़, रिपीटेशन ऑफ़ रेगुलर एक्सप्रेशंस होने के बावजूद भी दर्शकों को ज़रा न खिजाते हुए उनके मनमस्तिष्क पर एक के बाद एक प्रभावी असर छोड़ती अभिव्यक्तियां।
अभिनय में एक टर्म है मैथड एक्टिंग जो कि महान स्टॅन्स्लीविस्की की ड्रामा व स्टेज पर की गयी गहन रिसर्च की देन है। इसके अनुसार अभिनयकार को अभिनय करते हुए कुछ बातों का ख़ास ख्याल रखना होता है- अव्वल तो वह अभिनय न लगे, दूसरा वह अभिनय न हो, तीसरा कोई ऐतिहासिक किरदार करते हुए वह किरदार लगना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना उस किरदार को दर्शाना। दरअसल अभिनय एक सम्मोहन है या मैजिक ट्रिक्स जैसा होता है... एक सफल अभिनयकार वही है जो अपने दर्शकों को सम्मोहित कर अपने संवादों के प्रभाव में डाल सके व जो शो या फिल्म ख़त्म होने के बाद उस किरदार की छवि को अपने साथ ले कर लौट सकें।
चार्ली की किसी भी फिल्म को देखते हुए सबसे ख़ास बात जो आकर्षित करती है वह यही है कि हर बार वही मोनोटनस आउट फिट(काला कोट, हैट व सफ़ेद शर्ट) पहने हुए भी वे कभी चार्ली नहीं लगे बल्कि हर बार वे प्रवृत किरदार नज़र आये... चाहे पेंटर हों, बार्बर, बैरां या धोभी उन्होंने अपने सरल अभिनय से उन सभी किरदारों को जिवंत कर दिया।
अतिसामान्य लुक्स, सहज चाल, सरल भावमुद्रा वाला एक गूढ़ व्यक्तित्व जो न केवल अपनी असीम प्रतिभा से लोगों के दिलों में एक विशिष्ट स्थान बना पाया है बल्कि हर एक हाँस्य के साथ अपनी भीतरी पीड़ा को भी अभिव्यक्त करने में सफल रहा है।
कहा जाता है एक कलाकार अपने अंतिम समय में बिलकुल खाली हो जाना चाहिए परन्तु यह आदर्श स्थिति में संभव नहीं है इसलिए अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से जो इसके सबसे नज़दीक पहुँच पाया है मेरा ख्याल है वह चार्ली चैप्लिन है..

Saturday, December 13, 2014

बुढ़ापे के लिए

रातों को मैंने आकाश के तारे गिने
दिनों में सूरज से आँख मिलानी चाही
पहाड़ों की सबसे ऊँची छोटी पर चढ़ कर खाई
की तरफ पैर लटका के बैठ गया
नदी के वेग को हाथ से रोकने की चेष्टा की
व हवा को विपरीत चल कर टक्कर दी
लड़कपन में मैंने हर वह काम किया
जिस पर रोक लगाई गयी,
बुढ़ापे के लिए मेरी एक मात्र इच्छा है
मेरी लाठी "शाल" की लकड़ी की बनी हो..!

Tuesday, December 9, 2014

"ब्रह्माण्ड-एक खेल का मैदान"

ये अनंत ब्रह्माण्ड दरअसल एक खुला खेल का मैदान है
और वह खिलौने से वंचित खिझाया हुआ एक नन्हा बच्चा।

उसकी नज़रें हिमालय के जमे हुए ग्लेशियर हैं
जिनसे निरंतर रिसती है वेदना
इस तरह एक तेज़ बहाव नदी बहा ले जाती है सब कुछ
और सत्तर फीसदी की सतह पर तैरते हैं
अपेक्षाओं के उजड़े कसबे, गावँ व शहर...

उसके कानों में सुनाई पड़ती है
कई कल्पों के विलापों की कोलाहल
जबकि उसका मुख एक सुरंग द्वार है
जिसके ज़रिये शब्दों का एक जत्था कतार में
रेंगता हुआ उसके शिथिल हृदय से उपजता है
और सांसों के साथ ही फ़ैल जाता है पूरे भूगोल पर.
इस तरह ओज़ोन की परतें और भी मजबूती से स्थापित हैं
वायुमंडल पर...!

उसका धड़ आकाशगंगा सरीखी एक सर्पिल गैलेक्सी है
उसके प्रयास उँगलियों की थकान से चटकी उल्काएं
व विफलताएँ अंतरिक्ष पर मंडराते उपग्रह।
उसके घुटने जवाब दे गए वे ब्लैक होल हैं जिनकी गर्त में
बुरे वक़्त की सभी सदायें दफ़्न हैं...

जिस प्रकार चिड़िया गिरा देती है अपना एक पंख
उसकी पलकों से उम्मीदें टूट-टूट गिर रही हैं
उसके अधरों पर का कम्पन चुंबकीय आकर्षण की नकार है
व उसके माथे पर उभर आई हैं झुंझलाहट की कई असमायिक लकीरें

जिस प्रकार नन्हे हाथों से फिसलती है गेंद
उसकी पूरी देह अधीर है
उसके हाथों से बार-बार पृथ्वी फिसल रही है...!!

Friday, December 5, 2014

तुमने जीवन को ठीक से समझा और सुखों के
हज़ार अवसरों के बावजूद भी अपने चयन में दुखों को शामिल किया।
....विरक्ति के समक्ष सांसारिक जटिलताओं को तरजीह दी...
तुमने पारंपरिक उक्तियों को सिरे से नहीं नाकारा बल्कि दृष्टि पैदा करके
उनके अलहदा आयामों की खोज की...
.....तुमने गलतियों से सीख ली और कई गलतियां दोहराई।
तुमने जितने संभव हो सकते थे भगवानों के नाम याद रखे..
तुम मंदिर गए, तुमने प्राथनाएं की...
.........तुमने संभावनाएं बनाये रखी अत: व्यथाओं की तरफ दरवाज़े खुले छोड़े।
तुमने कई शहर बदले, तुम कई लोगों से मिले, तुमने कई किताबें टटोली।
तुम जहाँ भी गए, जिससे भी मिले, जो भी पढ़ा...
प्रश्न एकत्रित किये!
क्योंकि तुम्हारा उदास होना स्वेच्छा से था
अत: तुम्हारे उत्सवों में शोलाकुल धुनें बजी..
तुम ताउम्र
किसी रॉक बैंड के वोकलिस्ट सरीखे कर्कश आवाज़ों में चिल्लाते रहे
......."हैल विथ योर लॉ, हैल विथ योर आर्डर"
और भीड़ ने हैड बैंगिंग के ज़रिये तुम्हारी मूर्खता पर नॉडिंग की...
तुम्हारा नृत्य हाई बीट कानफोड़ू तानो पर आधारित था,
इसलिए तुम्हारे रुदन मात्र लिप-सिंकिंग के
बेहतरीन प्रयास तक याद रखे गए..
तुमने उत्सुकता बनाये रखी व सीधी बातों के तात्पर्य समझने चाहे,
तुम्हें हसिये- हथौड़ों से डर था तुमने शब्दों का सहारा लिया,
तुम्हारे विचारों को अभिव्यक्ति की जल्दी थी,
तुमने कई भूर्ण हत्याएं की...और दंड चुने।
तुमने स्थिरता बनाये रखी,
.......सादगी को सराहा और पेचीदगी से प्रेम में पड़े....
जीवन तुम्हारा कृतज्ञ है !
तुमने विरोधाभासों की एक पूरी दुनिया ईजाद की
और इस मायावी चलचित्र को तिआयामी अस्तित्व प्रदान किया।