उस रात की बात है,
सड़क किनारे एक झुग्गी के बाहर
छोटी सी लड़की रोती थी
हाथों में कुछ गुब्बारे लिए,
मायूस सर को झुकाए,
सुकबुकाते हुए कुछ कुछ बढ़-बढाती थी,
भूरे उलझे बाल, मुरझाया चेहरा व
छोटे-छोटे पैरों पर ख़राशों के निशान,
देर से अपनी फैली लटकी फ़्रोक की फटी जेब टटोलती,
हारकर अपने कोमल हाथों को मलती रही,
अब्बा ने पुचकार कर जो पूछा कि
"क्या हुआ क्यूँ रोती है"?
रोक नहीं पायी खुद को,
रोती हुई बिखर गयी नन्ही जान अब्बा की गोद में..
आँसुओं से लडती हुई, कुछ संभलते हुए बोली
आज सड़क पर दिन भर में एक भी गुब्बारा नहीं बिका
आज तो बाल-दिवस था न, बच्चों का दिन,
मैं भी तो बच्ची हूँ न?
फिर भी मेरे गुब्बारे क्यूँ नहीं बिके??
तरलता में लिप्त मासूम सी आवाज़ में एक बहुत ठोस सवाल!
अब्बा ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए,
गुच्छे में से एक गुब्बारा निकाल कर
देते हुए कहा
"बेटी आज गुब्बारे इसलिए नहीं बिके
क्यूंकि वो मेरी मुन्नी के पास ही रहना चाहते थे,
आज बाल दिवस है न मेरी मुन्नी का दिन.."
नादान मुन्नी अब्बा की बातों में आकर
खिलखिलाती हुई गुब्बारे से खेलने लगी
और अब अब्बा अपना बुझा हुआ सा
चेहरा झुकाये न जाने किस सोच में पड़ गए...