मैं ओ. पि. डी. से अपना रैगुलर चैक-अप करवा कर निकला ही था कि मेरी नज़र ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठे एक restless शख्स पर पड़ी, साथ ही में एक स्टील का कटोरा रखा था और "ये क्या इसमें तो काफल हैं, मैं देखते ही समझ गया की शख्स पहाड़ी था।" आँखों पर बड़ा सा चश्मा, लम्बे लम्बे बाल, घनी भरी मूछें। उम्र लगभग मेरे ही बराबर रही होगी पर उसकी छवि किसी बुद्धिजीवी सरीखी थी। कांपते हाथों से अपनी डायरी पर कुछ लिख रहा था, पैर लगातार हिल रहे थे, जूते बिखरे पड़े थे और पैरों की बदबू पूरे हॉस्पिटल पर छिडके गए फ्रेशनर पर हावी थी। समस्या गहरी ही नज़र आ रही थी। हालाँकि साइंस से मेरा दूर दूर तक का कोई नाता नहीं है फिर भी मैंने उस शख्स के वक्तित्व में एक चुम्बकीय शक्ति को महसूस किया और उसे परेशान किये बिना ही उसके पास जा कर बैठ गया। दिल में हज़ारों सवाल थे पूछने को पर हिम्मत जुटा पाना मुश्किल हो रहा था। उसने एक नज़र मेरी तरफ देखा और फिर अपनी डायरी में कुछ लिखने लगा। मैं खुद पर काबू न रख सका और पूछ बैठा " क्या हुआ आप बहुत परेशान लग रहे हैं??"
उसका रिएक्शन मेरी सोच से बिल्कुल विपरीत था। वो हड़-बड़ा के मुझसे बात करने लगा, अचानक ही उसकी ऑंखें छलकने लगी और आंसुओं में लिपटे हुए उसके गीले शब्द मेरे कानों तक पहुंचे। कई रातें रोया था शायद, आवाज़ की क्लैरिटी गायब थी, उसमे खरांश नज़र आ रही थी, मुझ पर "काफलों" का क़र्ज़ चढ़ा है, आप नहीं जानते होंगे की ये काफल क्या बला है, पहाड़ी फल है ये" कह कर वो रोता हुआ बाहर चला गया। काश वो मुझे बोलने देता की मैं भी एक पहाड़ी हूँ और काफल की मिठास खूब समझता हूँ, तो शायद यूँ उठ कर चला न जाता बल्कि मुझे अपनी पूरी बात बताता।
लेकिन मैं असमंजस में पड़ गया कि क्या माजरा है, "ये काफल कैसे किसी भी परेशानी की वजह हो सकती है, और ये कैसा क़र्ज़ है काफलों का??
ये बात मेरी समझ से परे थी, पर फिर भी मैं बिना जाने नहीं रह सकता था। अन्दर कौन था जिसका ऑपरेशन चल रहा था। उसका उस मुछों वाले शख्स से क्या सम्बन्ध था, और अगर था तो वो शख्स पेशेंट से ज्यादा काफलों की वजह से क्यूँ परेशान था?"
तभी मेरे बगल वाली कुर्सी पर जिस पर वो मुछों वाला शख्स बैठा था एक अधेड़ उम्र के सज्जन आ कर बैठ गए। उन्होंने मेरे चेहरे की मुद्राएँ बखूबी पढ़ ली थी। वो मेरी उलझनों और सवालों से भी रूबरू थे। थोड़े परेशान लग रहे थे पर मुझसे कहने लगे की "तुम जिसके बारे में सोच रहे हो वो "अमित रावत" है नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में ड्रामेटिक आर्ट्स पढ़ता है, पांच किताबें छप चुकी हैं अब तक और हर मंगलवार को हिन्दुस्तान टाइम्स में उसका फीचर लेख छपता है।" जैसा मैंने सोचा था ठीक वैसा, एक बुद्धिजीवी। एक कलाकार, एक पत्रकार। अब मेरे भीतर की दुविधा और भी विकराल रूप ले रही थी, की इतने बड़े कलाकार पर एक काफलों का क़र्ज़ है?? मैंने सुन रखा था की रंगमंच और कहानियों से जुडा हुआ शख्स अक्सर थोडा हिला हुआ होता है, मेरा मतलब है नार्मल नहीं होता, इसलिए शायाद जहाँ नार्मल लोग पैसों के क़र्ज़ को भी सीरियसली नहीं लेते वहीँ अमित रावत जिसके किसी सम्बन्धी का ऑपरेशन चल रहा है वो अपने काफलों का क़र्ज़ चुकाने के लिए परेशान है??
मैं अपने ही ख्यालों में उलझता जा रहा था, तभी उस सज्जन ने पूछा क्या हुआ, किस सोच में पड़ गए। ना न…मगर, वो काफ…काफ़ल क्या बला है?? और अन्दर ये ऑपरेशन किस का चल रहा है?? मैंने हड़-बड़ा के पूछ लिया। ठीक है ठीक है बताता हूँ, पहले ये बताओ की तुम रहने वाले कहाँ के हो?? शक्ल से तो पहाड़ी ही लग रहे हो?? मैंने झट से कहा "हाँ, मैं पहाड़ी ही हूँ, रानीखेत का रहने वाला हूँ।"
वो गंभीर स्वर में बोले बहुत अच्छा, तुम तो घर गाँव के ही आदमी हो, नाम क्या है तुम्हारा, मैंने बताया "मुकेश चन्द्र पाण्डेय" अच्छा ब्रामण हो, तो ठीक है, सुनो पाण्डेय जी अब मैं तुम्हे इन काफलों के क़र्ज़ की कहानी सुनाता हूँ।" उन्होंने दर्द भरी आवाज़ में कहा। लेकिन ये..ये अन्दर ऑपरेशन किस का हो रहा है??" मैंने पूछा।
बताता हूँ, बताता हूँ पहले काफालों की कहानी सुनो।" मैं हेरत में पड़ गया की यहाँ सारे सनकी तो नहीं है किसी को भी पेशेंट की नहीं पड़ी, सब को काफल की चिंता है, खैर मेरे कौन से घर के हैं सुन लेते हैं कहानी।
फ्लैशबैक
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आज से लगभग १२ साल पहले की बात है, जून का महिना था… ठीक से याद नहीं पर हाँ शायद जून की दो या तीन तारीख रही होगी, साल याद है "२००२", रात के लगभग ९.०० बजे थे, अमित अपने माता-पीता के साथ आनंद विहार बस अड्डे के उत्तराखंड सेक्शन पर खड़ा दिल्ली से गनाई जाने वाली बस का इंतज़ार कर रहा था। (गनाई उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा डिस्टिक में एक बहुत खूबसूरत जगह है जो अमित के गाँव रानीखेत से ५० किलो मीटर आगे पड़ती है)
"बस" आने में अभी आधा घंटा बाकी था, पर आस-पास अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी थी, सामानों से लदे हुए लोग, दो या तीन बैग, बड़े बड़े सूटकेस, दो चार बक्से व बिस्तर बंद आदि। ऐसा लग रहा था मानो शहरों की भीड़-भाड़ से तंग आ कर हमेशा हमेशा के लिए अपने पहाड़ों पर लौट जाना चाहते थे। पर ऐसा नहीं था, शहरों की तरफ रुख कर चुके वो सभी लोग जो अब शहरों के ही प्रोडक्ट हो चुके हैं, एक अर्जे पहले आँखों में हज़ारों सपने लिए निकल आये थे पहाड़ों से, आज शहरों की भीड़ में अपने सपनों को भींचे सिर्फ जीवनयापन के लिए जीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं और अपना पूरा जीवन शहरों की बड़ी बड़ी इमारतों को गिरवी रख देते हैं। कभी जो अकेले निकले थे घर से आज लगभग उन सभी पहाड़ियों के एक दो शहरी बच्चे हो गए हैं, जिन्होंने न वो घर देखा है, न वो पहाड़, न वो स्वछंद बहती नदियाँ, न वो बादल और नो वो रीति-रिवाज़। जैसे ही उन पहाड़ियों के शहरी बच्चों को स्कूलों से दो महीने की छुट्टी मिलती है तो पूरे साल की अपनी कमाई से जोड़े हुए पैसें थाम, अपने शहरी टुट-पंजे अफसरों से १०-१५ दिन की मोहलत मांग कर अपने घर-पहाड़ के लोगों से मिलने चले देते हैं।
खैर मैं पहाड़ियों की बेचारगी के किस्से सुनाने लगा, आगे सुनो "बस" आने में अभी आधा घंटा बाकी था, पर आस-पास अच्छी खासी भीड़ हो गयी थी, सामानों से लदे हुए लोग, दो या तीन बैग, बड़े बड़े सूटकेस, दो चार बक्से व बिस्तर बंद आदि।
पूरा सेक्शन पहाड़ियों से भरा हुआ था, हर तरफ कुमाउनी शब्द लहरा रहे थे, पहाड़ों के इतने परिवारों को एक साथ देखना मन मोहक था।
कुछ लोग अपने बच्चों को पानी की बोतल, बिस्कुट के पैकेट, और मूंगफलियाँ ला कर दे रहे थे, तो कुछ जो अकेले थे कोने में खड़े सिगरेट फूँक रहे थे। कुछ अपने सामान पर बैठे "बस" आने का इंतज़ार कर रहे थे, और कुछ टिकट खिड़की पर टिकट कटवा रहे थे। दुकानों में निरंतर बजते पहाड़ी गीत, अर्जे पहले अपने घरों से बिछड़े इन लोगों के सयम की दुगुनी परीक्षा ले रहे थे। आनंद विहार बस अड्डे का माहोल बिल्कुल किसी पहाड़ी कौथिक के जैसा था।
अमित चुप-चाप सब कुछ देख रहा था, नवीं क्लास में पढने वाला १४ साल का अमित एक गंभीर और विचारक लड़का था। सामान्य कद-काठी वाला, पतला-छरहरा। उसके चेहरे पर तेज़ व होठों पर मुस्कान देखते ही बनती थी। बहुत छोटी उम्र से ही उसके विचारों में बहुत गहराई आ गई थी, चीज़ों की तह तक जाना उसकी आदत थी, और राह में अनेक लोगों को ऑब्जर्व करना उसका शौक। थोडा सेंसिटिव और इमोशनल भी था। जहाँ उसकी उम्र के बाकि बच्चे हो-हल्ला मचाते थे, अमित हर वक़्त अपने पास एक डायरी रखता व दिन रात के छोटे छोटे अनुभवों को उस पर उतारता रहता, वो कहीं भी जाता अपनी डायरी हर वक्त अपने साथ रखता था, आज भी वो डायरी उसके बैग में ही थी, अमित को कवितायें लिखने का भी शौक था, हालाँकि बिगड़ी तुक-बंदी व कमज़ोर वोकैबुलारी होने की वजह से उसकी कवितायें बहुत साहित्यिक नहीं थी पर भावों से परी-पूर्ण रहती थीं। इन चौदह सालों में वो लगभग हर साल अपने गाँव जाता रहा था। और इस साल भी उसकी आँखों में ये ख़ुशी साफ़ झलक रही थी। काफी excited था।
हालाँकि उसे भी वहां के रीति-रिवाजों व संस्कृति की ख़ास नॉलेज नहीं थी पर घर में उसके माता-पिता ने एक पहाड़ी माहोल बना रखा था जिस कारण उसे बहुत सी चीज़ों का ज्ञान था। वह कुमाउनी बोल तो नहीं पता था हाँ मगर समझ जरुर लेता था। पहाड़ों की भट की चुरकाणी, गहौत की दाल व बाल मिठाई उसे बहुत पसंद थी। काफालों का तो वो दीवाना ही था। उसका पहाड़ों से एक लगाव सा हो गया था। वहां का शांत माहोल उसे दिल्ली की भीड़-भाड़ से कई गुना ज्यादा लुभाता। और वहां उसने कई दोस्त भी बना लिए थे। वह जानता था की गाँव में चीज़ें मिलना बहुत दुर्लभ होता है इसलिए वह अपने दोस्तों के लिए क्रिकेट का बैट-बॉल व चोक्लेट इत्यादि लेकर जाता था। वह पूरे साल गर्मियों का इंतज़ार करता रहता और वहां उसके दोस्तों का भी पूरा साल इंतज़ार में ही बीतता था।
अमित पास की दूकान में बैठा बस का इंतज़ार ही कर रहा था की उसकी माँ से उसको पुकारा " ऐजा अमितु, ऐगे गैड़, जल्दी कर भर ज्याल, पजै शीट नि मिलेल हमुकें। बहुत्ते दूर जाण छु (आजा अमित, आ गई गाडी, जल्दी आ, भर गयी तो सीट नहीं मिलेगी हमें, बहुत दूर जाना है)। "
ये सुनते ही जैसे अमित के अन्दर एक बिजली की सी तीव्रता आ गई थी, वो फटाफट दौड़ पीछे वाली सीट पर जा कर बैठ गया। उसके माता-पिता आगे वाली सीट पर बैठे थे। बस चल पड़ी।
अमित क्रिकेट बैट को सीट के नीचे रख, अपने ख्यालों की दुनिया में रानीखेत के द्रश्य उकेरने लगा। रानीखेत अभी भी लगभग २५० किलो मीटर व १२ घंटे दूर था, उसके सब्र का बांध टूट रहा था, वह अपने दोस्तों से मिलने के लिए बेचैन था। और इस ही बेचैनी भरी निगाहों से पूरी रात रास्ते की सभी दुकानों, पेड-पोंधों को निहारते-निहारते कब उसकी आँख लग गयी उसे पता भी न चला।
सुबह ७ बजे का वक़्त था, गाडी पहाड़ों की पतली सड़कों पर दौड़ रही थी, अमित की आँख खुली तो पाया की बड़े-बड़े पहाड़ उसके इस्तेकबाल में साथ साथ बढ़ते चले जा रहे थे, हवाओं संग झूमते पेड़ों की सर-सराहट किसी मुग्ध कर देने वाले संगीत से कम न थी, दूर पहाड़ों के पीछे से निकल कर सूरज ने अपनी किरणे अमित के रास्तों पर बिछा दी थी। वह तरो-ताज़ा महसूस करने लगा, पहाड़ों की यही खूबसूरती थी जिसका अमित कायल था। अमित ने एक अंगडाई भरी और पाया की उसके माँ-बाबूजी नमक लगी पहाड़ी ककड़ी का स्वाद उठा रहे थे। पहाड़ों के बीच पहुँच अमित अत्यधिक रोमांचित हो उठा। तभी गाडी नैनीताल जिले के "गरम पानी" बाजार पर रुकी। अमित को सब कुछ याद आ गया हर साल जब गाडी यहाँ रूकती थी तो उसके बाबूजी सबके लिए वहां का सबसे स्वादिष्ट पहाड़ी ककड़ियों का रायता और पकोड़ा लेकर आते थे, वही सुबह का नाश्ता हुआ करता था, उसने देखा की आज भी बाबू जी खिडकी से तीन प्लेट उसकी माँ को पकड़ा रहे थे। वह उछल पड़ा, उसे पहाड़ी खान पान शुरू से ही बहुत पसंद था। तभी उसके कानों में फल बेचने वालों की आवाजें गूंजने लगी, उसे टोकरी में रखे आडू, सुर्ख लाल पूलम व खुमानी दिखाई पड़े। पर उसकी उत्सुक नज़रें कुछ और ही ढूंढ़ रही थी, उसने सभी फल वालों की टोकरी को झांकते हुए अपने बाबू जी से पूछा की "बाबूजी, आज यहाँ काफल क्यूँ नहीं दिख रहे??" उसके बाबूजी जानते थे की अमित को काफलों की ही तलाश थी, मगर उन्होंने शांत स्वर में जवाब दिया की बेटा इस बार काफल नहीं मिलेंगे, फसलें ख़राब हो गयी हैं" उसका खिला हुआ चेहरा एक दम मुरझा गया। अमित को काफल खूब पसंद थे, हर बार यहाँ से खूब सारे काफल दिल्ली ले जाता और कई कई दिनों तक खाता और दोस्तों को भी खिलाता। पर इस बार ऐसा नहीं हो सकेगा, ये सोच कर वो निराश हो गया।
अमित को गाँव पहुचें पांच दिन हो गये थे और वह गाँव की मिट्टी में पूरी तरह रम चुका था। अपने साथी दोस्तों के साथ गाय चराने जाता, वहां क्रिकेट खेलता, दूर नौलों से पानी सार के लाता, और रात को अपने चाचा की बेटी जो वहीँ गाँव में रहती थी उसे पढ़ता। सभी गाँव वाले अमित के व्यवहार से बहुत खुश थे। अमित सभी को अपनी लिखी हुई कवितायें सुनाता और खूब तालियाँ बटोरता। एक दिन रात को खाने के बाद, अपने रिश्तेदारों के लगातार आग्रह करने पर वह कविता सुनाने के लिए राज़ी हो गया पर इस बार उसने एक कंडीशन रखी कि अगर उसकी सुनाई कवितायेँ उनको पसंद आये तो वे केवल ताली न बजाएं बल्कि उसके लिए एक सेर काफल ले कर आयें। गाँव वाले निराश हो गए, इस बार असाधारण बारिश और डाव पड़ने की वजह से काफलों की फसल बिल्कुल उजड़ गयी थी। सुनने में तो यहाँ तक आ रहा था की इस बार "घिंगारीखाल(काफलों की सबसे स्वादिष्ट व अच्छी उपज वाला स्थान)" में भी काफल नहीं मिल रहे थे। सभी लोग स्तब्ध थे, वे अमित को निराश नहीं करना चाहते थे पर ये बात उनके वश से बहार थी, तभी गाँव के किशन लाल(अमित के दूर के चाचा) के बेटे भानु जो अमित का बहुत अच्छा दोस्त भी था, उसने अमित को विश्वास दिलाया की वो जरुर अमित को काफल ला कर देगा, यह सुन कर सारे गाँव वाले हैरान थे और अमित बहुत खुश।
अगली सुबह करीब ५.३० बजे थे, अभी पूरी तरह अँधेरा भी नहीं छठा था, की अमित के दरवाज़े पर एक दस्तक हुई, अमित की माँ ने दरवाज़ा खोला तो देखा की भानु अपने हाथों में डेढ़ सेर काफल लिए अमित को पुकार रहा था। माँ ने अमित को जगाते हुए कहा "अमितु उठ धीं देख तयर दगडी ऐरौ भानु, ते लिजी काफौ लैरौ, ओ ईजा कतु भल हैरिं यौं लाल ए-दम(अमित उठ देख तेरा दोस्त आया है भानु तेरे लिए काफल भी लाया है, माँ-जी कितने अच्छे हो रहे हैं ये लाल एक दम)" ये सुनते ही जैसे अमित के कान खड़े हो गए और वो झट से उठ बैठा, भानु के हाथों में काफल देख कर जैसे उसकी आँखें चमक गयी थीं। वह बार बार भानु का धन्यवाद कर रहा था और काफल चख रहा था। अमित के ये पूछने पर की जब फसल बिल्कुल उजड़ गयी थी तो भानु ये काफल कहाँ से लाया??
तो भानु ने जवाब दिया की जब अमित हमारे लिए शहर से नयी नयी बॉल, चॉकलेट ला सकता है तो क्या वो अमित के लिए काफल तक नहीं ला सकता था। ये बात अमित के दिल में बहुत गहरे रूप से घर कर गयी, अमित इमोशनल हो गया, लेकिन फिर भी वो जानना चाहता था की भानु को ये काफल कहाँ से मिले। मगर भानु ने बताने से इन्कार कर दिया और कहने लगा "इन काफलों का क़र्ज़ है तुझ पर ये दोस्ती कभी न टूटने पाए।" भानु ने अमित को काफल दे कर मित्रता के प्रति अपनी सच्ची श्रधा को सिद्ध किया, और अमित ने उस ही शाम उस किस्से को अपनी डायरी में लिख कर अमर कर दिया।।
ऑपरेशन थिएटर के बाहर वाले बेंच पर
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अब बारी अमित की थी, दो तीन साल बाद बारवीं करते ही ग्रेजुएशन में दाखिले के बाद अमित का गाँव जाना ना बराबर हो गया। शुरू से ही कला-साहित्य का शौक रखने वाले अमित ने कॉलेज नाटकों में शरीख होना शुरू किया और अपनी काबिलियत के बूते पर मास्टर्स इन ड्रामेटिक आर्ट्स करने के लिए नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा चला गया। वहीँ भानु ने गाँव से १.५० किलो मीटर दूर एक दूकान खोली, दूकान क्या थी जुए-शराब का अड्डा।
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अब बारी अमित की थी, दो तीन साल बाद बारवीं करते ही ग्रेजुएशन में दाखिले के बाद अमित का गाँव जाना ना बराबर हो गया। शुरू से ही कला-साहित्य का शौक रखने वाले अमित ने कॉलेज नाटकों में शरीख होना शुरू किया और अपनी काबिलियत के बूते पर मास्टर्स इन ड्रामेटिक आर्ट्स करने के लिए नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा चला गया। वहीँ भानु ने गाँव से १.५० किलो मीटर दूर एक दूकान खोली, दूकान क्या थी जुए-शराब का अड्डा।
पहाड़ों के साथ ये एक बहुत दुर्भाग्य की बात है की कुछ पहाड़ी तो अपने सपने को पूरा करने के लिए वहां से शहरों की तरफ पलायन कर देते हैं और जो बाकी वहां रह जाते हैं, बुरी संगत में पड़ कर अपना सब कुछ बर्बाद कर लेते हैं। मैं ऐसा नहीं कहता की सारे बिगड़ जाते हैं, पर भानु बिगड़ चुका था, दिन भर जुआ खेलता, रात को शराब पीता और पूरे गाँव में शोर शराबा, लडाई झगडा करता रहता। लेकिन अमित की दोस्ती के लिए आज भी उतना ही इमानदार था। शराब पी कर सबसे कहता कि मेरा एक दोस्त है अमित जो दिल्ली रहता है बहुत बड़ा कलाकार बन गया है, बहुत फेमस हो गया है। लेकिन वो मुझे नहीं भूल सकता, उस पर क़र्ज़ जो है मेरे डेढ़ सेर काफलों का। अमित, जैसा की मैं पहले ही बता चुका हूँ एक बहुत सेंसिटिव लड़का है और उसने डेढ़ सेर काफलों के क़र्ज़ को अपने दिल से लगा लिया है। भानु की हालत देख कर हमेशा उसको शराब न पीने की सलाह देता, कई बार उसको दिल्ली बुला चुका था कह कर की उसकी एक अच्छी सी नौकरी लगवा देगा। दो चार महीने में भानु को कुछ रूपये भी भिजवाता रहता मगर भानु पर बुरी संगत का रंग चढ़ चुका था। और धीरे-धीरे उसकी तबियत ख़राब होने लगी। रानीखेत हॉस्पिटल में दिखाया तो पता चला की उसका लीवर पूरी तरह ख़राब हो चुका है और वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। ये बात सुनते ही जैसे अमित के पैरों तले से ज़मीं खिसक गयी थी। वो भानु को दिल्ली ले आया।
मैंने टोकते हुए पूछा "तो क्या अन्दर जिसका ऑपरेशन हो रहा है वो भानु है??" तो सज्जन ने जवाब दिया "नहीं भानु दो साल पहले ही मर चुका है।"
ये सुनते ही मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। मैं सोचने लगा की कैसे कोई भी बुरी लत आपका जीवन ही ख़त्म कर देती है। मगर फिर मैंने होश संभाला और पूछा "तो अन्दर कौन है? और अब जब भानु ही नहीं रहा तो अमित आज भी काफालों के क़र्ज़ से इतना परेशान क्यूँ है??"
तो वे सज्जन एक दम खड़े हुए और कहने लगे कि भानु की मौत का अमित को गहरा धक्का लगा है, अमित बहुत सेंसिटिव लड़का है, और एक बहुत अच्छा दोस्त भी, आज से ठीक दो साल पहले इस ही ऑपरेशन थिएटर में बीच ऑपरेशन भानु की मौत हो गयी थी। मगर अमित भानु की मौत को accept न कर सका और सदमे में आ गया। महीने दो महीने में जब भी उसे भानु की याद पागल कर देती है तो डेढ़ सेर काफल जो उसने दो साल पहले भानु के लिए मगवाये थे पर दे न पाया, हाथों में लिए यहाँ आता है रो रो कर यही कहता है की मुझ पर इन काफलों का क़र्ज़ बाकी है।
"अब ना इन काफलों में मिठास ही बाकी है और ना भानु!!"
मैं ये सुन कर स्तब्ध रह गया था, मेरी आँखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं आया तो यहाँ अपना चैक-अप करवाने था लेकिन अमित का गम अपने दिल में लिए जा रहा था। मुझमे अमित और भानु दोनों के लिए एक अजीब सी हमदर्दी पैदा हो गयी। अचानक ही ये दोनों मुझे मेरे अपने दोस्त नज़र आने लगे। मैंने आँखों से आंसू पोछते हुए सज्जन से पूछा कि "क्या आप अमित के बाबूजी हैं??" "नहीं मैं उस अभागे भानु का बाप हूँ "किशन लाल" जिसने एक सच्चा दोस्त तो कमाया लेकिन बुरी लत और संगत की वजह से एक अच्छा जीवन न कमा पाया।" कह कर वो फूट-फूट कर रोने लगे। मैं उन्हें वहीँ रोता हुआ छोड़ कर बाहर निकल आया, और करता भी क्या जिसने अपने से आधी उम्र का बेटा खोया हो उसे क्या सांत्वना देता??
मैं जैसे ही बाहर निकला तो देखा की अमित दीवार पर टेक लगाये, सर झुकाए नीचे वहीँ फर्श पर बैठा है। उसके हाथ से गिर कर कटोरा उल्टा पड़ा है और काफल बिखरे पड़े हैं।