Thursday, August 29, 2013

"मिठास काफल की"


फोर्टिस हॉस्पिटल करोल-बाग
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 मैं ओ. पि. डी. से अपना रैगुलर चैक-अप करवा कर निकला ही था कि मेरी नज़र ऑपरेशन थिएटर के बाहर बैठे एक restless शख्स पर पड़ी, साथ ही में एक स्टील का कटोरा रखा था और "ये क्या इसमें तो काफल हैं, मैं देखते ही समझ गया की शख्स पहाड़ी था।" आँखों पर बड़ा सा चश्मा, लम्बे लम्बे बाल, घनी भरी मूछें। उम्र लगभग मेरे ही बराबर रही होगी पर उसकी छवि किसी बुद्धिजीवी सरीखी थी। कांपते हाथों से अपनी डायरी पर कुछ लिख रहा था, पैर लगातार हिल रहे थे, जूते बिखरे पड़े थे और पैरों की बदबू पूरे हॉस्पिटल पर छिडके गए फ्रेशनर पर हावी थी। समस्या गहरी ही नज़र आ रही थी।  हालाँकि साइंस से मेरा दूर दूर तक का कोई नाता नहीं है फिर भी मैंने उस शख्स के वक्तित्व में एक चुम्बकीय शक्ति को महसूस किया और उसे परेशान किये बिना ही उसके पास जा कर बैठ गया। दिल में हज़ारों सवाल थे पूछने को पर हिम्मत जुटा पाना मुश्किल हो रहा था। उसने एक नज़र मेरी तरफ देखा और फिर अपनी डायरी में कुछ लिखने लगा। मैं खुद पर काबू न रख सका और पूछ बैठा " क्या हुआ आप बहुत परेशान लग रहे हैं??"
उसका रिएक्शन मेरी सोच से बिल्कुल विपरीत था। वो हड़-बड़ा के मुझसे बात करने लगा, अचानक ही उसकी ऑंखें छलकने लगी और आंसुओं में लिपटे हुए उसके गीले शब्द मेरे कानों तक पहुंचे। कई रातें रोया था शायद, आवाज़ की क्लैरिटी गायब थी, उसमे खरांश नज़र आ रही थी, मुझ पर "काफलों" का क़र्ज़ चढ़ा है, आप नहीं जानते होंगे की ये काफल क्या बला है, पहाड़ी फल है ये" कह कर वो रोता हुआ बाहर चला गया। काश वो मुझे बोलने देता की मैं भी एक पहाड़ी हूँ और काफल की मिठास खूब समझता हूँ, तो शायद यूँ उठ कर चला न जाता बल्कि मुझे अपनी पूरी बात बताता। 
लेकिन मैं असमंजस में पड़ गया कि क्या माजरा है, "ये काफल कैसे किसी भी परेशानी की वजह हो सकती है, और ये कैसा क़र्ज़ है काफलों का??
ये बात मेरी समझ से परे थी, पर फिर भी मैं बिना जाने नहीं रह सकता था। अन्दर कौन था जिसका ऑपरेशन चल रहा था। उसका उस मुछों वाले शख्स से क्या सम्बन्ध था, और अगर था तो वो शख्स पेशेंट से ज्यादा काफलों की वजह से क्यूँ परेशान था?"

तभी मेरे बगल वाली कुर्सी पर जिस पर वो मुछों वाला शख्स बैठा था एक अधेड़ उम्र के सज्जन आ कर बैठ गए। उन्होंने मेरे चेहरे की मुद्राएँ बखूबी पढ़ ली थी। वो मेरी उलझनों और सवालों से भी रूबरू थे। थोड़े परेशान लग रहे थे पर मुझसे कहने लगे की "तुम जिसके बारे में सोच रहे हो वो "अमित रावत" है नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में ड्रामेटिक आर्ट्स पढ़ता है, पांच किताबें छप चुकी हैं अब तक और हर मंगलवार को हिन्दुस्तान टाइम्स में उसका फीचर लेख छपता है।" जैसा मैंने सोचा था ठीक वैसा, एक बुद्धिजीवी। एक कलाकार, एक पत्रकार। अब मेरे भीतर की दुविधा और भी विकराल रूप ले रही थी, की इतने बड़े कलाकार पर एक काफलों का क़र्ज़ है?? मैंने सुन रखा था की रंगमंच और कहानियों से जुडा हुआ शख्स अक्सर थोडा हिला हुआ होता है, मेरा मतलब है नार्मल नहीं होता, इसलिए शायाद जहाँ नार्मल लोग पैसों के क़र्ज़ को भी सीरियसली नहीं लेते वहीँ अमित रावत जिसके किसी सम्बन्धी का ऑपरेशन चल रहा है वो अपने काफलों का क़र्ज़ चुकाने के लिए परेशान है??
मैं अपने ही ख्यालों में उलझता जा रहा था, तभी उस सज्जन ने पूछा क्या हुआ, किस सोच में पड़ गए। ना न…मगर, वो काफ…काफ़ल क्या बला है?? और अन्दर ये ऑपरेशन किस का चल रहा है?? मैंने हड़-बड़ा के पूछ लिया। ठीक है ठीक है बताता हूँ, पहले ये बताओ की तुम रहने वाले कहाँ के हो?? शक्ल से तो पहाड़ी ही लग रहे हो?? मैंने झट से कहा "हाँ, मैं पहाड़ी ही हूँ, रानीखेत का रहने वाला हूँ।"
वो गंभीर स्वर में बोले बहुत अच्छा, तुम तो घर गाँव के ही आदमी हो, नाम क्या है तुम्हारा, मैंने बताया "मुकेश चन्द्र पाण्डेय" अच्छा ब्रामण हो, तो ठीक है, सुनो पाण्डेय जी अब मैं तुम्हे इन काफलों के क़र्ज़ की कहानी सुनाता हूँ।" उन्होंने दर्द भरी आवाज़ में कहा। लेकिन ये..ये अन्दर ऑपरेशन किस का हो रहा है??" मैंने पूछा।
बताता हूँ, बताता हूँ पहले काफालों की कहानी सुनो।" मैं हेरत में पड़ गया की यहाँ सारे सनकी तो नहीं है किसी को भी पेशेंट की नहीं पड़ी, सब को काफल की चिंता है, खैर मेरे कौन से घर के हैं सुन लेते हैं कहानी।

फ्लैशबैक
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आज से लगभग १२ साल पहले की बात है, जून का महिना था… ठीक से याद नहीं पर हाँ शायद जून की दो या तीन तारीख रही होगी, साल याद है "२००२", रात के लगभग ९.०० बजे थे, अमित अपने माता-पीता के साथ आनंद विहार बस अड्डे के उत्तराखंड सेक्शन पर खड़ा दिल्ली से गनाई जाने वाली बस का इंतज़ार कर रहा था। (गनाई उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा डिस्टिक में एक बहुत खूबसूरत जगह है जो अमित के गाँव रानीखेत से ५० किलो मीटर आगे पड़ती है) 
"बस" आने में अभी आधा घंटा बाकी था, पर आस-पास अच्छी खासी भीड़ जमा हो गयी थी, सामानों से लदे हुए लोग, दो या तीन बैग, बड़े बड़े सूटकेस, दो चार बक्से व बिस्तर बंद आदि। ऐसा लग रहा था मानो शहरों की भीड़-भाड़ से तंग आ कर हमेशा हमेशा के लिए अपने पहाड़ों पर लौट जाना चाहते थे। पर ऐसा नहीं था, शहरों की तरफ रुख कर चुके वो सभी लोग जो अब शहरों के ही प्रोडक्ट हो चुके हैं, एक अर्जे पहले आँखों में हज़ारों सपने लिए निकल आये थे पहाड़ों से, आज शहरों की भीड़ में अपने सपनों को भींचे सिर्फ जीवनयापन के लिए जीविका जुटाने में ही लगे रहते हैं और अपना पूरा जीवन शहरों की बड़ी बड़ी इमारतों को गिरवी रख देते हैं। कभी जो अकेले निकले थे घर से आज लगभग उन सभी पहाड़ियों के एक दो शहरी बच्चे हो गए हैं, जिन्होंने न वो घर देखा है, न वो पहाड़, न वो स्वछंद बहती नदियाँ, न वो बादल और नो वो रीति-रिवाज़। जैसे ही उन पहाड़ियों के शहरी बच्चों को स्कूलों से दो महीने की छुट्टी मिलती है तो पूरे साल की अपनी कमाई से जोड़े हुए पैसें थाम, अपने शहरी टुट-पंजे अफसरों से १०-१५ दिन की मोहलत मांग कर अपने घर-पहाड़ के लोगों से मिलने चले देते हैं। 
खैर मैं पहाड़ियों की बेचारगी के किस्से सुनाने लगा, आगे सुनो "बस" आने में अभी आधा घंटा बाकी था, पर आस-पास अच्छी खासी भीड़ हो गयी थी, सामानों से लदे हुए लोग, दो या तीन बैग, बड़े बड़े सूटकेस, दो चार बक्से व बिस्तर बंद आदि। 
पूरा सेक्शन पहाड़ियों से भरा हुआ था, हर तरफ कुमाउनी शब्द लहरा रहे थे,  पहाड़ों के इतने परिवारों को एक साथ देखना मन मोहक था। 
कुछ लोग अपने बच्चों को पानी की बोतल, बिस्कुट के पैकेट, और मूंगफलियाँ ला कर दे रहे थे, तो कुछ जो अकेले थे कोने में खड़े सिगरेट फूँक रहे थे। कुछ अपने सामान पर बैठे "बस" आने का इंतज़ार कर रहे थे, और कुछ टिकट खिड़की पर टिकट कटवा रहे थे। दुकानों में निरंतर बजते पहाड़ी गीत, अर्जे पहले अपने घरों से बिछड़े इन लोगों के सयम की दुगुनी परीक्षा ले रहे थे। आनंद विहार बस अड्डे का माहोल बिल्कुल किसी पहाड़ी कौथिक के जैसा था। 
अमित चुप-चाप सब कुछ देख रहा था, नवीं क्लास में पढने वाला १४ साल का अमित एक गंभीर और विचारक लड़का था। सामान्य कद-काठी वाला, पतला-छरहरा। उसके चेहरे पर तेज़ व होठों पर मुस्कान देखते ही बनती थी। बहुत छोटी उम्र से ही उसके विचारों में बहुत गहराई आ गई थी, चीज़ों की तह तक जाना उसकी आदत थी, और राह में अनेक लोगों को ऑब्जर्व करना उसका शौक। थोडा सेंसिटिव और इमोशनल भी था। जहाँ उसकी उम्र के बाकि बच्चे हो-हल्ला मचाते थे, अमित हर वक़्त अपने पास एक डायरी रखता व दिन रात के छोटे छोटे अनुभवों को उस पर उतारता रहता, वो कहीं भी जाता अपनी डायरी हर वक्त अपने साथ रखता था, आज भी वो डायरी उसके बैग में ही थी, अमित को कवितायें लिखने का भी शौक था, हालाँकि बिगड़ी तुक-बंदी व कमज़ोर वोकैबुलारी होने की वजह से उसकी कवितायें बहुत साहित्यिक नहीं थी पर भावों से परी-पूर्ण रहती थीं। इन चौदह सालों में वो लगभग हर साल अपने गाँव जाता रहा था। और इस साल भी उसकी आँखों में ये ख़ुशी साफ़ झलक रही थी। काफी excited था। 
हालाँकि उसे भी वहां के रीति-रिवाजों व संस्कृति की ख़ास नॉलेज नहीं थी पर घर में उसके माता-पिता ने एक पहाड़ी माहोल बना रखा था जिस कारण उसे बहुत सी चीज़ों का ज्ञान था। वह कुमाउनी बोल तो नहीं पता था हाँ मगर समझ जरुर लेता था। पहाड़ों की भट की चुरकाणी, गहौत की दाल व बाल मिठाई उसे बहुत पसंद थी। काफालों का तो वो दीवाना ही था। उसका पहाड़ों से एक लगाव सा हो गया था। वहां का शांत माहोल उसे दिल्ली की भीड़-भाड़ से कई गुना ज्यादा लुभाता। और वहां उसने कई दोस्त भी बना लिए थे। वह जानता था की गाँव में चीज़ें मिलना बहुत दुर्लभ होता है इसलिए वह अपने दोस्तों के लिए क्रिकेट का बैट-बॉल व चोक्लेट इत्यादि लेकर जाता था। वह पूरे साल गर्मियों का इंतज़ार करता रहता और वहां उसके दोस्तों का भी पूरा साल इंतज़ार में ही बीतता था। 

अमित पास की दूकान में बैठा बस का इंतज़ार ही कर रहा था की उसकी माँ से उसको पुकारा " ऐजा अमितु, ऐगे गैड़, जल्दी कर भर ज्याल, पजै शीट नि मिलेल हमुकें। बहुत्ते दूर जाण छु (आजा अमित, आ गई गाडी, जल्दी आ, भर गयी तो सीट नहीं मिलेगी हमें, बहुत दूर जाना है)। "
ये सुनते ही जैसे अमित के अन्दर एक बिजली की सी तीव्रता आ गई थी, वो फटाफट दौड़ पीछे वाली सीट पर जा कर बैठ गया। उसके माता-पिता आगे वाली सीट पर बैठे थे। बस चल पड़ी। 
अमित क्रिकेट बैट को सीट के नीचे रख, अपने ख्यालों की दुनिया में रानीखेत के द्रश्य उकेरने लगा। रानीखेत अभी भी लगभग २५० किलो मीटर व १२ घंटे दूर था, उसके सब्र का बांध टूट रहा था, वह अपने दोस्तों से मिलने के लिए बेचैन था। और इस ही बेचैनी भरी निगाहों से पूरी रात रास्ते की सभी दुकानों, पेड-पोंधों को निहारते-निहारते कब उसकी आँख लग गयी उसे पता भी न चला। 

सुबह ७ बजे का वक़्त था, गाडी पहाड़ों की पतली सड़कों पर दौड़ रही थी, अमित की आँख खुली तो पाया की बड़े-बड़े पहाड़ उसके इस्तेकबाल में साथ साथ बढ़ते चले जा रहे थे, हवाओं संग झूमते पेड़ों की सर-सराहट किसी मुग्ध कर देने वाले संगीत से कम न थी, दूर पहाड़ों के पीछे से निकल कर सूरज ने अपनी किरणे अमित के रास्तों पर बिछा दी थी। वह तरो-ताज़ा महसूस करने लगा, पहाड़ों की यही खूबसूरती थी जिसका अमित कायल था। अमित ने एक अंगडाई भरी और पाया की उसके माँ-बाबूजी नमक लगी पहाड़ी ककड़ी का स्वाद उठा रहे थे। पहाड़ों के बीच पहुँच अमित अत्यधिक रोमांचित हो उठा। तभी गाडी नैनीताल जिले के "गरम पानी" बाजार पर रुकी। अमित को सब कुछ याद आ गया हर साल जब गाडी यहाँ रूकती थी तो उसके बाबूजी सबके लिए वहां का सबसे स्वादिष्ट पहाड़ी ककड़ियों का रायता और पकोड़ा लेकर आते थे, वही सुबह का नाश्ता हुआ करता था, उसने देखा की आज भी बाबू जी खिडकी से तीन प्लेट उसकी माँ को पकड़ा रहे थे। वह उछल पड़ा, उसे पहाड़ी खान पान शुरू से ही बहुत पसंद था। तभी उसके कानों में फल बेचने वालों की आवाजें गूंजने लगी, उसे टोकरी में रखे आडू, सुर्ख लाल पूलम व खुमानी दिखाई पड़े। पर उसकी उत्सुक नज़रें कुछ और ही ढूंढ़ रही थी, उसने सभी फल वालों की टोकरी को झांकते हुए अपने बाबू जी से पूछा की "बाबूजी, आज यहाँ काफल क्यूँ नहीं दिख रहे??" उसके बाबूजी जानते थे की अमित को काफलों की ही तलाश थी, मगर उन्होंने शांत स्वर में जवाब दिया की बेटा इस बार काफल नहीं मिलेंगे, फसलें ख़राब हो गयी हैं" उसका खिला हुआ चेहरा एक दम मुरझा गया। अमित को काफल खूब पसंद थे, हर बार यहाँ से खूब सारे काफल दिल्ली ले जाता और कई कई दिनों तक खाता और दोस्तों को भी खिलाता। पर इस बार ऐसा नहीं हो सकेगा, ये सोच कर वो निराश हो गया। 

अमित को गाँव पहुचें पांच दिन हो गये थे और वह गाँव की मिट्टी में पूरी तरह रम चुका था। अपने साथी दोस्तों के साथ गाय चराने जाता, वहां क्रिकेट खेलता, दूर नौलों से पानी सार के लाता, और रात को अपने चाचा की बेटी जो वहीँ गाँव में रहती थी उसे पढ़ता। सभी गाँव वाले अमित के व्यवहार से बहुत खुश थे। अमित सभी को अपनी लिखी हुई कवितायें सुनाता और खूब तालियाँ बटोरता। एक दिन रात को खाने के बाद, अपने रिश्तेदारों के लगातार आग्रह करने पर वह कविता सुनाने के लिए राज़ी हो गया पर इस बार उसने एक कंडीशन रखी कि अगर उसकी सुनाई कवितायेँ उनको पसंद आये तो वे केवल ताली न बजाएं बल्कि उसके लिए एक सेर काफल ले कर आयें। गाँव वाले निराश हो गए, इस बार असाधारण बारिश और डाव पड़ने की वजह से काफलों की फसल बिल्कुल उजड़ गयी थी। सुनने में तो यहाँ तक आ रहा था की इस बार "घिंगारीखाल(काफलों की सबसे स्वादिष्ट व अच्छी उपज वाला स्थान)" में भी काफल नहीं मिल रहे थे। सभी लोग स्तब्ध थे, वे अमित को निराश नहीं करना चाहते थे पर ये बात उनके वश से बहार थी, तभी गाँव के किशन लाल(अमित के दूर के चाचा) के बेटे भानु जो अमित का बहुत अच्छा दोस्त भी था, उसने अमित को विश्वास दिलाया की वो जरुर अमित को काफल ला कर देगा, यह सुन कर सारे गाँव वाले हैरान थे और अमित बहुत खुश।  

अगली सुबह करीब ५.३० बजे थे, अभी पूरी तरह अँधेरा भी नहीं छठा था, की अमित के दरवाज़े पर एक दस्तक हुई, अमित की माँ ने दरवाज़ा खोला तो देखा की भानु अपने हाथों में डेढ़ सेर काफल लिए अमित को पुकार रहा था।  माँ ने अमित को जगाते हुए कहा "अमितु उठ धीं देख तयर दगडी ऐरौ भानु, ते लिजी काफौ लैरौ, ओ ईजा कतु भल हैरिं यौं लाल ए-दम(अमित उठ देख तेरा दोस्त आया है भानु तेरे लिए काफल भी लाया है, माँ-जी कितने अच्छे हो रहे हैं ये लाल एक दम)" ये सुनते ही जैसे अमित के कान खड़े हो गए और वो झट से उठ बैठा, भानु के हाथों में काफल देख कर जैसे उसकी आँखें चमक गयी थीं। वह बार बार भानु का धन्यवाद कर रहा था और काफल चख रहा था। अमित के ये पूछने पर की जब फसल बिल्कुल उजड़ गयी थी तो भानु ये काफल कहाँ से लाया??
तो भानु ने जवाब दिया की जब अमित हमारे लिए शहर से नयी नयी बॉल, चॉकलेट ला सकता है तो क्या वो अमित के लिए काफल तक नहीं ला सकता था। ये बात अमित के दिल में बहुत गहरे रूप से घर कर गयी, अमित इमोशनल हो गया, लेकिन फिर भी वो जानना चाहता था की भानु को ये काफल कहाँ से मिले। मगर भानु ने बताने से इन्कार कर दिया और कहने लगा "इन काफलों का क़र्ज़ है तुझ पर ये दोस्ती कभी न टूटने पाए।" भानु ने अमित को काफल दे कर मित्रता के प्रति अपनी सच्ची श्रधा को सिद्ध किया, और अमित ने उस ही शाम उस किस्से को अपनी डायरी में लिख कर अमर कर दिया।।

ऑपरेशन थिएटर के बाहर वाले बेंच पर
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अब बारी अमित की थी, दो तीन साल बाद बारवीं करते ही ग्रेजुएशन में दाखिले के बाद अमित का गाँव जाना ना बराबर हो गया। शुरू से ही कला-साहित्य का शौक रखने वाले अमित ने कॉलेज नाटकों में शरीख होना शुरू किया और अपनी काबिलियत के बूते पर मास्टर्स इन ड्रामेटिक आर्ट्स करने के लिए नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा चला गया। वहीँ भानु ने गाँव से १.५० किलो मीटर दूर एक दूकान खोली, दूकान क्या थी जुए-शराब का अड्डा। 
पहाड़ों के साथ ये एक बहुत दुर्भाग्य की बात है की कुछ पहाड़ी तो अपने सपने को पूरा करने के लिए वहां से शहरों की तरफ पलायन कर देते हैं और जो बाकी वहां रह जाते हैं, बुरी संगत में पड़ कर अपना सब कुछ बर्बाद कर लेते हैं। मैं ऐसा नहीं कहता की सारे बिगड़ जाते हैं, पर भानु बिगड़ चुका था, दिन भर जुआ खेलता, रात को शराब पीता और पूरे गाँव में शोर शराबा, लडाई झगडा करता रहता। लेकिन अमित की दोस्ती के लिए आज भी उतना ही इमानदार था। शराब पी कर सबसे कहता कि मेरा एक दोस्त है अमित जो दिल्ली रहता है बहुत बड़ा कलाकार बन गया है, बहुत फेमस हो गया है। लेकिन वो मुझे नहीं भूल सकता, उस पर क़र्ज़ जो है मेरे डेढ़ सेर काफलों का। अमित, जैसा की मैं पहले ही बता चुका हूँ एक बहुत सेंसिटिव लड़का है और उसने डेढ़ सेर काफलों के क़र्ज़ को अपने दिल से लगा लिया है। भानु की हालत देख कर हमेशा उसको शराब न पीने की सलाह देता, कई बार उसको दिल्ली बुला चुका था कह कर की उसकी एक अच्छी सी नौकरी लगवा देगा। दो चार महीने में भानु को कुछ रूपये भी भिजवाता रहता मगर भानु पर बुरी संगत का रंग चढ़ चुका था। और धीरे-धीरे उसकी तबियत ख़राब होने लगी। रानीखेत हॉस्पिटल में दिखाया तो पता चला की उसका लीवर पूरी तरह ख़राब हो चुका है और वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। ये बात सुनते ही जैसे अमित के पैरों तले से ज़मीं खिसक गयी थी। वो भानु को दिल्ली ले आया। 

मैंने टोकते हुए पूछा "तो क्या अन्दर जिसका ऑपरेशन हो रहा है वो भानु है??" तो सज्जन ने जवाब दिया "नहीं भानु दो साल पहले ही मर चुका है।"
ये सुनते ही मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। मैं सोचने लगा की कैसे कोई भी बुरी लत आपका जीवन ही ख़त्म कर देती है। मगर फिर मैंने होश संभाला और पूछा "तो अन्दर कौन है? और अब जब भानु ही नहीं रहा तो अमित आज भी काफालों के क़र्ज़ से इतना परेशान क्यूँ है??" 
तो वे सज्जन एक दम खड़े हुए और कहने लगे कि भानु की मौत का अमित को गहरा धक्का लगा है, अमित बहुत सेंसिटिव लड़का है, और एक बहुत अच्छा दोस्त भी, आज से ठीक दो साल पहले इस ही ऑपरेशन थिएटर में बीच ऑपरेशन भानु की मौत हो गयी थी। मगर अमित भानु की मौत को accept न कर सका और सदमे में आ गया। महीने दो महीने में जब भी उसे भानु की याद पागल कर देती है तो डेढ़ सेर काफल जो उसने दो साल पहले भानु के लिए मगवाये थे पर दे न पाया, हाथों में लिए यहाँ आता है रो रो कर यही कहता है की मुझ पर इन काफलों का क़र्ज़ बाकी है। 

"अब ना इन काफलों में मिठास ही बाकी है और ना भानु!!"

मैं ये सुन कर स्तब्ध रह गया था, मेरी आँखों से आंसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं आया तो यहाँ अपना चैक-अप करवाने था लेकिन अमित का गम अपने दिल में लिए जा रहा था। मुझमे अमित और भानु दोनों के लिए एक अजीब सी हमदर्दी पैदा हो गयी। अचानक ही ये दोनों मुझे मेरे अपने दोस्त नज़र आने लगे। मैंने आँखों से आंसू पोछते हुए सज्जन से पूछा कि "क्या आप अमित के बाबूजी हैं??" "नहीं मैं उस अभागे भानु का बाप हूँ "किशन लाल" जिसने एक सच्चा दोस्त तो कमाया लेकिन बुरी लत और संगत की वजह से एक अच्छा जीवन न कमा पाया।" कह कर वो फूट-फूट कर रोने लगे। मैं उन्हें वहीँ रोता हुआ छोड़ कर बाहर निकल आया, और करता भी क्या जिसने अपने से आधी उम्र का बेटा खोया हो उसे क्या सांत्वना देता?? 
मैं जैसे ही बाहर निकला तो देखा की अमित दीवार पर टेक लगाये, सर झुकाए नीचे वहीँ फर्श पर बैठा है। उसके हाथ से गिर कर कटोरा उल्टा पड़ा है और काफल बिखरे पड़े हैं।
मैं उसको अकेला छोड़ कर वहां से चल दिया लेकिन उसका थोडा दर्द संग ले आया था।

Sunday, August 18, 2013

"सआदत हसन मंटो" पार्ट-2


"सआदत हसन मंटो" ये शख्सियत मेरे दिल-ओ-दिमाग पर हिना के लाल रंग सी चढ़ी हुई है, सुर्ख और पुर-पक्की। यूँ तो मंटो को मरे कई ज़माने बीत गए लेकिन उसके ये शब्द "हो सकता है कि सआदत हसन मर जाये मगर मंटो हमेशा जीता रहेगा।" हर वक़्त यह एहसास दिलाते हैं कि वो खुद को किस हद तक पहचानता था, उसके पास अपने लिखे हर एक हर्फ़ का पूरा हिसाब था व उसे इल्म था कि उसकी लिखी कहानियां न केवल उसके वक़्त का ज़हीन सच बल्कि इतिहास के सन्दर्भ में आने वाली नस्लों के लिए एक ठोस व विस्तृत ब्योरेवार होने जा रही थीं।
मंटो को पढ़ना कभी न ख़त्म होने वाली एक लत है, उसकी बातें किसी संक्रमण सरीखी व ख़्यालात रगों में बहते लहु जितने गाढें जो धीरे-धीरे पढ़ने वाले की आँखों के रस्ते लबों को छू कर दिल में उतर जाते हैं। उसकी तहरीरें पढने वाले की रूह अन्दर तक बस जाती है और वह चाह कर भी मंटो को नहीं भुला पाता। मंटो की कहानियों के किसी भी किरदार से कभी हमदर्दी नहीं महसूस होती, बल्कि समाज और अपने आप पर तरस आता है और शायद कहानी लिखने के पीछे मंटो का उद्देश्य भी यही रहा होगा।
उसकी कहानी में कई वक़्त एक साथ दौड़ते नज़र आते हैं और उसको पढ़ कर कभी धड़कने तेज़ होती हैं तो कभी दिल बैठ जाता है, मगर उसका कोई भी कलाम अधूरा नहीं छोड़ा जाता।
मंटो समकालीन न होते हुए भी उसे पढ़ते हुए महसूस होता है जितना मैं उसके प्रति जिज्ञासा रखता हूँ व पढना चाहता हूँ, उससे कहीं बेहतर वो मुझे समझता है। उसे न देखे हुए भी वो एक दोस्त नज़र आता है, ऐसा दोस्त जिसका कसा हुआ एक-एक जुमला या फब्ता भी परत अन्दर तक चिंगोट देता है और वो चुभन लम्बे अरसे तक ज़हन में ही तैरती रहती है। उसकी लिखी हर एक कहानी मुझे अपने आपसे मिलवाती है और शायद यही तर्क है कि मैं उससे जुडी हर चीज़ से मुखातिब होना चाहता हूँ। हर एक चीज़ जो मंटो कहता है या सोचता है उसे मकबूल करता हूँ।
और हो भी क्यूँ न, मंटो एक स्पष्टवादी व खुले विचारों वाला एक साधारण सा बल्कि यूँ कहें कि पागल सा दिखने वाला पर एक असाधारण विचारक था। मंटो की लेखनी, उसकी शैली उसे हमेशा एकाकी रखती है। वह बहुत आम होते हुए भी ख़ास था। उसका अनूठा द्रष्टिकोण व मार्मिकता उसे उसके जानिब बहुत सारे कथाकारों से अलग करती है।
उसे अपने आस-पास होने वाली सभी क्रियाएं साफ़ साफ़ नज़र आती थीं। एक सामान्य सी जिंदगी जीने वाली एक ग्रहणी से कहीं ज्यादा उसे सड़कों व चकलों पर जिस्म बेचती वेह्श्याओं पर अधिक हमदर्दी महसूस होती और उसका चित्रण भी वो बिल्कुल सटीक व स्पष्ट किया करता था। वह समाज में छुपे हुए नंगेपन को बिल्कुल बेशर्मी से समाज के आगे रख देता तो उसे अश्लील लेखन व कानून की खिलाफत करने का कुसूरवार समझा जाता और कई बार तो इस बाबत उसे अदालतों में भी घसीटा जाता था। मात्र 43 साल के अल्प जीवन में मंटो की लगभग पांच कहानियों पर कोई उतने ही मुक़दमे ठोके गए, परन्तु उसकी खुली कहानियां उसके जबरदस्त प्रतिरोधक विचार-धारा का स्पष्ट प्रमाण थी।
मंटो की बातें समाज का आईना मालूम होती हैं। ज़ाहिर है कि या तो वो समाज को बिगाड़ रहा था या समाज ने उसे इतना बिगाड़ दिया कि वो ढीठ हो गया, अब उसका ये ढीठपना उसकी तहरीरों में भी नज़र आने लगा। उसकी निहायत ही तीखी व बे-पर्दा बातें जैसे हर वक़्त समाज का पैरहन उधेड़ने को तैयार रहती और समाज के सभ्य और बड़े-बड़े सफ़ेद पोशों की गर्दन पर उस्तरे की तरह टिकी रहतीं थी। मंटो जानता था कि वो क्या कर रहा था इस लिहाज़ से उसके अंदाज़ को मैं एक क्रांति का नाम दे सकता हूँ। एक ऐसा क्रांतिकारी जो कुछ बदलना नहीं चाहता था बल्कि जो हो रहा था उसका एक लिखित दस्तावेज़ समाज को सौंप देता। वो एक ऐसा डॉक्टर था कि जिसके पास कोई दवाई या इलाज़ नहीं था, बस वो नब्ज़ जांच कर बिमारी बताता और सचेत करता रहता। उसकी कहानियां एक थर्मा-मीटर की तरह समाज में फैले बुखार को नापती रहतीं और हिदायत देती रहती कि पारा बहुत ऊपर तक जा पहुंचा है।
मंटो ताउम्र अपनी मंजिल से न आशना हस्ब-ए-आदत बस लिखता रहा। मुफलसी का लिबास ओढे पुर-उम्र खूब हर्फ़ बांटता रहा। उसकी तबियत में एक उपज थी जो ज़ाहिर है उसे हर वक़्त खुरचतीं रहती।
मंटो बेख़ौफ़ किसी भी नतीजे की परवाह किये बगैर अपनी कलम चलाता और समाज में फैलीं बुराईयों के काले कसीदे लिखता रहता। मंटो एक नायक नहीं बल्कि खलनायक था, उसकी दिलचस्पी में कभी भी किसी खूबसूरत चीज़ पर लिखना नहीं बल्कि, ना देखा जा सकने वाला, भद्दा व समाज का वो बदबू-नुमा कूड़ा-करकट था जिससे कि उस दौरान के सभी अफसाना-निगार व बड़े-बड़े सुखनवर भी किनारा कर जाते थे। बकौल मंटो वो अँधा नहीं था और जो भी उसकी नज़रों के गिर्द बदनुमा और गिरा हुआ हो रहा होता, वह उसको अपने शब्द देता और सब अच्छा अपने हम-शायरों व कहानीकारों के लिए छोड़ देता। इस जानिब मंटो की कलम अपने खाविंद द्वारा छोड़ी गयी उस बीवी की तरह थी, जिसके जिस्म पर उसके खाविंद के बेरहम नाखूनों के निशाँ और पेट में उसकी दरिंदगी का सुबूत था। और जो सब कुछ सह कर भी पेट में पल रहे उस हम-साए को खुद से अलहदा नहीं करना चाहती थी बल्कि जन कर व पक्की परवरिश देकर उसी समाज से लड़ने के लिए छोड़ देती जो कभी उसकी बची हुई चमड़ी नोचा करते थे।
मंटो पक्ष-पात कतई नहीं करता था, उसे गरीबों से हमदर्दी थी, न अमीरों से खटास। वो पानी की मानिंद था, बहता दरिया, जो जिस तरफ बहता राह में सब कुछ समेट लेता। वह उन तालाबों की तरह कअतन नहीं था जो बरसाती-बरसाती उफान मारते और निरी गर्मी में कमज़ोर से सुस्त सूखे मुरझाये रहते। मंटो किसी मौसम का मोहताज़ नहीं था बल्कि सभी मौसम उसकी कलम को पेश-ए-नज़र थे। जहाँ पूरे शहर में लोग बंद आँखें लिए, मुहं को सिये हुए बेचारे से बने घूमते थे वहीँ मंटो बेख़ौफ़ टहलता और अपनी नज़र हर वाकआत पर गड़ाये रखता। उसके लिए कहना बिलकुल माकूल होगा की अँधेरे में रहने से अधिक वह खुद जलकर दुनिया को एक लौ परोसता।
वह तूफ़ान से घबरा कर आंसू बहाने वालों में से नहीं था बल्कि तेज़ हवाओं की दहलीज़ पर अपने चराग रौशन करता था।

Thursday, August 1, 2013

“रेगिस्तान से लौट कर”

किरदारों के सच खुलने लगे थे, कहानी अब न बराबर बची थी। आखिर के पृष्ठ बिन पढ़े भी छोड़ दिए  जाते तो भी कुछ नहीं बदलने वाला था। बुनावट कसी हुई थी इसमें कोई दोराय नहीं परन्तु अब जिज्ञासा धूसरित हो चुकी व रेशे खुलने लगे थे। कहानी चरमोत्कर्ष पर लड़खड़ा गयी थी  भ्रम, उत्सुकता, व विस्मय पंक्तिबद्ध चलने वाली चीटियों की टोली सरीखे जो कहानी के शब्दों के साथ लगातार कदम ताल कर रहे थे, एकाग्रता भंग होते ही अचानक टेढ़ी-तिरछी लकीरों में भटकने लगे। पाठक ऐसा अंत नहीं चाहता था। वह अधीर हो उठा। उसने पीछे कई कहानियां पढ़ी थीं परन्तु यह कहानी विशिष्ट थी। यह पहली किरदार थी जिसकी जीवित छवि पाठक की कल्पना के बुलबुले से छिटक कर उसके सिरहाने आकर बैठी थी।

उपन्यास में सिर झुकाये नीले लिबास में बैठी वह उदासीन लड़की, रेगिस्तान से सटे एक शाही शहर में डेरा डाले हुई थी। कई मोहक वाद्य यंत्रों की कर्णप्रिय ध्वनियों, सधे हुए स्वरों में लम्बे अलाप भरतीं वे प्रौढ़ आवाज़ें, दूर तक फैले वे विस्तृत किले, गुलाबी हवाओं के छिद्रों वाले महलों का देस। सैलानियों की भीड़, रंगों की चकाचौंध के बीच एक असहाय सन्नाटे में गुम वो कोमल देह लम्बे अरसे से ज़हर वाले रंग की गिरफत में उलझी हुई थी। चूँकि कहानी अपनी लय में चल रही थी इसलिए पाठक को इसका कोई बोध नहीं था। एक दिन उनींदा आँखों से जैसे ही पाठक ने किताब को मूंदना चाहा हठात एक विचित्र घटना घटी।  कहानी के गुलाबी हिस्से से नाज़ुक स्वर में एक संवाद किताब से फिसल कर बाहर आ निकला।
" कैसे हैं आप?"
वह जादुई आवाज़ पाठक के कानों में कुछ इस तरह से घुल गयी जिस तरह कच्चे सरसों के तेल की तासीर। पाठक अचंभित हो उठा।  अँधेरे से भरे हुए उस खाली कमरे में वे तीन शब्द निरंतर गूंजने लगे जैसे पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पे चढ़ के किसी पहाड़न ने दूर देस में बसे अपने प्रेमी की तरफ उसकी खैरियत के बायस कुछ फूल उछाले हों व देखते ही देखते उनकी सुगन्ध पूरी फ़िज़ा में तैर गयी हो। और अब पूरा कमरा भी मुग्ध कर देने वाली एक विचित्र सुगंध से भर गया था। पूरब की तरफ मंदिर में प्रज्वलित दीप की लौ उत्कट हो उठी व पाठक के चेहरे पर का आलोक उदित हो गया।

उसकी नींद भरी आँखें अब चंख हो चुकी थीं। पाठक ने आश्चर्य से जैसे ही किताब को पुनः खोला उसके सभी छवि चित्र जिवंत हो उठे। उसने कभी स्वप्न में नहीं सोचा था कि जो कहानी वह पढ़ रहा था, अचानक उसके साथ घटने लगेगी। दूर समंदर किनारे बैठा हुआ वह जिस कश्ती को लहरों पर हिचकोले खाते देख रहा था, उसने पाया कि अचानक वह भी उसका ही एक सवार था।
पाठक अभी पूर्व से बाहर भी न आ पाया था कि एक और विस्मय अनुगमन करता हुआ उस तक आ पहुंचा। रुआंसी आवाज़ में एक बार फिर किरदार ने पाठक को पुकारा-

"
सुनिए क्या आप मुझसे बात करेंगे। मुझे अकेले डर लगता है, यहाँ इस अनंत सन्नाटे ने जाने कब से मेरी गर्दन जकड़ी हुई है व मेरा अकेलापन मुझे खुद में सोख लेने को आतुर है। न जाने मुझे क्या हो गया है, मुझे डर है........" 

और वाक्य पूरा किये बिना ही किरदार फूट फूट कर रोने लगी।
जैसे संभल पाना उसके बस में ही न हो या फिर वह सम्भलना चाहती ही न हो या वह रो न रही हो बल्कि खुद को खाली कर रही हो, जैसे वह रुदन क्षणिक न हो के कई बरसों का मलाल हो या फिर एक लम्बी अवधि से चले आ रहे शुन्य ने अपना रिसाव ढूंढ लिया हो। पाठक अब भी आश्चर्य में ही डूबा हुआ था। उसने अपनी आँखें मसली व खुद को बायीं बाहं में एक तीक्ष्ण चिंगोटी काट कर पुष्ट किया कि वह स्वप्न नहीं था। और अब यहाँ से पूरी कहानी यथार्थ के धरातल पर अभिनीत होने जा रही थी। 

किरदार की आवाज़ में ऊंठों की सी लचक थी, उसका रुदन शक्कर में पगाया गया महसूस हो रहा था, उसके कंठ से निकला हर एक शब्द बड़ा हल्का परन्तु छटपटाया हुआ था। आवाज़ से हट कर जैसे ही पाठक की नज़र किताब में छपी किरदार की छवि पर पड़ी तो उसके चेहरे की सुन्दर आभा ने पाठक को अविलंब ही अपने वशीभूत कर लिया। परन्तु ये सब इतना तीव्र गति से घट रहा था कि पाठक को कुछ नहीं सूझ रहा था। किरदार का रुदन सुन पाठक का मन विचलित हो उठा। वह उस उदासी में हसीं के हज़ारों ठहाके भर देना चाहता था। उसने किरदार को खुश करने के लिए उसकी ही भाषा का चयन किया व उसे दूसरी किताबों के जो उसने पहले से रट रखे थे संवाद सुनाना शुरू किया। जिस शिद्दत से पाठक किरदार को एक के बाद एक संवाद सुना रहा था किरदार के होंठों पर यकायक एक हंसी तैर उठी और दोनों की खिलखिलाहट साथ घुल दूर रेगिस्तान के उस ज़हरीले सन्नाटे में ख़लल पैदा करने लगी जहाँ एक मायावी अपने घिनौने इरादों के साथ सेंध लगाये सुन्दर कोमल मादाओं को अपने शब्दों के भ्रम जाल में फंसा कर उनमे दुख, अवसाद, कुंठा, निराशा फलत: कुरूपता भरने में व्यस्त था.....!!

पाठक व किरदार की बातें अब ज़ोर पकड़ चुकी थी, लगभग दोनों ही एक दूसरे के आदी हो चुके थे। पाठक अलसुबह किताब खोल लेता व दोनों देर रात तक बतियाते रहते। और एक दिन किरदार ने पाठक से अपनी डायरी का परिचय करवाया जहाँ उसने अपने उदास शब्दों की एक पूरी दुनिया ईजाद कर ली थी। हर एक शब्द झकझोर कर रख देने वाला, हर भाव तीव्र उदासीन, विषादग्रस्त व अवसादपूर्ण। उन शब्दों को पढ़ते ही पाठक के कंठ सूखने लगे, चेहरा पीला पड़ने लगा, रोंगटे खड़े हो गए व पूरी देह में एक कम्पन उत्पन्न हो उठा। 
"आपको क्या दुःख है मुझे बताइये ?
कोई इतना उदास कैसे रह सकता है.. कोई बात तो ज़रूर है। "
किरदार ने पाठक के भाव भांप लिए परन्तु सरपट खिलखिलाते हुए कहने लगी  " हाहाहा। मुझे कोई दुःख नहीं है, मैं बहुत खुश हूँ... बस मुझे उदासियाँ लिखना पसंद है.."
"ऐसा कैसे हो सकता है, उदासीन हम सारे ही हैं। ये पूरी दुनिया ही अवसादों पर आधारित है पर फिर भी कोई बेवजह इतना उदास कैसे रह सकता है.. आप चाहे कुछ न कहें आपका हर शब्द एक अभिव्यक्ति है। चलो शब्दों को नकारा भी जा सकता है पर भावों का क्या?
कोई कैसे इतना उदासीन सोच सकता है जब तक उसके साथ कुछ ऐसा ही न घटा हो। और जहाँ तक मैं जनता हूँ हम सब अपने अनुभव ही लिखते हैं। आप यक़ीनन कुछ छुपा रही हैं... ज़रूर कोई बात है...!!"
 इस बार किरदार के होठों पर हंसी कुछ अधिक तीव्र व दुगनी अवधि के लिए ठहर गयी। " हाहाहा, ऐसा कुछ नहीं है,आप मनोविश्लेषण करने का प्रयास न करें। मैं बहुत खुश हूँ..  सुनिए मैंने आज भी कुछ लिखा है पढ़ना चाहेंगे ??
"बिलकुल।"

कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब इन्हीं रास्तों पर चलते हुए तुम्हारा हाथ छू गया था मेरे हाथ से पल भर के लिए। और मेरी निगाहें शर्मगीं होकर झुक गयी थीं।
शर्म का एक कतरा, तुम्हारा लम्स और वो पल सब धूल में गिरे हुए हैं। आते जाते लोग उन्हें कुचलते हुए गुज़रते हैं। ये कुचली हुई बेजान चीज़ें उन्हें नहीं दिखतीं और न ही खून के धब्बे उन्हें नज़र आते हैं।

पाठक पढ़ते ही कुछ देर के लिए एकदम निशब्द हो गयाउसने एक गहरी सांस भरी और पूछा 
"बहुत अच्छा लिखा है पर ये है कौन? किस के लिए लिखती हैं ये सब ?"
" हाहा ! अरे बाबा किसी के लिए नहीं लिखती कहा न आपको मुझे ऐसा ही लिखना पसंद है। आप खामखाँ ही सोचते रहते हैं।"
किरदार ने धीमे मगर स्नेहपूर्ण लहज़े में उत्तर दिया और पाठक कुछ न कह सका।  किरदार की उदासियों ने दिन-ब-दिन उसके प्रति पाठक की भावनाओं की तीव्रता को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और देखते ही देखते पाठक में किरदार के लिए एक अजीब किस्म का लगाव पैदा हो गया। किरदार को भी पाठक के हलके फुल्के हंसी ठहाकों की आदत पड़ गयी व अब ऐसे ही कहानी आगे बढ़ने लगी।

वक़्त बेसुध दौड़ा चला जा रहा थाऔर अब उन दोनों को मिले हुए एक पूरा मौसम बीत चुका था। बातों के दौर अब भी निरंतर ज़ारी थे।  कहानी अपने अंत की तरफ बढ़ रही थी। ये पहला मौका था जब किसी कहानी से पाठक इतना जुड़ गया था और उसे डर था कि कहानी के अंत के साथ ही वह किरदार उसको छोड़ कर कहानी के देस वापिस लौट जायेगी। वह ऐसा नहीं चाहता था, उसने तय किया कि वह कभी कहानी को पूर्ण नहीं करेगा, इसलिए हज़ार जिज्ञासाओं के बावजूद वह किरदार से ज्यादा जवाब तलब नहीं करता था। वह भ्रम में बने रहना चाहता था व सिर्फ प्रेम करना चाहता था, सिर्फ और सिर्फ प्रेम बिना कुछ सोचे, समझे व जाने। किरदार की उदासी का बयास जानना इतना ज़रूरी नहीं था जितना कि उसकी ख़ुशी का बायस बन जाना। और इसलिए आगत के गर्त में गड़े हुए कई गहन विस्मयों से अनजान पाठक अपने हर संभव प्रयास के साथ किरदार के जीवन में खुशियों के रंग भरने में मशगूल हो गया। यह समय उसके जीवन पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों से दर्ज़ होने जा रहा था.....!!  

लेकिन सब कुछ इत्मीनान से शान्ति बक्श होता रहे और कोई बम न फटे, ये भी कोई कहानी हुई भला। कहानी ऐसी नहीं होती। कहानियां न किरदार के अनुसार घटती हैं न पाठक के। लिखने वाले के हाथ में तो कुछ होता ही नहीं। कहानियां नियति द्वारा संचालित की जाती हैं जो कि अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच कर असर दिखाना शुरू करती हैं। आप ताउम्र भविष्य में घटने वाली घटनाओं का अनुमान लगाते रह जाते हैं परन्तु घटित वही होता है जो जिस क्षण के लिए बाध्य होता है। हर हाल में आपका पाठक होना सुरक्षित होता है, आपको बस कहानी को घटते हुए देखना होता है और दिलचस्पी बनाये रखने के लिए कुछ कुछ कयास लगाने होते हैं परन्तु किरदार होना नियति के हाथ की वह कठपुतली बन जाना होता है जिसके अपने वश में कुछ नहीं होता।  वह चाह कर भी अपने जीवन की बागडोर खुद नहीं संभाल सकता। किरदार जिसके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती दिखती है वह एक कहानी का सबसे विवश तत्व होता है।

और यहाँ भी किरदार कोई अपवाद नहीं थी। एक कोमल विवश, कमज़ोर, हताश, भेद्य, शापित व शिथिल स्त्री जो कि पाठक से मिलने से पूर्व ही एक नीले रंग के मायावी जाल में फसी हुई छटपटा रही थी। रेगिस्तान के रेतीले बयाबान में बसा वह मायावी उसे सम्मोहित कर आपने शाब्दिक जाल में फांस चुका था। वह न चाहते हुए भी उसके मायावी चक्र को भेद कर बाहर नहीं आ पा रही थी। लाख प्रयास कर चुकी थी लेकिन रह रह के उस मायावी के शब्द उसे नाग फांस की तरह बाँध लेते। उनमे इतना सम्मोहन होता कि वह क्षणिक आनंद से भर जाती व मायावी के इशारों पर नाचने लगती। और जब उसे बोध होता तो वह मुक्त होने को अधीर हो उठती। उसने सोच-सोच कर खुद का बुरा हाल कर रखा था। उसके अंतर में एक खोखलापन तैयार हो रहा था। वह घंटों घंटों बिना बत्ती जलाये अँधेरे में बैठी रहती। उसके नज़दीक हमेशा ही एक लौ रौशन रहती जिसकी ताप से वह जब तब खुद के अंग जलाया करती। कभी बेहोश हो गिर जाती तो कभी उलटी साँसें भरने लगती। वह बीमार रहने लगी, अपूर्ण सी, बावली हो भटकती रहती यहाँ से वहां। उस मायावी की याद में उदासियाँ लिखती रहती। और अब देखते ही देखते उसके पूरे शरीर पर ज़हरीले रंग की महीन झाइयाँ भी उग आयीं थी। इतने सब के बावजूद ये एक बात उसने कभी भी पाठक से साझा न की और अकेले ही सब कुछ झेलती रही।

पाठक अब तक पूरी तरह किरदार के प्रेम में डूब चुका था, जैसे जैसे कहानी का अंत निकट आ रहा था उसके चेहरे के भाव बुझने लगे थे। किरदार के ओझल हो जाने का भय उसे दिन-ब-दिन कमज़ोर करता जा रहा था। और अचानक उसने इन दिनों किरदार के व्यवहार में एक अजीब किस्म की खीज व क्षोभ भी महसूस किया। ये कोई शुभ संकेत नहीं थे। पाठक के मन में कई तरह की शंकाओं ने जन्म ले लिया। किरदार के प्रति अब उसकी चिंताएं दुगनी हो चली थी व अकुलाहट बढ़ने लगी थीं। वह अब सब कुछ छोड़ छाड़ के पागलों की तरह घंटो-घंटो किरदार की डायरी के सफ़े पलटने लगा। उसका पूरा-पूरा दिन किरदार की लिखी उदासियों में ही उलझ कर रह गया था। विडम्बना यह रही कि वह उस समस्या का समाधान ढूंढने निकला था जिसका उसे कोई बोध ही न था।

और एक दिन अंतत: अपनी अस्थिर प्रतिबद्धता व अथक प्रयासों के फलस्वरूप वह किरदार द्वारा ईजाद की हुई उदास दुनिया में दाखिल हो पाने में सफल हो गया। और अंदर घुसते ही जो उसने देखा उसके पैरों तले की ज़मीन खिसक के रह गयी। वह विचलित हो उठा और उसकी पूरी देह घबराहट से भरने लगी, इससे पहले उसने इतना भयावह दृश्य कभी अपने स्वप्न में भी नहीं देखा था। उसके हलक से शब्दों का प्रवाह यकायक बंद हो गया। उसकी आँखें बुझने लगी व चिपचिपे पसीने से उसके पूरे कपडे तर-बतर हो गए.. कुछ पलों के लिए तो जैसे उसकी साँसें ही रुक गयी थी। उसको अपनी नज़रों पर बिलकुल भरोसा नहीं हो रहा था जो रह रह के उस मायावी की तस्वीरों पर जा कर ठहरती थीं। हर तरफ यहाँ वहां हर दिवार पर जिसकी सैकड़ों तस्वीरें चस्पां थी। परिप्रेक्ष्य से निरंतर बजती कानफोड़ू शोकाकुल धुनें पाठक के मस्तिष्क में चक्रवात सी घूमने लगीं। पूरा घर नीले रंग के गाढ़े धब्बों से भरा हुआ। एक अजीब सा कोलाहल, चित्कारें जो दुनिया भर के सन्नाटे से अकेले ही निबट लेना चाहती थीं। रक्त रिसती कलम और उदासियों में लहराते ज़ख़्मी शब्द। किरदार के अंतर का अवसाद कुंठा की तेज़ आंच पर निरंतर तप रहा था व जिसके प्रभाव-वश वहां हर तरफ दम घोट देने वाली एक असहनीय गंध उत्पन्न हो चुकी थी। दुखों के चमगादड़ पर फैलाये सिर के ठीक ऊपर मंडरा रहे थे और उनकी सीधी परछाईयाँ मध्यस्त में बैठी किरदार के ललाट पर पड़ रही थी।

जैसे ही पाठक की नज़र किरदार पर पड़ी वह अकस्मात् विषाद से भर गया। छवियों से इतर एक पीला पड़ा हुआ बदसूरत चेहरा, आँखें अंदर को धसी हुईं, बाल बेतरतीब बिखरे हुए। पूरी देह पर नीली महीन किरचों के अमिट निशान। हाथ पैर फूले हुए, होंठ सिकुड़ के काले पड़े हुए, नाखूनों की पोरें मलिन मैल से भरी हुईं, आँखों पर बेख्याली, बेसुधगी तारी व सिर लटक के निचे की तरफ झूलता हुआ। पाठक गूंगा, चुप्पा, विचारशून्य भौचक सा खड़ा कुछ देर एक टक किरदार को देखता रहा, उसका मस्तिष्क अब निष्क्रिय हो चला था। आँखों के आगे अन्धकार की कई परतें जमा हो गयीं व वह अचेतन मुद्रा में निर्जीव सा वहां खड़ा रहा।
यह दृश्य बहुत भयानक थाएक क्षण में उस कब्रिस्तान जैसे माहोल में वहां दो ज़िंदा लाशें मौजूद थीं, अपनी अपनी ज़िन्दगियों से बेबस, लाचार, टूटी, हारी हुई दो मुर्दा देह। 

सिर्फ प्राणों को त्यागना भर ही तो मृत्यु नहीं होता। यह तो ताउम्र साथ बनी रहती है। हर एक उम्मीद के मर जाने से जुडी होती है मृत्यु। इसका बायस विश्वास के धागों का उधड़ जाना होता है। जब स्वप्न धूमिल होते हुए दीखते हैं तब मृत्यु जन्मती है। हम जीवन में आये हर एक शुन्य के साथ मृत्यु की सीमा के अंदर प्रवेश करते हैं। यह नकारात्मक बोध नहीं और न ही यह अंत है बल्कि पश्चात का आरम्भ है। हम ताउम्र कई कई मोड़ों पर मरते हैं व उसके उपरांत एक नए अंदाज़ में अपने जीवन चक्र की शुरवात करते हैं। मृत्यु बेहतर जीवन की अथाह संभावनाओं का संसार है.... !!”     

पाठक ने खुद को सँभालते हुए एक लम्बा दम भरा व किरदार की ठोढ़ी को ऊपर सरका उसको सुध में लाने का प्रयास करने लगा। ऐसा करते हुए अचानक उसकी आँखें छलकने लगीं व पूरी देह में एक सरसरी सी लहरा गयी। उसने रुआंसे स्वर में कहा

"
यह क्या हाल बना रखा है अपना, आजतक इतने अवसादों में डूबी रहीं और मुझे एक भनक तक न होने दी। मुझे दुःख इस बात का नहीं कि आपने प्रेम किया, दुःख इस बात का है कि आप भ्रमित रहीं। आप जानती थीं कि वह प्रेम नहीं बल्कि सिर्फ शाब्दिक जाल था जिसमे आप फसीं और फिर भी उलझतीं चली गयीं। मुझे आपको इस हाल में देख कर अब कोफ़्त हो रही है। सबसे अधिक दुःख इस बात का कि मैं हर एक चीज़ से अनजान रहा। जितनी भ्रमित आप रहीं उतना ही मैं भी।  
"क्या बताती आपको, कुछ था ही नहीं बताने लायक, और मैं धीरे धीरे उभरने का प्रयास कर रही थी।"
"यह था आपका उभरने का प्रयास, आपने अपनी हालत देखी है, खोखली हो गयीं हैं आप, ज़रा अपनी सूरत आईने में देखिये।"
"मैं ऐसी ही दिखती हूँ, मैंने आपसे कहा था कि तस्वीरों पर न जाइये।" 
दरअसल जो आप तस्वीरों पर दिखती हैं वह आपकी असलियत है, वही सच्चाई भी जिसे आप इस भ्रम जाल में फंस कर बद से बदतर करती जा रही हैं। आपकी सुन्दर आभा जिसने मुझे आकर्षित किया था न जाने कहाँ खो गयी है। मैंने कभी नहीं सोचा था इस तरह आपसे मुलाकात होगी!"
"आप यहाँ आये कैसे। आपको किसने हक़ दिया मेरी दुनिया में प्रवेश करने का। मैं जिस भी हाल में हूँ... खुश हूँ... यह मेरी बनायी हुई दुनिया है। ये अवसाद मेरे हैं, इन्हें में सीने से लगा के रखना चाहती हूँ, इनके एवज़ में मुझे कभी बेइन्तहां प्रेम नसीब हुआ था।"   
"वह प्रेम नहीं था सिर्फ छलावा था।" 
मैं सब समझती हूँ। परन्तु ये मेरे चुने हुए रंग हैं, मैं इनके साथ खुश हूँ।"
"नहीं आप खुश नहीं हैं, आपको इनसे बाहर आना ही होगा।"
 “कहा न मैंने कि मैं कोशिश कर रही हूँ। आप समझने की कोशिश कीजिये मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये, यही हम दोनों के लिए बेहतर है। मैं नहीं चाहती कि आपकी हालत भी मेरे जैसी ही हो जाए।"
"मेरे लिए अभी सबसे बड़ी चिंता का विषय आप हैं, मैं आपको ऐसे जूझता हुआ नहीं देख सकता।"
"आपको क्यों है मेरी इतनी चिंता?" 
"मुझे आपसे प्रेम है!!"

थोड़ी देर के लिए एकाएक वहां सन्नाटा बरपा हो गया। शब्दों के मौन का समय आ गया था। किरदार अपनी नज़रें झुकाये खड़ी थी। पाठक की आँखों में करुणा व आशा एक साथ तैर रही थी। दोनों में से कोई भी कुछ न कह सका। सिर्फ इंतज़ार करने लगे। ऐसे समय इंतज़ार में रहना बहुत असुविधाजनक होता है। तत्काल क्षणों में इंतज़ार आपको भटकाता है, आपकी प्रतिबद्धता को कमज़ोर करता है। कुछ फैसले बिना इंतज़ार शीघ्र अति शीघ्र ही ले लेने के लिए होते हैं। 
किरदार ने अपनी नज़रें उठा कर पाठक की तरफ देखा व कुछ चिड़चिड़ा कर उसे वहां से जाने के लिए कह दिया। और अचानक पाठक एक बार फिर से टूट गया। उसको किरदार से संवादों के हर एक दौर याद आने लगे। हर वह क्षण जो उन्होंने साथ में बिताये उसकी नज़रों के समान्तर आके ठहर गए।



"किरदारों के सच खुलने लगे थे।  कहानी अब न बराबर बची थी। आखिर के पृष्ठ बिन पढ़े भी छोड़ दिए जाते तो भी कुछ नहीं बदलने वाला था, लेकिन पाठक ऐसा अंत नहीं चाहता था। वह अधीर हो उठा। उसने एक बार फिर से किरदार की तरफ देखा। किरदार जो वहीँ मध्यस्त में जा कर बैठ गयी, चमगादड़ों की परछाइयों के ठीक नीचे। जैसे वे अवसाद ही उसकी नियति हो। जैसे उस भ्रम से निकलना ही न चाहती हो। एक बार फिर से वही शोकाकुल संगीत,वही दम घोटती असहनीय गंध। वही नीले धब्बे व उदास शब्द। नहीं पाठक से किरदार की वह हालत न देखी गयी। और अचानक जाने उसे क्या सूझी, उसने किरदार के प्रति अपना सारा प्रेम, करुणा भाव संचित किया और उसकी तरफ बढ़ने लगा। सतर्कता से उसकी दोनों बाहों को पकड़ कर उसे ऊपर उठाया, अपनी ऑंखें उसकी बुझती हुई आँखों पर केंद्रित कर धीरे से पलकें बंद कर ली। और प्रेम से लबरेज़ अपने होंठ आराम से उसके सिकुड़े हुए होंठों पर रख दिए। ऐसा करते हुए साथ ही उसने अपनी दोनों जेबों से निकाल कर फूलों की घाटी से संचित दुर्लभ फूल हवा में लहरा दिए। और अब देखते ही देखते वह असहनीय गंध एक सम्मोहित कर देने वाली विचित्र सुगंध में तब्दील होने लगी, कानफोड़ू संगीत की जगह सुरीले राग बजने लगे। सारी उदासीन परतें उखड कर नीचे गिरने लगीं। किरदार की देह में तत्क्षण बदलाव नज़र आने लगे। वे नीली झाइयां अदृश्य होने लगी, बिखरे हुए बाल सलीके से एक साथ लय में आकर बंध गए। चेहरे का आलोक एक बार फिर से उदित हो उठा... आँखें चमकने लगीं  अब तस्वीरों पर दिखने वाली वह सुन्दर गुलाबी आभा एक बार फिर से उसके मुख पर आकर ठहर गयी। कुछ ही क्षणों में वह पूरी उदासीन दुनिया स्वर्ग सरीखे एक जादुई लोक में बदल गयी। और अब अचानक नेपथ्य से एक छोटी सी बच्ची की उल्लासपूर्ण किलकारियों की गूँज सुनाई देने लगी। उसकी खिलखिलाहट ने पूरे माहोल को और भी खुशनुमा बना दिया। वह बच्ची आज आनंद से लबरेज़ थी। उसकी माँ ने एक लम्बे अंतराल के बाद जीवन में वापसी की थी।