Sunday, October 20, 2013

"एक पूर्ण प्रेम कथा"


उस दिवस पुन: प्राचीन परम्परागत रीति-रिवाजों की देहरी पर प्रेम ने देह त्यागा, "तुम" ने "हम" से "तुम" को मुक्त करवा खुद का एक आकाश खोजा, खुला, उन्मुक्त, मेरे बिना। और "मैं" विवश यहाँ धरती से तुम्हें उड़ता हुआ देखता रहा, दूर तलक, आज तक।

काश की दुनिया में प्रेम से अन्य कोई और अल्पांश, कोई बिम्ब, कोई अलंकार ही न होते तो कितना अच्छा होता, ना मिठास से अन्य कोई और स्वाद। कवितायें भी एक मात्र प्रेम-रस ही की कही व लिखी जाती व हर ध्वनि पर मधुरता व्याप्त रहती।
कैसी होती वो कल्पना की दुनिया जहाँ सिर्फ "हम" होते, वहां नहीं ठहराती कोई "विवशता" न पनपता कोई "भय"। "सुन्दर", "प्राकृतिक", कथा की दुनिया। वहां सिर्फ आकाश होता, नदी, पर्वत, प्रेम, पुष्प, और सब सिम्त सुगंध। पूरी पृथ्वी "वैली ऑफ़ फ्लावर्स" हो जैसे।
निरंतर गूंजती संगीतमय ध्वनियों के मध्य प्रतिदिन होता प्रेम संयोजन और हमारा यह प्रेम सदा-सदा के लिए अमर हो जाता।

कभी कभी मैं सोचता हूँ की "आदम" और "हव्वा" को "सिंबल ऑफ़ लव" क्यूँ कहा जाता है?? क्यूंकि उन्हें सिर्फ दुनिया बसाने के आदेश थे, दुनियादारी वो भी नहीं समझते थे, इसलिए सहज थे और प्रतिक बन गए।
और सच भी है जब "मैं" और "तुम" होते हैं तभी ये समाज, ये रीति-रिवाजों की कड़ियाँ, ये लज्जा, ये चिंता, मान-मर्यादा भी पनपा करती हैं, पर "हम" हों तो दुनियां की परिभाषा ही बदल जाती है।

सुनो अगर यह अलगाव न हुआ होता न तो प्रेम पटल पर हम भावनाओं का एक नवीन कीर्तिमान स्थापित कर चुके होते और आज हम दोनों ही प्रेम की पुस्तकों पर एक आदर्श बन अंकित होते। तुम "अम्मा हव्वा" बन जाती और मैं "बाबा आदम" का स्थान ले लेता और दुनिया भी "हम" में ही रम जाती।
"तुम" "गौरा" कहलाती व "मैं" "शंकर" और "हम" दोनों ही मिल कर "अर्द्धनारीश्वर" हो जाते। अगर हम "हम" रहते तो पूजे जाते व प्रेम भी अपूर्ण रहने के अपने कलंक से निजात पाता।

खैर "हम" दोनों भी मिल कर प्रेम को उसके शाप से मुक्त न करा पाये, और हमारा प्रेम भी एक बूढ़े लेखक की अधूरी लिखी कथा बन कर रह गया जिसे पूरा किये बिना ही लेखक मर गया।

चूँकि "हम" का अस्तिव दुनिया से पूर्णतय: समाप्त हो चुका है, और अब इस दुनिया में कुछ शेष नहीं है, मैं भी नहीं और शायद उस तरफ जहाँ "तुम" हो कोई दुनिया ही नहीं।

परन्तु सुनो मध्यांतर में "इस ओर" व "उस ओर" के रहस्य को सुलझाने के लिए आयोजित मंथन से अन्धकार व शांति ने मिल कर आविष्कार की है एक तीसरी दुनिया। बहुत खुश हैं दोनों, यहाँ कोई नहीं आता।
यह एक मात्र प्रेम-कथा है जो बिना व्यवधान सतत ज़ारी है कल्पों से।

Thursday, October 10, 2013

"मुनियाँ के चाँद"

रात भर फुट-पाथ पर लेटे घंटों 
चाँद को निहारती रही मुनियाँ,
अनहद तुलनात्मकता 
कभी चाँद का उजलापन, 
तो कभी फीकी मासूम हथेलियाँ। 

उसकी समझ से परे था। 

दरअसल सुबह
माँ से जिद्द कर हिना के
दो चाँद रचावा लायी थी हथेली पर,
और अब न जाने किस उम्मीद में थी??
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फुट-पाथ पर रहने वालों
की कोई कल्पना नहीं होती।
उनके कैनवास सिर्फ स्याह होते हैं,
वहां कोई और रंग नहीं ठहरते।
रात शाश्वत होती है पर
कभी रौशन नहीं होती।

फिर भी मुनियाँ की नन्हीं हथालियों पर
माँ अकसर उम्मीद के चाँद उकेर देती है,
"शायद जिंदा रहने के लिए पड़ने वाली
जरूरतों को खूब समझती है "बेचारी"