Saturday, September 16, 2017

"तुम्हारे बाद कौन"

मुझे तुम्हारी ठूंठ शाखों की छावँ चाहिए,
उकताए होंठों पर अरसे से ठहरा हुआ यह मुक्ति का गीत
अब बेस्वर महसूस होता है।
मुझे एक सदी से लम्बी ऊब की आकांशा है,
जहाँ तुम्हारी गोद में नीरसता के
तमाम दहकते हुए अंगारों के मध्य
मैं तिल तिल कर जलता रहूं
और जीने के स्वाद से भीगता हुआ झूलता रहूं
इस दुनियावी अटकलों के बीच।
मुझे बुद्ध की प्रतिमा में सिर्फ इतना नज़र आता है कि
वह कौन से रंग से रंगी गयी है..
स्वर्ण वर्ण की हर प्रतिमा मेरी आँखों में ताब लाने को प्रयाप्त है..
मैं तुम्हारी स्वर्णिम देह की कामना में
ताउम्र एक तामसी असुर की तरह आसन लगा कर
कड़ी तपस्या के सभी मूलों पर खरा उतर जाऊंगा।
मुझे समाज में पनप रहे इन स्वयं घोषित देवों की प्रखर मार,
काटक शक्तियों का अब कोई भय नहीं।
बस तुम्हारी आँखों की पपोटों को यातनाओं की चुभन भी अगर बुझा जाये,
तो मेरा स्वार्थी मन कहीं चैन नहीं पायेगा।
तुम्हारे बाद कौन होगा जिसकी मैं कामना करूँगा,
कौन होगा जो मुझमे लालसा, लिप्सा व क्रूरता की गहराईयों को जगायेगा।
कौन होगा जिसके लिए मैं बिना उद्देश्य लड़ता हुआ भी,
ख़ुशी ख़ुशी वे सभी घाव स्वीकार कर
किसी अन्य की पीठ पर वार करूँगा।

Tuesday, September 12, 2017

"तुम्हें रोज़ हँसना चाहिए"


इस तरतीब समय में जहाँ सब कुछ एक लय, नीरस, एक सिरे से गुज़र रहा है,
किसी दौड़ती हुई रेल से मेरे ख़याल 
हर स्टेशन पर तेरे तसव्वुर के यात्रिओं को टिकट बाँटते फिर रहे हैं..

मन किसी इंजन सा अकेले में हूक भरता है..
यहाँ से पिछले डब्बों का फासला उम्र भर लम्बा है..

 मैं समय की कोख में उम्मीदों के कोयले भर कर 
निरंतर सुलगाये हुए हूँ आग...

के आग सी दहकती आत्मा को  
बर्फ के टुकड़ों से ख़्वाब थमाए कब से फुसलाये हुए हूँ...

 इस तरतीब से मशीनी समय में जहाँ सब कुछ हो रहा है इशारों पर,
मैं तुम्हारी याद में 
अरसे से छटपटाती चील की झुंझलाहट भांप
धूमिल होते विमानों के पंख गिराने के इंतज़ार में व्याकुल हूँ..

कि वे जितने नज़दीक नज़र आते हैं उतने ही दूर हैं उनके निशान,
अक्सर रातों को टिमटिमाती रोशनियों में  
उनके नारंगी ठहाके सुनाई दे जाते हैं...

मैं खुद की दूरबीनी नज़रों में 
तुम्हारी धुंधलाती छवियों के दृश्य लाता हूँ,
भीतर की बहकती कोफ़्त में
टूटती पलकों से उन कतरों को ताकता हुआ
देर तक हाथ हिलाता हूँ..
   
इस तरतीब से तरतीब समय में जहाँ सब कुछ हो रहा है कायदे से,
 मैं तुम्हारी सलीके से स्त्री कमीज पर 
बेबाक बेतरतीब लिखाई से क़ैद की अर्ज़ी लिखता हूँ 
के रिहाई पुरानी खब्त है बड़बोलों की,
मैं तो होंठों ही के बदलते रंगों से भीतर उठते उफानों से मिलता हूँ

साफ़ हवा में, एक धारे पर समंदर कितना भी खूबसूरत हो,
उस तरतीब के जहाज़ की सभी तहज़ीबों पर सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ 
 कि मैं तो अपनी सारी उम्र तूफानों में जीना चाहता हूँ.. 


जो गुज़रता है वो फिर लौट कर नहीं आता.. 
पिछले डब्बे के सभी सवार बिना चालक से मिले ही गुज़र जायेंगे,
एक तेज़ हवा चलेगी आँखों में चुभती हुई 
और मसलते हुए ही दृश्य धुंआ हो जायेंगे।
एक दिन बादल फूट पड़ेंगे और खुद ब खुद जहाज़ पार हो जायेंगे।

पर उस दिन भी ऐसा होगा कि तुम होगी,
खाली डिब्बे में ऊँघती अनमनी जाने कौन से ख़्वाब सजाती हुई
उस देर रात के आखरी विमान से अपनी आँखें चमकाती हुई
बिगड़े समंदर की बेबाक लहरों में अपने बाल भिगाती हुई..
इस खाली मन के महत विस्तार में अनुपस्थिति में गाती हुई,

इसलिए मैं जीता हूँ, कल्पना करता हूँ 
और इसलिए तुम ईंधन बनना
और इसलिए मेरे अनगिनत चाहनाओं के बीच 
सिर्फ इतना भर ख्याल करना
कि हँसना,
सूर्य को ताप देना, आग को दहक, और समंदर को एक गहराता गीत..