Friday, January 24, 2014

"अज्ञात महाद्वीप"



आजतक विश्व में हो चुकी सभी महान खोजों
का आधार अनुभवहीनता ही रहा है।
कितनी ही परिकल्पनाएं, नमूने,
सिद्धांत, शोधें, मॉडल व नक़्शे धरे के धरे रह गए,
और कितनी ही पूर्वनिर्धारित रूप रेखाएं ख़ारिज कर दी गयीं।

अम्मा हव्वा व बाबा आदाम ने भी
नहीं पढ़ी होंगी कभी अनुभवों कि किताबें।
व पूर्वलिखित सभी फिलोसॉफीयाँ भी जब लिखी जा रही होंगी
संभवतः अटकलों से भरी तरुण जिज्ञासाएँ ही रही होंगी।

युद्ध भूमि पर लड़ रहे
किसी भी सिपाही को नहीं होता है मरने का अनुभव,
ना ही दुनिया कि कोई भी माँ
अपने दूसरे बच्चे से अधिक स्नेह करती दिखती हैं कहीं.......  

कवि द्वारा लिखी गयी हर कविता भी,
कविता लिखने का पहला प्रयास ही होता है,
और हर कालजयी कृति पर भी बनी रहती हैं कितनी ही आशंकाएँ।

परन्तु फिर भी तुम नकार देते हो मुझे
कह कर कि "मैं अनुभवहीन हूँ।"

तो सुनो हाँ मैं अनुभवहीन हूँ
परन्तु मेरे अंतर में उमड़ रहा है भावनाओं का सैलाब,
मेरा हृदय ज्वलंत है हज़ारों उम्मीदों से,
व कितने ही स्वप्न दृश्य बन चमक रहे हैं आँखों पर.  
मेरे मस्तिष्क में चकराते रहते हैं जुनूनी भंवर,
और मेरा पूरा शरीर थरथराता रहता है व्यग्रतावश।

हाँ मैं अनुभवहीन हूँ
और ताउम्र भटकता रहूँगा अनुभवहीन ही
परन्तु मुझे पूरा यकीन है की
अंतत: खोज ही लूंगा अपने स्वप्नों पर का एक पूरा महाद्वीप।

क्योंकि अंतत: "कोलम्बस" महान ने भी
खोज ही निकला था अमरीका चाहे भारत न सही..................

Monday, January 20, 2014

"लंगड़ा वक़्त"



मेरी लिखी कविताओं में वक़्त लंगड़ा सिद्ध होगा,
घड़ियाँ दम तोड़ चुकी होगीं व सुईयां घायल,
मेरा एक मात्र उद्देश्य १२ अंकों को "मुक्त" करवाना है।
मेरी फिल्मों के क्रेडिट्स में
नायक का नाम सबसे अंत में प्रकाशित होगा
और वह अंत तक एक विवश व्यक्तित्व होगा,
अंतत: सभी फ़िल्में बिना "क्रमश:" के ही समाप्त हो जाएँगी।

मेरी स्मरण-शक्ति सशक्त होगी
परन्तु मेरी सूचनाएँ खोखली,
व सूटकेस निपट खाली।
दर्शन कि किताबें रट रट कर
मैं राजनीति पर समीक्षाएँ लिखूंगा,
व चै गुवेरा कि टी-शर्ट पहन कर
क्रिकेट मैच देखने जाऊँगा।

देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाये रखने
में मेरा योगदान उल्लेखनीय होगा,
व मैं दुनिया का वह एक मात्र अमीर कहलाऊंगा
जिसकी बनियान ठीक बीच से फटी होगी
व जहाँ से गर्द भरी नाभि व सिकुड़ा पेट उभर आएगा।

मेरा समाजवाद नारी सशक्तिकरण
की दिशा में कारगर साबित होगा,
उसे ईमानदारी से बलात्कारी खुले आम चलाएंगे।
प्रजातंत्र अराजकता से भरा होगा
व तानाशाही अपने चरम पर होगी
और हर पांच साल में सबसे योग्य तानाशाह के चयन
हेतु मतदान का प्रावधान होगा।

मेरे दोनों अंगूठे जूतों से बगावत कर
बाहर निकल आयेंगे
और मैं जहाँ भी लिखूंगा "शी/शा"
वो शब्द चटक जायेंगे।
मेरा बुद्ध ज्ञानी होगा
परन्तु रावण उससे बड़ा पंडित,
मैं किस्मत के भरोसे
अपने कर्मों के खिलाफ धरने पर बैठ जाऊँगा।

मैं जानता हूँ मेरा भविष्य अंधकारमय होगा व
दुनिया के किसी भी इतिहास में
मेरा नाम दर्ज़ नहीं किया जायेगा,  
परन्तु क्रांति से मेरा अभिप्राय सिर्फ इतना भर है
कि अतीत से अब तक मेरी उम्मीदें शेष हैं,  

और इसीलिए मेरी एक तरफ़ा प्रेम पर भी पूर्ण आस्था है,
क्योंकि वह स्थिति अलगाव के खतरे से "मुक्त" होती है।  

Tuesday, January 14, 2014

"आत्म-दाह"





 "आत्म-दाह" काश के मेरे एक हाथ में पिस्तौल होती और दूसरे में ६ गोलियां, मैं सबसे पहले क़त्ल कर देता अपने आत्म विश्वास को, उम्मीदों की कनपट्टी पर नली रख ट्रिगर दबा देता, तीसरी से आस्था को मार देता, चौथी से अपनी सभी अपेक्षाओं को व पांचवी से ख़त्म कर देता भविष्य की सम्भावनाओं को। एक-एक करके अपने पांच हम सायों की हत्या कर चुकने के बाद अब हवा में छोड़ देता आखरी गोली.................. और इस तरह अपने पहले ही प्रयास में सफलतापूर्वक कर देता "आत्म-दाह" क्योंकि दुनिया की कोई भी लघु कथा इतनी लघु नहीं हो सकती जितनी कि ज़िन्दगी, पैदा हुए, बढ़ने भर के लिए, बढ़ गए और मर गए.... !!

Friday, January 10, 2014

"बेरोज़गारी अनलिमिटेड"




हो गयी है "झंड" बहुत, अब ज़िन्दगी बदलनी चाहिए,
न लगे नौकरी सही कोई "लॉटरी" निकलनी चाहिए।

हम तो "टैलेंट" के वहम में रोड पर ही आ गए ,
शर्त लेकिन थी की ये "किस्मत" चमकनी चाहिए।

हर गली में, हर नगर में "चुटकुला" सा बन गए,
चाहते तो ये थे हम पर "फ़िल्म" बनानी चाहिए। 

सिर्फ "हंगामा" खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
कोशिश है की अपनी भी "सुनवाई" होनी चाहिए।

मेरे बस की कुछ नहीं, "खुदा" तेरे बस में ही सही,
जल्द ही लेकिन ये "खज्जलमेंट" मिटनी चाहिए।

विथ मॉडेस्टी
मुकेश चन्द्र पाण्डेय

Wednesday, January 8, 2014

"हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ"

हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ,
आज तक दुनिया भर में हो चुकी
सभी क्रांति की कोशिशों का
एक निर्विवाद पक्षधर हूँ।

मैं आज भी तेज़ रफ़्तार वाहनों के समान्तर
मीलों चलता हूँ और कई बार तो रफ़्तार भी दुगुनी कर देता हूँ,
भागने लगता हूँ, लम्बी छलांगें भरता हूँ
सोच कर कि
"हरा सकता हूँ इन्हें पैदल ही।"

मैं लगभग ३३७ साल पहले पहाड़ों के
किसी छोटे से गावं में सूख चुके नौले
का शोक अब तक मनाता आ रहा हूँ।
और आज भी कभी नुकीले पत्थर से
उसकी सीर खरोंचने लगता हूँ
सोच कर कि
"अवसादों (जीवन में अवसादों का होना आवश्यक है) की दीर्घायु के लिए
रिसाव का होना आवश्यक है।"

मैं पथ पर जब-जब देखता हूँ कोई भी पागल,
उसका मनोविश्लेषण करने लगता हूँ,
वो सचेत हो जाता है, मुझ पर पथराव करता है,
और अब मैं विज्ञ हूँ, ज़ोर से हँसता हूँ
सोच कर कि
"एकाग्रता के भंग होते ही अंधकारमय हो जाता है बौद्धित्व।"

मैं घूरता हूँ बदसूरत पत्थरों के ढेर में दशकों पहले
लुप्त हो चुकी एक प्राचीन नदी,
और उसके अस्तित्व को पुनः जागृत कर देता हूँ
सोच कर कि
"दो पत्थरों को घंटों घिस कर पैदा कर सकता हूँ उनसे नमी।"

मैं आज भी रोता हूँ फूट-फूट कर
अपनी सभी "सफलताओं" पर।
क्षण भर के उबाल से पैदा हुई उम्मीद
को उसी क्षण में पूरा जी लेता हूँ,
और फिर कर देता हूँ उसे क़त्ल खुद-ब-खुद
सभी तथ्यों, सुरागों को भी उसी वक़्त मिटा देता हूँ
और अब मैं अकेला चश्मदीद शेष हूँ,
एक क्षण पूर्व "जी" गयी अपनी सबसे सफल क्रांति का।

हाँ मैं एक क्रांतिकारी हूँ मैंने देखे हैं कई-कई पल, घंटे, दिन, साल, दशक,
मौसम, स्व्भाव और मनुष्य बदलते हुए....

Friday, December 27, 2013

"अंसारी का राम, तिवारी का अल्लाह।"



एक रोज़ कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन के नीचे सीढियों पर मेरी मुलाक़ात एक बड़े अजीब-ओ-गरीब पागल से हुई, कमीज़ क्या थी चीथड़े टंगे थे शरीर पर, आँखों पर मोतिया-बिन्द की झाइयाँ, बाल ऐसे उलझे हुए की मानों कई मांजों के गुंजल और टांगें इस कदर पतली कि माचिस की तिल्लियों संग लेटाई जाएँ। बहरहाल आप सोच रहे होंगे की सारे पागल ऐसे ही होते हैं तो इसमें अजीब क्या रहा होगा। इस पागल की…..नहीं नहीं पागल नहीं कहूँगा, इस शख्स की एक चीज़ जिसने मुझे हैरत में डाल दिया वो ये था की इसके सर पर गोल जालों वाली सफ़ेद टोपी रखी हुई थी और गले में भोलेनाथ का बड़ा सा लौकेट लटक रहा था। लबों पे एक गीत मुसलसल ज़ारी था, वो गीत जो हम सब बचपन से सुनते आये हैं कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिंदी हैं हम वतन है हिन्दुस्तां हमारा।"
इसकी बुलंद आवाज़ में इस गीत को सुन कर मेरे अन्दर एक उबाल सा पैदा होने लगा, शरीर में झंकार ऐसी के कई वाद्य-यंत्र एक साथ बजने लगे हों। मैं अवाक रह गया, ये बात सुबह के कोई ९.३० बजे की रही होगी, मुझे ऑफिस के लिए लेट हो रहा था, पर समझ नहीं पाया की क्यों इसके पास जाकर बैठ गया। मेरी हाजिरी से नाआश्ना ये शख्स अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था। मैंने टोकना मुनासिब न समझा और बस लगातार इसे ऑब्जर्व करने लगा। कुछ देर में ही गीत छोड़ अंग्रेजी में कुछ बड़-बड़ाने लगा "बिल्कुल दुरुस्त याद है, यूँ कह रहा था "आई ऐम दी राम, आई ऐम दी अल्लाह एंड आई ऐम दी हिन्दू, आई ऐम दी मुल्ला।" सुनकर मुझसे रहा न गया और मैंने इसके कन्धों पर हाथ रख दिया, अपने कंधें पर किसी गैर हाथ को महसूस कर इसकी कमज़ोर नज़रे उठी और चीड़-चिड़ा कर मुझसे पूछने लगा की हाँ क्या चाहिए कौन हो तुम?? मैं थोड़ा डरा ज़रूर पर मेरी जिज्ञासा ने मुझे वहां से उठने न दिया और हिम्मत जुटा कर पूछ बैठा "भाई आज के इस सांप्रदायिक सद्भाव के बिगड़े हुए दौर में जहाँ लोग धर्म और मजहब के नाम पर तलवारें तक निकाल लेते हैं और एक दूसरे की जान लेने पर आमादा रहते हैं वहीँ तुम सर पे ये सफ़ेद इस्लामी टोपी और गले में हिन्दुओं के आराध्य भोले नाथ का लौकिट टंगा कर बैठे हो और "आई ऐम दी राम, आई ऐम दी अल्लाह एंड आई ऐम दी हिन्दू, आई ऐम दी मुल्ला" के नारे लगा रहे हो तुम पागल नहीं हो सकते, मैं तुम्हारे बारे में जानने को उत्सुक हूँ मुझे बताओ की कौन हो तुम?? हो सकता है की मैं कोई मदद कर पाऊं।" इस बार वो गुस्से से भर गया और मुझे फटकारने लगा "नहीं चाहिए तुम्हारी कोई मदद चले जाओ यहाँ से.. हुन्न!"
और फिर कुछ देर के लिए वहां सन्नाटा बरपा हो गया। चंद लम्हों बाद अपने आंसुओं को सम्भाल कर मुझसे कहने लगा "तुम मेरी मदद करना चाहते हो, क्या लौटा सकते हो मुझे मेरा अंसारी?? अंसारी मेरा दोस्त मुझसे रूठ कर चला गया।" कहते कहते वो बोखलाने लगा, मैंने शांत करते हुए पूछा की क्या हुआ था उन्हें??” “तुम जानना चाहते हो उसे क्या हुआ था तो सुनो" कह कर वो अपनी दास्ताँ सुनाने लगा। मैंने टोक कर पूछा "आपका नाम क्या है??" “अविनाश तिवारी!” नाम सुनते ही मेरी नज़र सर पे रखी इस्लामी टोपी पर टिक गयी और मैं चुप-चाप सुनने लगा।

१० साल पहले की बात है उत्तर प्रदेश के छोटे से गावं “बेगमपुर” में दो दोस्त हुआ करते थे जिनकी दोस्ती के किस्से पूरे गाँव में एक मिसाल की तरह सुनाये जाते थे। "अविनाश तिवारी और मीर सैय्यद अंसारी।"
“बेगमपुर” छोटा सा गाँव जिसमे हिन्दुओं और मुस्लिमों का अनुपात लगभग बराबर ही रहा होगा, सभी एक दूसरे के साथ बड़े अदब से पेश आते थे। कोई धार्मिक असमानता नहीं थी वहां, सब दूसरे मजहब और लोगों को उतना ही सम्मान देते थे जितना की अपने खुद के मजहब को। ईद हो या दिवाली, रमजान हो या नव-रात्रे वहां सभी त्यौहार बड़े उत्साहपूर्वक एक साथ मिल कर मनाये जाते थे। अविनाश और मीर की इस निश्छल दोस्ती ने गाँव में यह सौहार्द कायम रखने में एक अहम् भूमिका निभाई थी। ये दोनों बचपन से ही साथ रहे, ऐसे रहे की एक दूसरे के इतने आदी हो गए जैसे दो जिस्म एक जान। लगभग हर जगह साथ-साथ नज़र आते, एक जैसे कपडे पहनते, साथ नहाते, खाते पीते। स्कूल में भी एक ही डेस्क पर बैठा करते और बढे हुए तो कॉलेज भी एक सा ही चुना, कोर्स "राजनीति-शास्त्र"। गौरतलब है की दोनों की दिलचस्पी में कोई खासी समानता नहीं थी। मीर शुरू से ही एक बहुत होशियार लड़का रहा था। अपने काम को बड़े सलीके से बिना कोई गुंजाइश छोड़े पूरा करता था और उसके लिए राजनीति-शास्त्र बहुत अहम् विषय था, वो इस पर स्नातकोत्तर पश्चात रिसर्च करना चाहता था। उसका लोक-तंत्र और राजनीति पर अटूट विश्वास था। हर वक़्त कहता रहता था की वो भारत को पूर्ण विकसित होते हुए देखना चाहता है, और उस दिशा में अपना सक्रिय योगदान देना चाहता है। पर दूसरी तरफ अविनाश तिवारी इसके बिल्कुल विपरीत था अव्यवस्थित, पढाई-लिखाई में सामान्य और राजनीति से भी उसका सम्बन्ध सिर्फ इतना भर था की वो दिन भर मीर के साथ रह सकता था और परीक्षा दौरान मीर की सहायता से पास हो सकता था। अविनाश गाँव के एक सामर्थ्य परिवार का हिस्सा था। उसके पिता जी गाँव के सबसे बड़े मंदिर के एक मात्र पुजारी थे इसलिए घर की आर्थिक स्थिति भी ठीक ही थी। बचपन से ही बड़े लाड़-प्यार से पाला गया था और इस वजह से दुनिया भर की परेशानियों से भी लापता था, वो कोई भी काम बिना मीर की सहायता के कर ही नहीं सकता था। वहीँ दूसरी तरफ मीर की पारिवारिक हालत बहुत पोसिदा थी। उसके अब्बा हाथ के कारीगर थे, और अपनी आजीविका जुटाने के लिए पूरे साल भगवानों के कपडे-लत्ते सिलना, पीर बाबा की चादर सिलना और जन्माष्टमी व रामलीला के वक़्त पात्रों के कपडे और रावण के पुतले बनाने का काम करते थे। अम्मी को दिल की बीमारी थी तो उनका ज्यादा वक़्त बिस्तर में ही बीतता था ऐसे में घर के हालातों ने मीर को छोटी उम्र से ही बहुत मजबूत बना दिया था। वो अविनाश की कमजोरी से भी पूरी तरह वाकिफ था, इसलिए उसे एक पल के लिए भी कभी अकेला नहीं छोड़ता था। कुछ भी हो पर दोनों ही परिवारों ने कभी दूसरे बच्चे को गैर नहीं समझा बल्कि दोनों के ही गाँव में दो-दो माता-पिता थे, दोनों जब चाहते एक दूसरे के घर चले आते, घंटों घंटों बैठे रहते, एक ही थाली में खाना खाते और बराबर का लाड़-प्यार पाते।

इनकी दोस्ती के वैसे तो बहुत किस्से मशहूर हैं पर एक बहुत ही खूबसूरत वाकिया सुनाता हूँ एक रोज़ की बात है मीर और अविनाश कॉलेज के बाद पास वाले बाज़ार में घूम रहे थे। मीर ने काला कडाई वाला कुर्ता और सर पे सफेद इस्लामी टोपी पहन रखी थी। वो अकसर इस लिबास में नज़र आता था। अविनाश को मीर के सर पे वो टोपी बहुत अच्छी लगती हालाँकि आज तक उसने मीर से कभी नहीं पूछा था पर उस रोज़ पूछ बैठा "मीर तू हर वक़्त ये टोपी क्यों पहने रखता है??" मीर ने हँसते हुए जवाब दिया "क्यों तुझे अच्छी नहीं लगती ये?" "नहीं नहीं ऐसी बात नहीं है मुझे तो खूब अच्छी लगती है, बस जानना चाहता हूँ की तू ये पहने क्यूँ रखता है??" अविनाश ने उत्सुकतावश पूछा। सुनते ही मीर के चेहरे पर एक मुस्कुराहट दौड़ने लगी और उसने बड़े प्यार से बताया की "भाई ये कुछ चीज़ें हमें हमारे आखरी पैगम्बर मुहम्मद से विरासत में मिली हैं। वो हर वक़्त इस ही लिबास में रहा करते थे तो उनकी पाक रूह और नेकी को याद रखने के लिए हम भी हमेशा उन सा लिबास पहने रखने की कोशिश करते हैं ताकि उस पाक रूह का असर हमारी निजी ज़िन्दगियों पर भी पड़ जाये और हम भी उन्ही की तरह पाक-साफ़ हो जाएँ।" "बिल्कुल सही, और इस लिबास का असर तुझ पर खूब दीखता है, तभी तो इतना समझदार, सुलझा हुआ और सबका पसंदीदा है तू।" अविनाश मीर की तारीफ करने लगा और अचानक ही पूछ बैठा की "क्या मैं भी इस टोपी को पहन सकता हूँ?" सुन कर मीर थोडा झेप गया और कहने लगा “मगर भाई ये टोपी, ये लिबास ये सब इस्लाम कि निशानी हैं और तू तो एक हिन्दू ब्राह्मण है, ये सही नहीं रहेगा, अपने गाँव तक ठीक है पर बाहर एक बड़ी कुत्ती दुनिया है यार, ये किसी को भी किसी भी ख़द-ओ-खाल में जीने नहीं देती, नुख्स ढूंढ़ती रहती है, चीथड़े तक फाड़ देती है ऐसे में तू अगर ये इस्लामी टोपी पहन के घूमेगा तो ये तेरे लिए कतई सही……" अविनाश ने बीच में ही टोक दिया और कहने लगा "भाई सुन कोई कुछ भी कहे मुझे परवाह नहीं। मेरे लिए इस दुनिया में तुझसे अधिक कोई चीज़ प्यारी नहीं, तू ये टोपी पहनता है और मेरे लिए इतना ही काफी है की मैं भी इसे पहनूं और वैसे भी साला किस धर्म, किस ग्रन्थ में लिखा है की दूसरे धर्म के रीती-रिवाज़ या पहनावे का सम्मान करना व उसे अपनाना गुनाह है। लोगों का क्या है, ये तो हर बात पे कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं, पर अगर तू नहीं चाहता तो मैं ज़िद्द नहीं करूँगा।" इतना सुनकर मीर ने मुस्कुराते हुए अपने सर से टोपी उतार कर अविनाश के सर पर टिका दी और कहने लगा "वाह तू तो बहुत समझदार हो गया रे, ये ले पहने ले, आज से अल्लाह जितना अंसारी का उतना ही तिवारी का" और दोनों ही जोर-जोर से हँसते हुए वहां से चल दिए।
इनकी दोस्ती गाँव में न केवल दोस्तों को लिए बल्कि मानवता और साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने के लिए भी एक आदर्श मानी जाती थी। यहाँ तक की दूसरे गाँवों में भी जब कभी धार्मिक मुद्दों पर कहा सुनी हो जाती, इनकी दोस्ती के कसीदे पढ़ भर लेने से ही बात दब जाती थी।

खैर अक्टूबर की "दो" थी और १० दिन बाद ही गाँव की राम लीला शुरू होने वाली थी। गाँव में कई सालों से राम-लीला का मंचन बड़े हर्ष और उल्लास के साथ किया जाता रहा था। इन दस दिनों का गाँव वाले पूरे साल बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करते थे और जब रामलीला शुरू हो जातीं तो सारा काम-धाम छोड़-छाड़ कर हर रात समय से पहले ही मैदान पर पहुँच जाते। और इस बार भी राम-लीला की तैयारियां बड़े ही जोर-शोर से चल रही थी। गाँव के एक मात्र पुजारी का बेटा होने और अच्छे डील-डौल व नैन-नक्श होने का असर था की पिछले कई सालों से राम का किरदार अविनाश ही निभा रहा था। और इस बार भी किरदार निभाने को बहुत ही उत्सुक था। पिछले एक महीने से लगातार रिहर्सल कर रहा था और इस दौरान कॉलेज भी नहीं गया था। दूसरी तरफ कॉलेज इलेक्शन्स नजदीक थे और मीर इस बार कॉलेज प्रेजिडेंट के लिए खड़ा हो रहा था। तात्कालिक प्रेजिडेंट "आयूब खान "के गुंडा-गर्दी और अपनी बात को कॉलेज स्टूडेंट्स पर जबरदस्ती थोपने वाले रव्वैये से मीर बहुत ना-खुश था और इस बार खुद ही प्रेजिडेंट बन कर सब कुछ बदल देना चाहता था, उसकी सोच बिल्कुल साफ़ थी वो कॉलेज में बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और अव्यवस्था के खिलाफ था और कॉलेज को बिल्कुल साफ़-सुथरा, भ्रष्टाचार-रहित और व्यवस्थित बना देना चाहता था। वहीँ यह सुन कर अविनाश की ख़ुशी दुगुनी हो गयी थी की इस बार उसका अपना दोस्त मीर कॉलेज प्रेजिडेंट के लिए खड़ा हो रहा था, उसे वैसे ही सब पसंद करते हैं और चाहते हैं की वो ही जीते तो लगभग उसके खड़े होने भर से उसकी आधी जीत तय हो गयी थी। अब तो कोई भी अविनाश का कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा, वो जब चाहे कॉलेज आएगा मन न करे तो नहीं भी आएगा, हाज़िरी तो लग ही जाएगी और कॉलेज में इज्ज़त भी बढ़ जाएगी, सब मीर को जानने लगेंगे तो अविनाश तो उसकी छवि है उसे कौन नहीं जानेगा, ये सोच-सोच कर अविनाश अन्दर ही अन्दर ख़ुशी से पागल हुआ जा रहा था। रोज़ सुबह मंदिर में जा कर मीर की जीत के लिए प्रार्थना करता रहता और शाम को वही इस्लामी टोपी पहन कर पीर बाबा की दरगाह जा अपने दोस्त की बरकत के लिए खूब दुआएं मांगता। अविनाश नादान था, पर आयूब खान नहीं। आयूब खान जो इलाके के MP का बेटा और कॉलेज का तात्कालिक प्रेजिडेंट था कॉलेज में मीर की इमानदारी और लोक-प्रियता को अच्छी तरह भांप गया था और मीर का प्रेजिडेंट पद के लिए खड़े होना उसे डराने लगा था। वो जानता था की एक बार अगर मीर प्रेजिडेंट बन गया तो उसका जमा-जमाया सारा खेल सब पानी हो जायेगा। कॉलेज फण्ड के जितने भी पैसे आजतक उसने अपनी अय्याशी में उड़ाए हैं उससे सारा हिसाब-किताब माँगा जायेगा। और अगर कहीं बात बढ गयी तो इसका असर पिता की राजनैतिक छवि पर भी ख़ासा पड़ेगा। सोच-सोच कर आयूब खान का खून सूखने लगा था। कुछ भी हो जाये पर मीर इस बार कॉलेज इलेक्शन नहीं जीतना चाहिए। मगर कैसे सब कुछ तो स्पष्ट था, पूरा कॉलेज आयूब खान से तंग आ चुका था, यहाँ तक की वो प्रोफेसर्स के साथ भी बद-तम्मिज़ी से पेश आता रहा था। अब उसे कुछ नहीं सूझ रहा था। जो भी हो एक बात तय थी की वो मीर को हराने के लिए किसी भी हद तक गुज़र जाने को तैयार था।

इससे पहले की पानी सर से उपर हो जाये आयूब खान ये बात अपने अब्बा राशीद खान को बताने पहुँच गया। "अब्बा इस बार बगल वाले गाँव से वो मीर भी प्रेजिडेंट के लिए खड़ा हो रहा है, और अगर वो जीत गया तो बड़ी मुसीबत हो जाएगी।" "क्या कहा मीर खड़ा हो रहा है, कौन वो अंसारी का बेटा जो रावण के पुतले बनता है। उससे कहो की रामलीला का वक़्त है अपने अब्बा का हाथ बटाये, पॉलिटिक्स उसके बस का रोग नहीं है।" राशीद खान जोर जोर से हँसने लगा। “मगर अब्बा वो नहीं मानेगा, ईमानदारी और देश प्रेम का भूत जो सवार है सर पे। कहता है देश बदलना चाहता है, और इसके लिए कुछ भी करेगा। मुझे तो चिंता हो रही है अगर वो प्रेजिडेंट बन गया तो मेरा, आपका सबका काम बिगड़ जायेगा।" आयूब खान की बात सुनकर राशीद खान ने एक जोर का ठहाका भरा और कहने लगा "ऐसा कुछ नहीं होगा उसे समझाओ और अगर न माने तो एक हल्की सी आंच से रामलीला को लहू-लीला में तब्दील करवा देंगे। इस बार रावण के साथ राम का भी वध होगा, लंका भी जलेगी तो अयोध्या भी राख करवा देंगे।" बस आयूब खान के लिए इतना इशारा काफी था और ये सुनते ही वो अब्बा की इज़ाज़त लेकर वहां से मुस्कुराता हुआ चला आया।
इस बीच उसने मीर से बात करने की बहुत कोशिश की पर मीर अपने इरादे पर कायम था। वो इस बार पीछे मुड़ कर नहीं देखना चाहता था और कॉलेज को आयूब खान के गुंडा राज से मुक्त करवा देने को उत्सुक था। दिन भर प्रचार करता रहता और खुले आम आयूब खान के काले चिठ्ठे उस ही के सामने कॉलेज स्टूडेंट्स को सुनाता रहता। और अब ये बात आयूब खान को चुभने लगी थी और वो मीर को ठीकाने लगाने की योजना तैयार करने लगा।
रामलीला से हफ्ते पहले की बात है, बड़ा अजीब दिन था वो, खाली-पन, सन्नाटा और हवा में एक अजीब सी मायूसी। अविनाश का सुबह उठते ही मन ख़राब हो गया, ये कोई अच्छा अंदेशा नहीं था। अविनाश अपने ही ख्यालों में गुम था की तभी उसके फोन की घंटी बजी, न मालूम नंबर था, फोन उठाया तो खबर मिली की मीर की जान खतरे में है, आयूब खान और उसके कुछ साथी उसे बाज़ार में बुरी तरह पीट रहे हैं।" सुन कर अविनाश से रहा न गया और वो तभी के तभी बिना कुछ सोचे समझे ही कॉलेज की तरफ बढ़ने लगा। पर घर से १ किलो मीटर ही आगे निकला होगा की कुछ गुंडों से भरी जीप ने उसे घेर लिया और बिना कुछ कहे सुने ही पीटना शुरू कर दिया। थोड़ी देर में ही अविनाश की हालत ख़राब हो गयी, उसके पूरे कपडे खून से लथ-पथ हो गए और वो दर्द से बुरी तरह कांपने लगा। इतने में गुंडों के बीच से आयूब खान निकला और उसके सामने ही मीर को फोन लगा कर कहने लगा की “अब भी वक़्त है प्रेजिडेंट पद के लिए अपने आवेदन को रद्द कर दे वरना अभी तेरा ये जो चमचा है न, पुजारी का बेटा अविनाश उसका बस एक हाथ ही तोडा है, नहीं माना तो दोनों को कुत्ते की मौत मरवा दूंगा और पूरा गाँव देखता रह जायेगा। कह कर आयूब खान और उसके साथी जोर-जोर से हंसने लगे और अविनाश को वहीँ तड़पता हुआ छोड़ कर चल दिए। आयूब खान की बात सुनते ही मीर बिना देर लगाये ही वहां पहुँच गया और अविनाश को लेकर हॉस्पिटल चला गया। अगले ही दिन उसने नजदीक के थाने में आयूब खान और उसके गुंडों के खिलाफ ऍफ़. आई. आर दर्ज करवा के ज़ाहिर कर दिया की वो प्रेजिडेंट पद के लिए अपना आवेदन रद्द नहीं करेगा।

खैर ६ दिन के बाद ही गाँव की राम लीला शुरू होनी थी और राम के हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था, यही सोच कर पूरा गाँव गहरी चिंता में डूबा हुआ था। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। पर शायद अविनाश को सूझ चुका था और उस ही रात उसने गाँव वालों की एक बैठक बुलायी और उसमे राम के किरदार के लिए मीर के नाम का सुझाव रखा, पूरे गाँव में खलबली मच गयी, मीर ने भी संकोच किया तो अविनाश ने उसकी एक न सुनी और सबको संबोधित कर कहने लगा की " राम कोई हिन्दुओं की जागीर नहीं हैं, राम एक उत्तम पुरुष थे, जिनमे धैर्य, मानवता, प्रेम, शक्ति और साधना जैसे सभी गुण मौजूद थे, और मुझे लगता है की एक ऐसा ही राम हमारे गाँव में भी मौजूद है, जो नियति वश एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ है, और आदमी जब पैदा होता है तो सिर्फ आदमी होता है, उसको हिन्दू, मुस्लिम बना देता है ये धूर्त समाज, ये सत्ता के भूखे नेता, और ये लोभी दुनिया। पर हम अपने गाँव में इस रीत को तोड़ कर दिखा देंगे की मानवता से बड़ा न कोई धर्म है न कोई जात। और वैसे भी रिहर्सल के दौरान मीर मेरे साथ बहुत रहा है और उसे आधे से ज्यादा संवाद मुह जबानी याद हैं, तो ये किरदार उससे बेहतर कोई और कर भी नहीं पायेगा। तो आज से राम जितना तिवारी का उतना ही अंसारी का" अविनाश की ये बात सुन कर पूरा गाँव तालियाँ पीटने लगा और मीर ने भी मुस्कुरा कर किरदार निभाने के लिए अपनी हामी भर दी। लेकिन ये इतना आसान नहीं था जितना दिख रहा था, गाँव वालों के लिए बेशक ये एक बहुत ही नेक बात थी पर आयूब खान और राशीद खान को मीर से बदला लेने के लिए एक बहुत ही अच्छा मुद्दा मिल गया था। अपने स्वार्थी हितों को पूरा करने के लिए उन्होंने साम्प्रदायिकता को अपना हथियार बनाया और मीर की राम बनने की बात को अखबारों पर मसाला बना कर पेश किया और इतना ही नहीं बल्कि दूसरे गाँव के हिन्दू, मुसलमानों को भड़काना भी शुरू कर दिया। उधर इन सभी बातों से अनजान गाँव में रामलीला शुरू हो चुकी थी। मीर राम के लिबास में साक्षात राम नज़र आ रहा था, और सभी उसके अभिनय से भी बेहद खुश नज़र आ रहे थे। लंका दहन का दिन था, मीर मंच के पीछे मेक रूम में बैठा अपने सीन का इंतज़ार ही कर रहा था, की तभी उसे जलती हुई लंका पर लोगों की तालियाँ और हनुमान की जय-जयकार के नारे सुनाई देने लगे, पर कुछ ही मिनटों में अचानक ही वह जय घोष हाहाकार में तब्दील हो गया। आयूब खान हिन्दुओं और मुसलमानों के एक विशाल जत्थे के साथ राम लीला मैदान पहुँच गया। गाँव वालों को मुसीबत का अंदेशा हुआ तो उन्होंने बात को सँभालने की पुर-जोर कोशिश की लेकिन सम्भलना तो दूर उन्होंने अचानक ही गाँव वालों पर गोलियां बरसना शुरू कर दिया। और इस बीच एक गोली अविनाश के दायें पाँव पर लग गयी और वो चित्त हो कर वहीँ पड़ गया। बेगम पुर में लंका दहन की वो रात बहुत ही काली साबित हुई। कुछ ही पलों में वहाँ सब ख़त्म हो गया, देखते ही देखते अविनाश के माता-पिता, मीर के अम्मी-अबु सब लाश हो गए। १९१९ के जलियावाल बाग कि मानिंद एक भयावह नरसंहार। पूरा राम लीला मैदान एक कब्रिस्तान कि तरह दिख रहा था, और ये सब हाहाकार सुन जैसे ही मीर बाहर निकला, भीड़ में से कुछ लोगों ने निकल कर उसे बुरी तरह जकड लिया और मिट्टी तेल का पूरा गैलन उस पर उड़ेल दिया। वहां हर तरफ से सुनाई देती चीखों के बीच उन दरिंदो ने मीर को जिंदा जला दिया और अविनाश बस वहीँ बेबस पड़ा देखता रहा। कुछ भी न कर पाया, अविनाश का हम साया, उसका दोस्त अंसारी उससे हमेशा-हमेशा के लिए जुदा हो गया और वो कुछ भी न कर पाया।

ये कहता हुआ वो शख्स यानि अविनाश तिवारी फूट-फूट कर रोने लगा। अविनाश की कमज़ोर आँखों पर मीर के जिस्म से चिपकी आग मुझे साफ़-साफ़ नज़र आने लगी और उसकी गर्मी से मेरा पूरा जिस्म उबलने लगा। फिर एक दम खुद को सम्भाल कर अविनाश ने अपने कमज़ोर बजूवों को मेरी तरफ बढ़ा लिया और कहने लगा की मीर की आखरी साँसें इन ही बाजूवों में निकली थी, और मरते मरते भी क्या कह गया "अविनाश तू रो क्यों रहा है, अरे तुझे तो खुश होना चाहिए की तेरा दोस्त मीर के रूप में पैदा हुआ और राम के रूप में मर गया, ये सौभाग्य भी क्या कभी किसी को नसीब हुआ है? आई ऍम दी राम, आई ऍम दी अल्लाह, एंड आई ऍम दी हिन्दू, आई ऍम दी मुल्ला।" और ये कहते-कहते उसकी आँखें हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो गयीं।
खैर कहानी सुनते ही मैं भी अविनाश को वहीँ उस ही हालत में छोड़ कर चला आया। और करता भी क्या?? पर जाते हुए जामा मस्जिद से अपने लिए एक इस्लामी टोपी खरीद लाया था।



Friday, December 20, 2013

"लैटर टू सांता क्लॉज़"

डियर सांता नमस्कार,

"क्रिसमस" के आते ही सांता क्लॉज़ का इंतज़ार बच्चे, बड़े और बूढ़े सब को रहता है। सांता आप मुझे पर्सनली एक विचित्र मानव लगते हो, शीत युग से बचे रह गए अकेले बाशिंदे, जो सिर्फ बर्फ पड़ने पर ही निकलते हैं, पता नहीं बचे वक़्त कहाँ रहा करते हैं। ईसाईयों के हनुमान, गणेश सरीखे संकटमोचक, रिद्धिसिद्धि दाता और विघ्नहर्ता जो लोगों को उम्मीदें बाँटता फिरता है, बिल्कुल मेरी तरह, हाँ जी, बिल्कुल मेरी ही तरह पर ये बड़ा दिलचस्प है कि मैं उम्मीदें बांटता हूँ इसलिए कि मैं एक होपलेस आदमी हूँ पर आपकी इस कृपा के पीछे का कारण मैं आजतक नहीं समझ पाया। और दूसरी दिलचस्प बात कि लोग बड़ी बेसब्री से पूरे साल क्रिसमस का इंतज़ार करते रहते हैं कि आप उनसे मिलने आयें और मुझे यहाँ साला एक कुत्ता भी नहीं पूछता। खैर बड़ी अजीब बात है न कि दुनिया इतनी टेक्निकल होते हुए भी, आज भी श्रद्धा व समर्पण पर ही टिकी हुई है। आज ईमेल, सोशल नेटवर्किंग के युग में भी बच्चे सांता को चिठियाँ लिखते हैं, हाउ बैकवॉर्ड ??
क्या सांता का कोई फेसबुक प्रोफाइल नहीं??

आज ऐरे-गैरे, उलजलूल नेता से लेकर अभिनेता, खिलाड़ी, अनाड़ी, पत्रकार साहित्कार, टेररिस्ट से लेकर एक्टिविस्ट, डॉक्टर, हिमांचली दवा खाने से लेकर हड्डी जोड़ने वाले पहलवान तक सब ट्विटर पर मौजूद हैं तो सांता क्यों नहीं?? यहाँ हिंदुओं के शनिदेव से लेकर हनुमान जी तक के न जाने कितने ही पेज मेन्टेन हैं। और तो और श्रद्लुओं का ताँता भी किसी मंदिर कि भीड़ से कम नहीं है, तकनिकी विकास कि ही देन है कि अब भक्तों को अपने भगवान् से मिलने मंदिर तक जाने कि ज़हमत नहीं उठानी पड़ती, सिर्फ एक "लाइक" और भगवान् खुश, एक शेयर और आपकी मनोकामना पूर्ण। भगवान् भक्त, मंदिर सब एक ही प्लेटफार्म, एक ही साईट पर एक्टिवली वर्किंग हैं। कोई हैरत नहीं कि कुछ समय बाद मंगलवार को बूंदी का प्रसाद भी यहीं बटने लगे या शुक्रवार को संतोषी माता की कथा भी यहीं पढ़ी जाए। कितना विचित्र है कि भगवान भी अब पब्लिक फिगर कि केटेगरी में आने लगे हैं, जिसके पेज पर जितने लाइक्स उतना बड़ा भगवान।
"ज्युकरबर्ग इज़ ऍन ओनली रेवोलुशनरी।"

खैर पेज तो सांता के भी बतेरे नज़र आते हैं पर मुझे क्या आज तो इस लेख के माध्यम से मैं सांता को आधार बना कर अपने खुद के समाज पर व्यंग कर रहा हूँ, और साथ ही खुद के हालत-ए-ज़िन्दगी भी बयां कर रहा हूँ, बहुत पुरानी फ़र्स्टशन है, मौका भी अच्छा है।

हाँ तो हम गरीब बच्चों के मसीहा श्री सांता क्लॉस जी(मेरी उम्र २६ साल है और जल्द ही मेरे घर वाले मुझ पर शादी का दबाव डालने वाले हैं, अभी कोई बढ़िया नौकरी भी नहीं है, और लड़कियों से मेरी बनती भी नहीं है, खैर घर वालों को कौन समझाए इसलिए खुद को बच्चा कहे जाता हूँ, कि मामला लम्बा टल जाये। "जस्ट किडिंग" बट हविंग सैड देट, आई वांट टू मेंशन वन मोर थिंग देट जोक इज़ ए वैरी सीरियस थिंग) आप ये बताएं कि आप सिर्फ खिड़की के रस्ते ही क्यों आते हैं, और अगर आते हैं तो कभी मेरे घर क्यों नहीं आये, मेरा पूरा बचपना जो अब भी बरक़रार है आपके इंतज़ार में बढ़ता ही जा रहा है, पर अफ़सोस कि मेरी हालत देख कर भी आपका दिल नहीं पसीजा, आप आज तक नहीं आये।

अब तो हाल ये है कि मेरी ही उम्र का एक लड़का मेरे सफ़ेद बालों को देख कर चौंक जाता है और बहुत देर तक सोच समझ लेने के बाद फ्री कि राय देकर निकल जाता है कि "बेटा नमक सर पे मत गिराया करो, अभी से बाल सफेद होना अच्छा नहीं"
अरे हमारे यहाँ तो नेता भी हर पांच साल में एक बार आ जाते हैं और हमारा हाल चाल पूछते हैं, झुक के सलाम भी कर लेते हैं और "आप ही की दया है, आप ही कृपा है" जैसे मीठे मीठे शब्द बोल बोल कर हमें और हमारे परिवार वालों को स्पेशल फील भी करा देते हैं। पर पता नहीं आप किस खेत कि मूली हैं, विदेशी हैं शायद तभी इतना एटीट्यूड है। मैं तो कहता हूँ आप यहाँ आ जाओ भारत, और जैसी आपकी साख है आप चुनावों में खड़े हो जाओ, अरे नहीं सोचना नहीं है अब ज़रूरी नहीं कि किसी नेता का बेटा ही चुनावों में खड़ा हो सकता है "आम" लोगों के लिए भी स्कोप है, क्राइटेरिया केवल दो ही है ईमानदारी और जज्बा। लगे हाथ आपको चुनाव चिन्ह भी सुझा देता हूँ "वाईपर" भ्रष्टाचार कि सफाई तो करनी ही है न। मेरा बस चलता तो आपको "झाड़ू" देता पर वो पहले से ही बुक्ड है, बड़े ईमानदार लोग हैं बेचारे। खैर आपको ज्यादा कुछ नहीं करना, २०१४ में लोक सभा चुनाव होने जा रहे हैं, किसी भी कांग्रेस पार्टी के गढ़ से खड़े भर हो जाना, चाहे कुछ न कहना, निश्चिंत रहिये लोग बहुत भरे बैठे हैं वोट आपको ही मिलेंगे और फिर क्या बन गए आप "एमपी" जम कर वाईपर चलना, पर हाँ एक और बात, भूल के भी गुजरात मत चले जाना वहाँ आपकी दाल नहीं गलने वाली, वहाँ पहले से ही खूब विकास है। रात में हाईवे कि सभी बत्तियां जलती हैं, मज़ाक है क्या, ग्रोथ कहते हैं इसे। गुजरात में क्या पूरे देश में नमो कि लहर है, "नमो" नाम कि नदी का वेग इन दिनों त्रासदी के वक़्त कि उत्तराखंड कि अलखनंदा से भी अधिक तेज़ है, बस अपनी तो भगवान से यही प्रार्थना कि अब कुछ उजाड़ न हो। (उत्तराखंड त्रासदी को याद करते हुए एक सेकंड का मौन)

हाँ तो सांता जी देखो भारत आज भी एक समृद्ध देश है और भ्रष्टाचार, बलात्कार, आत्म-हत्या जैसे व्यापक मुद्दों से फल-फूल रहा है। बलात्कार से शुरू करते हैं, ये एक ऐसी हॉबी है जो भारत में बहुत कॉमन है। प्राइवेट बस कंडक्टेर से लेकर, फ़िल्म अभिनेता तक(नाम याद नहीं पर पता नहीं, कोई आहूजा शायद), "तेज़" व एक्टिव पत्रकार, लेखक, नेता से लेकर न्यायाधीश तक सब इस मधुर अपराध के जुर्म में या तो जेल में बैठे हैं या सजा काट चुके हैं। न न इसे गलत न लें, एक्चुअली ये कोई इतना बड़ा क्राइम नहीं है, बल्कि इसे तो महिला सशक्तिकरण कि प्रक्रिया कि तरह लिया जाता है जो आजकल अपनी पीक पर है, और सभी सोशल एक्टिविस्ट व पब्लिक फिगर्स इसमें अपना सहयोग देने में जी जान से जुटे हुए हैं (दीस इज़ नॉट फनी, शेम ऑन यू कल्प्रिट्स)। सांता जी आप से कर जोड़ कर अनुरोध है कि आप इस सोशल एक्टिविटी से थोडा दूर ही रहें।

खैर अगला महत्वपूर्ण मुद्दा है "भ्रष्टाचार"। घोटाले, कॉर्पोरेट घोटाले, खेलों में घोटाले, कोयले, दूध, दही, लहसन अलग-अलग घोटाले, चारे में घोटाले, थ्री जी, फोर जी, ए जी, ओ जी, लो जी सुनो जी सब बर्बाद, सब तरफ मिलावट "सांता जी यू मे नोट बिलीव बट इंडिया इज़ ए वैरी डाइवर्स कंट्री"
सर आप गहराई में जायेंगे तो पाएंगे कि ये घोटाले करने के पीछे के कारण भी उतने ही डाइवर्स हैं, एक आदमी बड़ी मुश्किल से सातवीं, आठवीं में आठ दस बार फ़ैल हो कर, बाप के दम पर कॉलेज से जोर जबर्दस्ती कर बी.ए., ऍम. ए. कि फर्जी डिग्री बनवा कर, न जाने कितने लाखों रुपए दे कर एक टुच्ची सी सीट प्राप्त करता है और झूठे-झूठे आश्वासनों का मन्त्र जाप कर-कर के भोली जनता को फसाता है तब कहीं जा कर वो एक "नेता" बन पता है, "स्ट्रगल कहाँ नहीं होता" और अब जब इतने स्ट्रगल के बाद वो बेचारा एक नेता बन गया है तो क्या उसका इतना सा हक़ नहीं बनता कि वो एक छोटा मोटा, सौ, दो सौ करोड़ का एक आम सा घोटाला कर ले और अपना बाकी जीवन थोडा आराम से बिताये। खैर आराम किस की जिंदगी में है भईया। अब मुझे ही लीजिये, साला मैं तो बचपन से ही फुर्सत में था। न मेरा पढ़ने लिखने में मन लगता था, न मुझे कोई और हुनर था। कद काया से भी दुबला पतला था तो कोई मेहनत का काम भी मुझसे नहीं होता था, दिमाग तो लेह-लदाक के ग्लेशियर कि तरह जमा हुआ था, जहाँ पूरे साल कोई रिसाव नहीं होता था। बड़ी अजीब बात है की कुछ भी न करते हुए भी मुझे आज तक आराम नहीं मिला। खैर छोड़ो नेताओं पर आते हैं, घोटाला नेता सिर्फ पैसा कमाने के लिए ही नहीं करते बल्कि उन्होंने भारत में प्रचलित एक कहावत को बड़ा सीरियसली ले लिया है "कि बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा" तभी पकड़े जाने के बाद भी बड़े गर्व से प्रेस कांफ्रेंस में इंटरव्यू दे जाते हैं साहब। उस दिन नहाने धोने का भी विशेष ध्यान रखते हैं और साफ़-सुथरे कपडे पहनते हैं, अरे भाई इज्जात का सवाल है, "व्यक्तित्व में दाग है तो क्या हुआ पर कुर्ता चमकना चाहिए।"

सांता जी इन नेताओं को भी छोड़ो, इनका कोई दीन ईमान नहीं। आप ये बताओ एक्टिंग वगैरह आती है, फिल्मों में काम करोगे?? देखो नहीं भी आती फिर भी कोई बात नहीं टैलेंट इतना ज़रूरी नहीं। हमारे यहाँ तो ऐसे भी हीरो हैं जो बोल बोल कर इतना पका चुके हैं कि अब उन्हें संवाद मिलने ही बंद हो गए हैं, हर फ़िल्म में गूंगे का रोल करते हैं और अब ज्यादा सक्सेसफुल हैं। देखो घबराने कि कोई बात नहीं दरअसल यहाँ एक्टिंग कि मांग ही नहीं है, मुद्दा सिर्फ एक है कैसे भी हर फ़िल्म में सौ, दो सौ, तीन सौ करोड़ कमा कर रिकॉर्ड बनाना। एक्टिंग कि इतनी वैल्यू नहीं है जितनी कि आपके स्टारडम और साख कि है, और आप तो पहले ही इतने फेमस हैं कि आपको तो अपने नाम के पीछे खान लगाने कि भी ज़रूरत नहीं और ये अच्छा भी नहीं लगेगा "सांता खान" या "क्लॉज़ खान" या "सांता क्लॉज़ खान" न मज़ा नहीं आया। आप सांता क्लॉज़ ही रहो सूट्स यू। आप तो धूम मचा दोगी। ओह लेकिन इस बार तो धूम आमिर मचा रहा है, पर निराश होने कि बात नहीं आप फोर्थ में ज़रूर ट्राय करना। आपको ये भी नहीं कह सकता कि स्पोर्ट्स में ट्राय कर लो एक तो आपकी उम्र का ख्याल है और दूसरा यहाँ इतनी बर्फ ही नहीं पड़ती कि कोई आईस स्पोर्ट्स होता हो। यहाँ हॉकी से शुरू करके, वॉलीबॉल से गुजरकर, टेनिस पर थोडा रुक कर फाइनली आप क्रिकेट पर ही पहुंचेंगे। "इंडियंस आर वैरी पैशनेट अबाउट क्रिकेट, दे डू नॉट हैव टू डू एनीथिंग विथ स्पोर्ट्स।"


सांता सर मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ आप तो बहुत फेमस आदमी हैं, कमाल कि बात है न कि आप न हो कर भी फेमस हो और मैं हो कर भी बर्बाद। खैर आप पर तो कई फ़िल्में भी बनती रही हैं, एक आधी तो बचपन में मैंने भी देखी है। अब तक मेरी इतनी बड़ी चिट्ठी को पढ़ कर आप ये भी समझ ही गए होंगे कि मुझे लिखने का शौक है। हाँ सर बात ऐसी है कि मैं एक स्क्रिप्ट राइटर रह चूका हूँ। बर्बाद ही सही पर कई स्क्रिप्ट्स लिखी हैं मैंने। थिएटर से जुड़ा एक रंग कर्मी हूँ पर बाजारवाद कि मार झेल रहा हूँ। मेरी नाकामी ये रही है कि मार्किट को क्या चाहिए मैं ये नहीं समझ पाया, प्रोडक्ट कैसे बेचा जाए मुझे ये नहीं आता हालाँकि कॉल सेण्टर में काम कर चुकने के बाद भी इस मामले में कच्चे का कच्चा ही रहा। पर इसमें मेरी गलती बिल्कुल नहीं है। ये लिखने का शौक मुझे आनंद और प्यासा जैसी फ़िल्में देख कर लगा है और अब जब ये शौक पनप गया तो मुन्नी को बदनाम करवा पाना हमसे न हो पायेगा। आपसे बस इतनी ही दरख्वास्त है कि भविष्य में आप पर कोई फ़िल्म बन रही हो तो वो स्क्रिप्ट आप प्लीज मुझसे ही लिखवाएं। वैसे भी आपका नाम इस्तेमाल कर कर के मैंने कई ऐड जिंगल लिखे हैं। अगली बार लिखूंगा तो आपको एक भेजूंगा। चलिए अब आप से विदा ले रहा हूँ आपके जवाब का इंतज़ार रहेगा।

विथ लव एंड क्रिसमस विशेस
मुकेश चन्द्र पाण्डेय