Sunday, August 18, 2013

"सआदत हसन मंटो" पार्ट-2


"सआदत हसन मंटो" ये शख्सियत मेरे दिल-ओ-दिमाग पर हिना के लाल रंग सी चढ़ी हुई है, सुर्ख और पुर-पक्की। यूँ तो मंटो को मरे कई ज़माने बीत गए लेकिन उसके ये शब्द "हो सकता है कि सआदत हसन मर जाये मगर मंटो हमेशा जीता रहेगा।" हर वक़्त यह एहसास दिलाते हैं कि वो खुद को किस हद तक पहचानता था, उसके पास अपने लिखे हर एक हर्फ़ का पूरा हिसाब था व उसे इल्म था कि उसकी लिखी कहानियां न केवल उसके वक़्त का ज़हीन सच बल्कि इतिहास के सन्दर्भ में आने वाली नस्लों के लिए एक ठोस व विस्तृत ब्योरेवार होने जा रही थीं।
मंटो को पढ़ना कभी न ख़त्म होने वाली एक लत है, उसकी बातें किसी संक्रमण सरीखी व ख़्यालात रगों में बहते लहु जितने गाढें जो धीरे-धीरे पढ़ने वाले की आँखों के रस्ते लबों को छू कर दिल में उतर जाते हैं। उसकी तहरीरें पढने वाले की रूह अन्दर तक बस जाती है और वह चाह कर भी मंटो को नहीं भुला पाता। मंटो की कहानियों के किसी भी किरदार से कभी हमदर्दी नहीं महसूस होती, बल्कि समाज और अपने आप पर तरस आता है और शायद कहानी लिखने के पीछे मंटो का उद्देश्य भी यही रहा होगा।
उसकी कहानी में कई वक़्त एक साथ दौड़ते नज़र आते हैं और उसको पढ़ कर कभी धड़कने तेज़ होती हैं तो कभी दिल बैठ जाता है, मगर उसका कोई भी कलाम अधूरा नहीं छोड़ा जाता।
मंटो समकालीन न होते हुए भी उसे पढ़ते हुए महसूस होता है जितना मैं उसके प्रति जिज्ञासा रखता हूँ व पढना चाहता हूँ, उससे कहीं बेहतर वो मुझे समझता है। उसे न देखे हुए भी वो एक दोस्त नज़र आता है, ऐसा दोस्त जिसका कसा हुआ एक-एक जुमला या फब्ता भी परत अन्दर तक चिंगोट देता है और वो चुभन लम्बे अरसे तक ज़हन में ही तैरती रहती है। उसकी लिखी हर एक कहानी मुझे अपने आपसे मिलवाती है और शायद यही तर्क है कि मैं उससे जुडी हर चीज़ से मुखातिब होना चाहता हूँ। हर एक चीज़ जो मंटो कहता है या सोचता है उसे मकबूल करता हूँ।
और हो भी क्यूँ न, मंटो एक स्पष्टवादी व खुले विचारों वाला एक साधारण सा बल्कि यूँ कहें कि पागल सा दिखने वाला पर एक असाधारण विचारक था। मंटो की लेखनी, उसकी शैली उसे हमेशा एकाकी रखती है। वह बहुत आम होते हुए भी ख़ास था। उसका अनूठा द्रष्टिकोण व मार्मिकता उसे उसके जानिब बहुत सारे कथाकारों से अलग करती है।
उसे अपने आस-पास होने वाली सभी क्रियाएं साफ़ साफ़ नज़र आती थीं। एक सामान्य सी जिंदगी जीने वाली एक ग्रहणी से कहीं ज्यादा उसे सड़कों व चकलों पर जिस्म बेचती वेह्श्याओं पर अधिक हमदर्दी महसूस होती और उसका चित्रण भी वो बिल्कुल सटीक व स्पष्ट किया करता था। वह समाज में छुपे हुए नंगेपन को बिल्कुल बेशर्मी से समाज के आगे रख देता तो उसे अश्लील लेखन व कानून की खिलाफत करने का कुसूरवार समझा जाता और कई बार तो इस बाबत उसे अदालतों में भी घसीटा जाता था। मात्र 43 साल के अल्प जीवन में मंटो की लगभग पांच कहानियों पर कोई उतने ही मुक़दमे ठोके गए, परन्तु उसकी खुली कहानियां उसके जबरदस्त प्रतिरोधक विचार-धारा का स्पष्ट प्रमाण थी।
मंटो की बातें समाज का आईना मालूम होती हैं। ज़ाहिर है कि या तो वो समाज को बिगाड़ रहा था या समाज ने उसे इतना बिगाड़ दिया कि वो ढीठ हो गया, अब उसका ये ढीठपना उसकी तहरीरों में भी नज़र आने लगा। उसकी निहायत ही तीखी व बे-पर्दा बातें जैसे हर वक़्त समाज का पैरहन उधेड़ने को तैयार रहती और समाज के सभ्य और बड़े-बड़े सफ़ेद पोशों की गर्दन पर उस्तरे की तरह टिकी रहतीं थी। मंटो जानता था कि वो क्या कर रहा था इस लिहाज़ से उसके अंदाज़ को मैं एक क्रांति का नाम दे सकता हूँ। एक ऐसा क्रांतिकारी जो कुछ बदलना नहीं चाहता था बल्कि जो हो रहा था उसका एक लिखित दस्तावेज़ समाज को सौंप देता। वो एक ऐसा डॉक्टर था कि जिसके पास कोई दवाई या इलाज़ नहीं था, बस वो नब्ज़ जांच कर बिमारी बताता और सचेत करता रहता। उसकी कहानियां एक थर्मा-मीटर की तरह समाज में फैले बुखार को नापती रहतीं और हिदायत देती रहती कि पारा बहुत ऊपर तक जा पहुंचा है।
मंटो ताउम्र अपनी मंजिल से न आशना हस्ब-ए-आदत बस लिखता रहा। मुफलसी का लिबास ओढे पुर-उम्र खूब हर्फ़ बांटता रहा। उसकी तबियत में एक उपज थी जो ज़ाहिर है उसे हर वक़्त खुरचतीं रहती।
मंटो बेख़ौफ़ किसी भी नतीजे की परवाह किये बगैर अपनी कलम चलाता और समाज में फैलीं बुराईयों के काले कसीदे लिखता रहता। मंटो एक नायक नहीं बल्कि खलनायक था, उसकी दिलचस्पी में कभी भी किसी खूबसूरत चीज़ पर लिखना नहीं बल्कि, ना देखा जा सकने वाला, भद्दा व समाज का वो बदबू-नुमा कूड़ा-करकट था जिससे कि उस दौरान के सभी अफसाना-निगार व बड़े-बड़े सुखनवर भी किनारा कर जाते थे। बकौल मंटो वो अँधा नहीं था और जो भी उसकी नज़रों के गिर्द बदनुमा और गिरा हुआ हो रहा होता, वह उसको अपने शब्द देता और सब अच्छा अपने हम-शायरों व कहानीकारों के लिए छोड़ देता। इस जानिब मंटो की कलम अपने खाविंद द्वारा छोड़ी गयी उस बीवी की तरह थी, जिसके जिस्म पर उसके खाविंद के बेरहम नाखूनों के निशाँ और पेट में उसकी दरिंदगी का सुबूत था। और जो सब कुछ सह कर भी पेट में पल रहे उस हम-साए को खुद से अलहदा नहीं करना चाहती थी बल्कि जन कर व पक्की परवरिश देकर उसी समाज से लड़ने के लिए छोड़ देती जो कभी उसकी बची हुई चमड़ी नोचा करते थे।
मंटो पक्ष-पात कतई नहीं करता था, उसे गरीबों से हमदर्दी थी, न अमीरों से खटास। वो पानी की मानिंद था, बहता दरिया, जो जिस तरफ बहता राह में सब कुछ समेट लेता। वह उन तालाबों की तरह कअतन नहीं था जो बरसाती-बरसाती उफान मारते और निरी गर्मी में कमज़ोर से सुस्त सूखे मुरझाये रहते। मंटो किसी मौसम का मोहताज़ नहीं था बल्कि सभी मौसम उसकी कलम को पेश-ए-नज़र थे। जहाँ पूरे शहर में लोग बंद आँखें लिए, मुहं को सिये हुए बेचारे से बने घूमते थे वहीँ मंटो बेख़ौफ़ टहलता और अपनी नज़र हर वाकआत पर गड़ाये रखता। उसके लिए कहना बिलकुल माकूल होगा की अँधेरे में रहने से अधिक वह खुद जलकर दुनिया को एक लौ परोसता।
वह तूफ़ान से घबरा कर आंसू बहाने वालों में से नहीं था बल्कि तेज़ हवाओं की दहलीज़ पर अपने चराग रौशन करता था।

3 comments:

  1. पाण्डेय जी साधुवाद ! आपकी लेखनी को पढने के बाद ये एहसास हुआ कि आप मंटो के उनकी रचनाओं के जरिये लेखनी के जरिये कितने करीब है !

    सुभकामनायें लिखते रहिये !

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  2. मंटो पर एक संजीदा आलेख ... मंटो को जो एक बार पसंद कर ले तो फिर नशा जाता नहीं ये सच है

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