Tuesday, September 3, 2013

"आँखों पे ख्वाब, जूतों पे धूल लिए घूमते हैं।"

आँखों पे ख्वाब, जूतों पे धूल लिए घूमते हैं,
अनजान शहरों में अपने मक़ाम ढूंढते हैं।

लबों पे मुस्कराहट, दिलों में उम्मीद 
इन उलझी राहों से अपने जवाब पूछते हैं।

नूर-ए-चारागा ओकों में सहेजे,
हजारों तूफानों के वार झेलते हैं।

उपज रखते हैं अपनी मुट्ठियों में भीचे,
पतझर को भी हम बहार देखते हैं।

अपनी मुंडेरों पर परिंदों से लड़कर
अपने हिस्से का आसमान पूछते हैं।

आँखों पे ख्वाब, जूतों पे धूल लिए घूमते हैं।

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