Tuesday, June 3, 2014

मैंने शब्दों में नहीं बाँधा हैं तुम्हें।
तुममें फड़फड़ाहट बाकि है तो तुम मुक्त हो... 

ये सच है कि तुम वंचित रही हो 
मुझमें नहीं है वो फ़न तुम्हारी सुंदरता के कसीदे पढ़ने का,
मुझे नहीं आती बातें बनानी, रूमानी प्रेम प्रसंगयुक्त।
न मैं प्रेम कविता ही लिख पाता हूँ, 
और न मैंने कभी कुछ विशिष्ट ही किया है- 
तारे तक न तोड़ पाया तुम्हारे लिए,
मुझे कभी तुम में चाँद भी नज़र नहीं आया,
कभी संगीत नहीं सुनाई दिया जब तुमसे बात हो
और चूँकि तुम्हारी खुशबु भी न पहुंची मुझ तक
कि कह सकूँ तुम इत्र हो...

लेकिन जान लो
मेरी कविताओं में संवेदना का संचार तुमसे ही है..
मेरा मर्म, मेरी चेतना, मेरी पीड़ा, मेरी वेदना
सब में तुम अपने अवशेष देख सकती हो..
मेरा आंकलन अब तुम्हारे व्यव्हार पर आधारित है...
तुम्हारी नादानियां, तल्खियां सब मौजू बनेंगी,
देख लेना
मेरी एक भी कविता भाव से वंचित नहीं रहेगी।

सुनो, तुम आकाश ताकना छोड़ो, समंदर को भूल जाओ,
मुझमें डूबी रहो !!
जितनी गहरायी में तुम उतर पाओगी,
स्तर खुलते रहेंगे,
और ये दुनिया मुझे उतना ही गहरा देख पायेगी।

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