Thursday, January 15, 2015


बेअदब थे ख़्याल औ तसव्वुर में स्याह ख़ुमार थे
चिलमनों के पीछे के सुर्ख लबों पे लाल थे।

पेशानी से जो हटी तो नज़रों पे जा टिकी
गर्दन पे लहरी लट हर अदा से दागदार थे।

वो हर घडी कहते रहे हर्फों के कलंदर 
हम कभी नज़्म, शेर, कभी अफ़साना-ए-यार थे।

उनकी कैफियत में और क्या लफ्ज़ ज़ाया करें
वे थिरकती बहुत थीं, हम लचक की मार थे।

अब कहानी यूँ चेहरे रंग चढ़े सुनहैरी पानी के
जिन्हें हम बाब समझे ख़ुमारी में वे कसीदे ख़ाक़ थे।

गज़ब की मयकशी थी उनकी अंदाज़-ए-गायकी में
वो जब हँस के साज़ उठाते हम छलकाते जाम थे।

उन्हें अजूबा-ए-जीस्त,करिशमा-ए-ख़ुदा करार दिया
इस तरह "टिल्ट" हुए के फिर उम्र भर के गुलाम थे।

नाम के अव्वल लगाके "दा" उन्हें अलहदा बना दिया
और हम उनके मैनी औ फ्यू औ दे में कहीं यू भर के इंतज़ार थे।

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