Friday, September 11, 2015

वाया "फेसबुक"-२

मैं चुपचाप सुन रहा हूँ कुछ भी कहो तो इतना हल्के से कहना कि तुम्हारे कहने की आवाज़ तो आए पर मेरे सुनने में कोई अवरोध न पैदा हो, तुम्हारे शब्दों में कहने का सुकून बचा रहे व मेरे अन्तर में सुनने की शान्ति।
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मेरे लिए सही या गलत की परिभाषा इतनी भर है कि मुझे तमाम "नीतियों" व "वादों" के बावजूद भी प्रेम हुआ करता है, मेरी व्यवस्था इतनी भर है कि मैंने अपनी खिड़की पर कागज़ की एक विंडमिल टांगी हुई है जो कि क्षीण है पर हवा के चलने पर अब तलक घूम रही है और ये कि मेरी पुतलियों में अब भी स्वप्न नाचा करते हैं.. तुम्हें चुनने के प्रति मेरा चुनाव इतना भर है कि "तमाम ग्रेशेड्स के बावजूद भी जीवन में एक हरा और एक लाल भी है जो मूड बदलते रहने पर तुम्हारी आँखों का रंग है.. मेरा डिसिप्लिन केवल इस तथ्य पर आधरित है कि तुम्हें सोचते रहने को पोषित करने हेतु जीवित रहना आवश्यक है और जीवित रहने के लिए तुम्हारा वहां सोच के उस पार अवेलेबल रहना!
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वहां उस दिन अत्यधिक बर्फ़बारी हुई बावजूद उसके मैंने किवाड़ आधे खुले रखे.. और दस्तक होते ही उम्मीद हैवी कार्डिगन, ओवर कोट व स्नो कैप की की गयी जबकि उम्मीद ने एक फटी कमीज और बिखरे बालों में दस्तक दी। 
"क्योंकि जीवन अक्सर कहा गया है कि एक अनुशासनहीन बच्चे की तरह है जिसके लक्षण अव्यवस्थित व बेतरतीब हैं खैर उस बच्चे को अब सीख तो नहीं दी जा सकती लेकिन सचेत रहते हुए उसकी किर्याओं को ग्रहण कर लेना एक पीस ऑफ़ आर्ट्स को बिना समीक्षा/ आलोचना के अपना लेना है"

इसलिए फिर एक दूसरे दिन यूँ ही जब सड़क पे चलते-चलते मुझे १०, १० के चार नोट पड़े मिले उस दिन के बाद से फिर मैंने अपनी माँ की बात मान नीचे देख के चलना शुरू कर दिया। हालाँकि वही घटना एक तीसरे दिन फिर से घटी पर इस बार मेरी चेतना में नीचे झुक के चलना तो था लेकिन नोट का मिलना नहीं था...
.... आप कह सकते हैं कि जीवन न केवल रैंडम है बल्कि एब्सट्रैक्ट भी कमतर नहीं।
यूँ तो मैंने अपनी प्ले लिस्ट को हमेशा ही "रैंडम्ली सिलेक्टेड" मॉड पर रखा, फिर भी क्षण-क्षण में अपने सबसे पसंदीदा गीत को सुनने की इच्छा पाली। और जीवन ने भी हर दफा मेरी इच्छा के विपरीत गीत बजाने शुरू किये। मेरे सबसे दुखी दिनों में उस लम्बी प्ले लिस्ट में से कोई सैड सांग नहीं बजा बल्कि थिरकने वाले हलके फुल्के गीत प्ले हुए..
… जीवन के प्रति आपके तमाम आरोपों मसलन जटिलता, अवसाद, अघुलनशीलता व संकरता के बावजूद कुसामयिक दिनों में यह स्ट्रेस बस्टर भी हो सकता है।

कोई हैरत नहीं होनी चाहिए परन्तु होती है जबकि हम हर वक़्त चेतना पे ज़ोर दिए रहते हैं दुनिया की सबसे विचित्र चीज़ें अवचेतन की अवस्था में घटती हैं। दरअसल हम चमत्कारों को घटते हुए देखने के इच्छुक हैं। हम लिखने से पहले ही चाहते हैं कुछ ऐसा लिख देना जो कालजयी हो। हम हावी रहना चाहते हैं इसलिए जादू देखते हुए भर्मित होने को भी पूरा जीने से अधिक उस क्रिया को सीख कर भर्मित कर देना चाहते हैं।
जबकि जीवन एक सरल "घटना" है इतनी सामान्य कि वह रैंडम, एब्सट्रैक्ट और चिंता का विषय भी केवल इसलिए है क्योंकि पूरी तरह हावी होने के लिए हमारा संदर्श उसके प्रति ठीक वैसा है...!


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आदमी परतों में जीता है जीता चला जाता है, आदमी दूसरे को सिरे तक समझता है ऐसा कहता है..!
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मूर्तियां जब खंडित होती हैं उन्हें मंदिरों से हटा दिया जाता है, इंसान जब खंडित होते हैं कविता में जगह बनाते हैं...
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कभी तटों पे हो तो हवा को महसूस करना, उसमे स्वीकारोक्ति होती है.. लहरों का मन पढ़ सको तो देखना स्थिर मन में भी उथलपुथल तो होती ही है.. प्रेम कभी मत करना यह प्रयोजन नहीं है.. कभी बारिश के पहले बादलों को देखना तो जानना कहना बरसने से कमतर नहीं...!

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मैं ताउम्र सामान्य तरह से एक असामान्य जीवन की कल्पना करता रहा किंतु मेरे प्रति जीवन का कोण असामान्य व दृश्य अतिसामान्य प्रस्तुत हुए। मैं जिस भी वस्तु से जुड़ा उसमें सदा साम्य ढूंढता रहा किंतु उस जुड़ाव का निष्कर्ष पूरक निकला।

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“कहाँ किस घाटी के किस शिर पर वो मंदिर है जहाँ की घंटी की गूंज में साँसे आराम पाती हैं..”

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केवल एक बच्चा ही कवि हो सकता है.. दुनिया के साथ जो चल रहे हैं वो बड़े हो रहे हैं.. बच्चों की अपनी दुनिया है.. उस दुनिया के रंग विशिष्ट हैं..

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वह ज़िद करती, ज़िन्दगी जीने की पुर ख़्वाहिश में सिगरेट की जड़ों से साँसें चुरा लेती और धुँए में अपने बोलों के शहद उतार देती। 
उसकी आवाज़ की खरांश में लर्ज़िशों की मौजें उठती, वह लहरों की आगोश में घुल गयी नदी हो जैसे, वह बड़े से चाँद के ठीक नीचे उतने ही व्यास में सुरों की लड़ियों में पिरोई हुई एक सीप। 
वह गीली रेतों में नंगे पैर चलती और अकसर कभी जब समंदर में उतरती तो मन में एक टीस उठती, वह दूर क्षितिज पर उड़ता हुआ पंछी, अभी सुथरी, अभी धुंधली, और अब ओझल... 
......वह एक छोटा सा लम्हा और लम्बी सिसकी।

खैर वाकिफ था कभी होना और यूँ भी वह हवा की झूम से झरा एक पंख,
.....मेरी यादों के सात रंग.. !


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दुनिया की तमाम लड़कियां लाल रंग में अच्छी लगती हैं, "लाल" स्मृतियों में ठहर जाने वाला सबसे गहरा रंग है.. !"

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आग अत्यंत आवश्यक होती है, भीतर की आग को रिस्टोर रखना उचित है, बात बात पे सुलग जाने वाले कहीं बीच में ही ठंडे पड़ जाते हैं.

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किसी अपनी दिशा को परिंदे उड़ते हैं.. समंदर से हो सिर्फ शहर नहीं होते, उफ़क़ भी होता है औ तहरीरें होती हैं, नमी सिर्फ मौसमों में नहीं होती, लफ़्ज़ों की पैठ से भी भंवर उठते हैं, फिसलन सिर्फ रेतों भर ही नहीं है, ज़हन भरे हों तो ज़बानें भी सरकती हैं..

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एक अंतिम गिरह खुलने तक जीवन जिज्ञासा की पीक पर छोड़ दिए गए कई अधूरे दृश्यों का एक प्लैन्ड क्लस्टर है... !

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इंतज़ार में बने रहना कितना सुखद है कि हम अब तक सफर में बने हुए हैं... किसी हसरत में बंधे हुए उसके मुकम्मल होने की कल्पना करनी है, किसी स्वप्न के बुलबुले में उतर कर हल्के से ओस पे जा बैठना है और किसी जाते हुए के हिलते हाथों को दूर तक देखते रहना कि उम्मीद बाकी है अभी उसे गुज़र कर फिर हम ही तक पहुंचना है... असल सुकून तो राह पर ही है, मंज़िल तो सिर्फ चल सकने भर का हौंसला है...
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दिनों की दौड़ती धड़कनों व रातों की मौज उठती सांसों के मध्य कहीं एक दिल हो नींद सा, हूकों व कराहों के बीच कहीं एक जगह बचे आह भर। चाहे न हो कोई बत्ती चौक में, यातायात तूफान भरे, एक ख्वाब भर उड़ान हो एक हवा चले सुकून भर।

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मुझे तुमसे कभी कुछ नहीं कहना होता, ज़रूरी या अर्जेंट जैसा तो कभी कुछ नहीं बस तुम्हारी आवाज़ सुन सकने और खो जाने के मध्य कुछ नहीं कह सकने की स्थिति में कुछ बना कर कह देने भर ज़रूरी हैं कुछ बीती बातें 
...वरना तुम्हें देखना, तुम्हारी खनक सुनना वैली ऑफ़ फ्लावर्स की रंग बदलती संगीतमय घाटिओं के मध्य घिरा होना है .........उनींदा आँखों को जब पीसो तब आश्चर्य।

.....सुनो ये घाटी रोज़ अपने रंग बदलती है तुम ख्याल करना।


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क्षितिज पर का आधा सूर्य हो तुम। और मैं, मैं एक उदास धुन....

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एक गुज़रा हुआ दिन अटक के यूँ पड़ा हुआ ज्यूँ चाँद चेहरे के गले सुरीला रेशमी रेशा औ जां सुर्ख सूरज टंगा हुआ मोती के जैसा!

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मैं यात्रायें करता हूँ, उस प्रकिया से गुज़रना बेहद सुखद है भले ही फिर वह जगह कुछ दिनों में कचोटने लगे... यह ज़रूरी है, अवशेष रह जाएँ, जगहें बदलती रहें, यात्राएं बनी रहें !

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हर घर की कुछ ना कुछ जरूरत होती है, कभी महज़ एक घर की जरूरत होती है!

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मैं जब यहाँ से चला अपना बीता यहीं छोड़ गया.. कारण साथ रहे ये कभी ज़रूरी नहीं था पर जो साथ रखी वो यंत्रणाएँ थी.. स्वीकारूं, मैं कष्टों से उत्पन्न सुखों को खुद से अलहदा नहीं रख पाया। 
मैं लोगों से जुड़ा उनकी तमाम कमज़ोरियों की वजह और उनसे अलग न हो पाना मेरी उतने से अधिक कमज़ोरियाँ..


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1 comment:

  1. कहानी में दम है मुकेश पाण्डेय जी

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