"शेम"
अलीगढ़ ये केवल एक विषय नहीं है ना ही दो घंटे की सधी हुई, कसी हुई कोई विविध दृश्यों से भागती, रिझाती हुई फिल्म। अलीगढ तो ठहराव है.. यह तथाकथित समाज की स्वनिर्धारित नैतिकताओं के पीछे दबती हुई मानवीय संवेदना का संताप दर्शाती हुई कहानी है, यह कहानी है एक ६४ वर्षीय प्रोफेसर की, उसकी प्रौढ़ दुविधाओं की, उसके अविरत अकेलेपन की, उसकी प्रेममय प्रवृति व अस्वीकार्य संवेदनाओं की... यह कहानी उस शख़्स की नहीं जो एक होमो या गे है बल्कि ये कहानी चुनौती है हमारी उस संकुचित सोच के खिलाफ जो मानवता की आड़ में संवेदनहीनता के सर्वोच्च शिखर पर खड़े हो कर समाज के विकास के खिलाफ खोखली आवाज़ें व नकली आंसू बहाते हैं..ये कहानी है उन सभी बलात्कारी प्रवर्ति वाले तमाम नौजवानों की जो निर्भया कांड पर सबसे ऊँची आवाज़ में शोर मचाते सुनाई दिए गए, ये कहानी है हमारे खोखली नैतिकताओं की, ये कहानी है बदलाव के खिलाफ खड़ी अंध व कट्टर विचारधारा की, ये कहानी है गांधारी समाज की जिसने जन्म तो लिया खुली आँखों के साथ ही लेकिन कुछ एकालाप करती आवाज़ों के शोर की बिनाह पर खुद ब खुद आँखों पर पट्टी बांध ली.. उस भीड़ की जिसने खुद को धार्मिक, नैतिक, व संवेदनशीलता के आधार व्यक्ति विशेष से ऊपर ला खड़ा किया व खुद को समाज के नाम से हर उस व्यक्ति पर थोप दिया जिसने अपनी इंडिविडुअलिटी को सभी सरोकारों से ऊपर समझना चाहा। जिसने मानवता के आधार पर अपने दिल को संभाला व सोच को विकसित किया उस पर अमानवीय होने का दवा ठोका गया.. जिसने बदलाव की बात की उसे गैरसमाजिक बता कर उसके तर्कों को बिना सुने ख़ारिज किया गया.. हो सकता है कि आज मेरा ये कंटेंट कहानी पर बात रखते रखते आपको भटका रहा हो पर सार्वभौमिक मुद्दा यही है कि हमने खुद को आदी बना लिया है पूर्वनिर्धारित कथ्यों के आधार पर घुट-घुट कर जीने का और जो यहाँ खुली साँस भर जीना चाहता है हम जाने अनजाने उसकी इस अप्प्रोच से आहात होने लगते हैं.. हम बदलाव की बात करते हैं उस पर अमल भी करते हैं पर सिर्फ उस ही बदलाव पर जो हम चाहते हैं, हमें सही लगता है, किसी दूसरे के बदलाव की परिभाषा हमारी वाली से अलहदा हो जाये तो हम असहज होने लगते हैं.. हम उस बात को सामाजिक कांटे के आधार पर तोलने लगते हैं, उस सामाजिक आधार पर जो हमारी समझ व सहूलियत के हिसाब से बना है... मैं इतना सब इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मैं उस असहाय व संकोची प्रोफेसर की भावनाओं से भरा हुआ महसूस कर रहा हूँ.. फिल्म ख़त्म होने से एग्जिट करने तक, सड़क पर चलते हुए व घर पहुँचने तक जो एक बात मुझे कचोटती रही वह यह कि ये वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है जो जो लोग आत्महत्या करके मृत्यु को चुनते हैं असल में वे सबसे अधिक जीवन के प्रेम में होते हैं अगर उन्हें जीवन से प्रेम ना होता तो वे कभी दबाव महसूस नहीं करते, असामयिक मृत्यु को ना चुनते, उन्हें कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता, जीना उनके लिए मृत्यु सामान ही होना था। जीवन का सेंसेशन ना रहता ना मृत्यु का कोई भय पर नहीं जिन जिन लोगों ने स्व्हत्या को चुना ये जीते रहने की बाज़ी को हारते चले गए... दुखद है कि हम समाज की चिंता करते हैं, दुखद है कि हम लोगों को दूसरे लोगों से फ़र्क़ पड़ता है, दुखद है कि हम खुद को सही व दूसरों को गलत ठहराने की अजीब सी मानसिकता से ग्रसित हैं... दुखद है कि हम जीते कम हैं और आँकते ज़्यादा हैं... डॉक्टर श्रीनिवास रामचन्द्र साइरस गे नहीं थे वे प्रेमी थे, बस उन्होंने प्रेम की उस कड़ी को तोडा जो लिंगों तक सिमित रही.. इन सभी बातों के बीच जो अत्यधिक दुखद रहा वह ये था कि वो भाषा पढ़ाने वाला, कविताओं को जीने वाला प्रोफेसर किसी को अपनी बात नहीं समझा सका.. अपने बनाये शैल में एक धारा में बह कर जीवन जीने वाला वह सामान्य सा आदमी जिसको इस समाज ने धाराओं के जाल में फसा कर अदालत तक घसीटा, अपनी मुट्ठी में उपज रखने वाले उस प्रगतिवादी शख़्स का हश्र ये हुआ कि उसकी प्रेम से लबरेज़ आँखें कब भय से तिरने लगी वो भी नहीं समझ पाया। हालांकि अंत में उसे अदालत ने मुक्त छोड़ा परन्तु वह समाज द्वारा रची हुई नैतिकताओं की पहेलियों में इस कदर उलझता चला गया कि अदालत के फैसले एक दिन बाद ही शरीर त्याग कर सही मायनों में खुद का मुक्त होना चुना।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " दूसरों को मूर्ख समझना सबसे बड़ी मूर्खता " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeletekeep it up !
ReplyDelete