Friday, October 12, 2012

एक कविता बह निकली..


एक कविता इठलाती बह निकली चीर पहाड़ों को..
चंचल पंख फेहराये उड़ती रहती दूर गगन में अपनी राह बनाये..
एक पल बादल पर ठहर कुछ बतियाती, अपनी बात सुनाती
फिर इन्द्रधनुष के रंगों में घुल कुछ नए रंग बनाए..
दूर सुबह से शाम तक बस आवारा सी फिरती रहती
अपनी मधुर बातों से सबका मन मोहती
यह मोहिनी सबको खूब रिझाये..

हर मन की व्यथा यह जाने, हर पीड़ा को खूब पहचाने..
हर क्षण मधुर औषधि सी यह हर घावों को भरना जाने..
अश्रुओं के खारेपन में भी मिठास का स्वाद भरे जो..
अपने जीवित कथनों से जो हर उलझन को सुलझाना जाने..
नदियों के जल सी तरल स्पष्ट इसकी काया,
निर्मल अपनी धारा प्रभाव से तारती यह जन जन को,
गंगा जल सी पावन यह स्वच्छंद अमृत लुटाना जाने...

मंदिर से मदिरालय तक दूर तलक यह गूँजा करती,
ब्रह्माण मुख से मंत्रों सी व हाला में ग़ज़लों सी लगती..
शब्दों में मत बांधो इसको, साँचो में मत ढालो
भावों से पहचानो इसको जैसे सुनो यह वैसी लगती,
वीणा के सुर, बंसी की धुन, तबलों की थापों में,
मृदंगों के उदघोष में व गीतों की सरगम में,
सरल निरंतर बहती कल-कल मधुर संगीत यह छेडा करती..

यह नहीं उन मूक शब्दों सी मात्र पुस्तके स्याह करे जो,
यह तो मूर्छ देह में चेतना संचार करती संजीवनी है..
प्रेरणा का स्रोत, यह वीरता का राग है,
रस है श्रृंगार का, यह प्रेम का एक गान है,
यही अर्थ है, अवलोकन है,
यह सत्य का प्रमाण है.
यह नहीं उन मृत शवों सी जल कर राख हो जाते जो,
यह तो आत्मा स्वरूप अमर एक कल्पना की ज्योत है..

3 comments:

  1. मंदिर से मदिरालय तक दूर तलक यह गूंजा करती,
    ब्रह्माण मुख से मंत्रों सी व हाला में ग़ज़लों सी लगती..
    .
    wah ye stanza bahut badhiya hai.

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  2. कविता की महिमा अपरम्पार... बहती रहे सदा कविता...!!!

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