खुद की खुद से
खैर पूछता रहता
ये अकेला-पन,
एक सूनी सी आवाज़
गूंजती रहती
चारों तरफ कमरे में,
न जाने कौन सी लोरी सुना
तन्हा सपनो को सुलाता
रहता देर रात तक।
मायूसी कस के
पकड़ लेती है इसे,
अकेला-पन सब में बड़ा है
संभाल लेता है सबको।
ना चीखें चिल्लाती इसके आगे,
ना गुस्सा गुर्राता।
एक परेशान बाप की तरह है
ये अकेला-पन
सब समझता है और
झुलसता रहता है
अन्दर ही अन्दर,
अपने आंसुओं को
समेट कर उम्मीद का
खिलौना थमा
सबको पुचकारता है।
फिर दिलासों, और
आशाओं के तकिये
पर सर को टीका,
इंतजार के गद्दे में
लेटे रहते हैं रात भर,
घुले-मिले से खुश रहते हैं
ये मेरे अपने
सूने से इस घर में।
पर कभी-कभी
ये उजाड़ू चाँद खिड़की
पे उतर आता है
चुपके से।
बड़ा शरारती है,
दबे पांव रात में
मेरे स्याह कैनवास पर
रौशिनी उकेर जाता है।
किवाड़ बजने लगे हैं
हडबडाहट में,
अँधेरा बौखला गया है,
साया जाग गया है
छट-पटा के चिपका है दीवारों पे,
अकेला-पन घबरा गया है
हलके से खुले किवाड़ के जरिये
झूमती हवा के संग
न जाने कौन??
अन्दर कोई आ गया है।।

 
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