Thursday, August 1, 2013

“रेगिस्तान से लौट कर”

किरदारों के सच खुलने लगे थे, कहानी अब न बराबर बची थी। आखिर के पृष्ठ बिन पढ़े भी छोड़ दिए  जाते तो भी कुछ नहीं बदलने वाला था। बुनावट कसी हुई थी इसमें कोई दोराय नहीं परन्तु अब जिज्ञासा धूसरित हो चुकी व रेशे खुलने लगे थे। कहानी चरमोत्कर्ष पर लड़खड़ा गयी थी  भ्रम, उत्सुकता, व विस्मय पंक्तिबद्ध चलने वाली चीटियों की टोली सरीखे जो कहानी के शब्दों के साथ लगातार कदम ताल कर रहे थे, एकाग्रता भंग होते ही अचानक टेढ़ी-तिरछी लकीरों में भटकने लगे। पाठक ऐसा अंत नहीं चाहता था। वह अधीर हो उठा। उसने पीछे कई कहानियां पढ़ी थीं परन्तु यह कहानी विशिष्ट थी। यह पहली किरदार थी जिसकी जीवित छवि पाठक की कल्पना के बुलबुले से छिटक कर उसके सिरहाने आकर बैठी थी।

उपन्यास में सिर झुकाये नीले लिबास में बैठी वह उदासीन लड़की, रेगिस्तान से सटे एक शाही शहर में डेरा डाले हुई थी। कई मोहक वाद्य यंत्रों की कर्णप्रिय ध्वनियों, सधे हुए स्वरों में लम्बे अलाप भरतीं वे प्रौढ़ आवाज़ें, दूर तक फैले वे विस्तृत किले, गुलाबी हवाओं के छिद्रों वाले महलों का देस। सैलानियों की भीड़, रंगों की चकाचौंध के बीच एक असहाय सन्नाटे में गुम वो कोमल देह लम्बे अरसे से ज़हर वाले रंग की गिरफत में उलझी हुई थी। चूँकि कहानी अपनी लय में चल रही थी इसलिए पाठक को इसका कोई बोध नहीं था। एक दिन उनींदा आँखों से जैसे ही पाठक ने किताब को मूंदना चाहा हठात एक विचित्र घटना घटी।  कहानी के गुलाबी हिस्से से नाज़ुक स्वर में एक संवाद किताब से फिसल कर बाहर आ निकला।
" कैसे हैं आप?"
वह जादुई आवाज़ पाठक के कानों में कुछ इस तरह से घुल गयी जिस तरह कच्चे सरसों के तेल की तासीर। पाठक अचंभित हो उठा।  अँधेरे से भरे हुए उस खाली कमरे में वे तीन शब्द निरंतर गूंजने लगे जैसे पहाड़ों की सबसे ऊँची चोटी पे चढ़ के किसी पहाड़न ने दूर देस में बसे अपने प्रेमी की तरफ उसकी खैरियत के बायस कुछ फूल उछाले हों व देखते ही देखते उनकी सुगन्ध पूरी फ़िज़ा में तैर गयी हो। और अब पूरा कमरा भी मुग्ध कर देने वाली एक विचित्र सुगंध से भर गया था। पूरब की तरफ मंदिर में प्रज्वलित दीप की लौ उत्कट हो उठी व पाठक के चेहरे पर का आलोक उदित हो गया।

उसकी नींद भरी आँखें अब चंख हो चुकी थीं। पाठक ने आश्चर्य से जैसे ही किताब को पुनः खोला उसके सभी छवि चित्र जिवंत हो उठे। उसने कभी स्वप्न में नहीं सोचा था कि जो कहानी वह पढ़ रहा था, अचानक उसके साथ घटने लगेगी। दूर समंदर किनारे बैठा हुआ वह जिस कश्ती को लहरों पर हिचकोले खाते देख रहा था, उसने पाया कि अचानक वह भी उसका ही एक सवार था।
पाठक अभी पूर्व से बाहर भी न आ पाया था कि एक और विस्मय अनुगमन करता हुआ उस तक आ पहुंचा। रुआंसी आवाज़ में एक बार फिर किरदार ने पाठक को पुकारा-

"
सुनिए क्या आप मुझसे बात करेंगे। मुझे अकेले डर लगता है, यहाँ इस अनंत सन्नाटे ने जाने कब से मेरी गर्दन जकड़ी हुई है व मेरा अकेलापन मुझे खुद में सोख लेने को आतुर है। न जाने मुझे क्या हो गया है, मुझे डर है........" 

और वाक्य पूरा किये बिना ही किरदार फूट फूट कर रोने लगी।
जैसे संभल पाना उसके बस में ही न हो या फिर वह सम्भलना चाहती ही न हो या वह रो न रही हो बल्कि खुद को खाली कर रही हो, जैसे वह रुदन क्षणिक न हो के कई बरसों का मलाल हो या फिर एक लम्बी अवधि से चले आ रहे शुन्य ने अपना रिसाव ढूंढ लिया हो। पाठक अब भी आश्चर्य में ही डूबा हुआ था। उसने अपनी आँखें मसली व खुद को बायीं बाहं में एक तीक्ष्ण चिंगोटी काट कर पुष्ट किया कि वह स्वप्न नहीं था। और अब यहाँ से पूरी कहानी यथार्थ के धरातल पर अभिनीत होने जा रही थी। 

किरदार की आवाज़ में ऊंठों की सी लचक थी, उसका रुदन शक्कर में पगाया गया महसूस हो रहा था, उसके कंठ से निकला हर एक शब्द बड़ा हल्का परन्तु छटपटाया हुआ था। आवाज़ से हट कर जैसे ही पाठक की नज़र किताब में छपी किरदार की छवि पर पड़ी तो उसके चेहरे की सुन्दर आभा ने पाठक को अविलंब ही अपने वशीभूत कर लिया। परन्तु ये सब इतना तीव्र गति से घट रहा था कि पाठक को कुछ नहीं सूझ रहा था। किरदार का रुदन सुन पाठक का मन विचलित हो उठा। वह उस उदासी में हसीं के हज़ारों ठहाके भर देना चाहता था। उसने किरदार को खुश करने के लिए उसकी ही भाषा का चयन किया व उसे दूसरी किताबों के जो उसने पहले से रट रखे थे संवाद सुनाना शुरू किया। जिस शिद्दत से पाठक किरदार को एक के बाद एक संवाद सुना रहा था किरदार के होंठों पर यकायक एक हंसी तैर उठी और दोनों की खिलखिलाहट साथ घुल दूर रेगिस्तान के उस ज़हरीले सन्नाटे में ख़लल पैदा करने लगी जहाँ एक मायावी अपने घिनौने इरादों के साथ सेंध लगाये सुन्दर कोमल मादाओं को अपने शब्दों के भ्रम जाल में फंसा कर उनमे दुख, अवसाद, कुंठा, निराशा फलत: कुरूपता भरने में व्यस्त था.....!!

पाठक व किरदार की बातें अब ज़ोर पकड़ चुकी थी, लगभग दोनों ही एक दूसरे के आदी हो चुके थे। पाठक अलसुबह किताब खोल लेता व दोनों देर रात तक बतियाते रहते। और एक दिन किरदार ने पाठक से अपनी डायरी का परिचय करवाया जहाँ उसने अपने उदास शब्दों की एक पूरी दुनिया ईजाद कर ली थी। हर एक शब्द झकझोर कर रख देने वाला, हर भाव तीव्र उदासीन, विषादग्रस्त व अवसादपूर्ण। उन शब्दों को पढ़ते ही पाठक के कंठ सूखने लगे, चेहरा पीला पड़ने लगा, रोंगटे खड़े हो गए व पूरी देह में एक कम्पन उत्पन्न हो उठा। 
"आपको क्या दुःख है मुझे बताइये ?
कोई इतना उदास कैसे रह सकता है.. कोई बात तो ज़रूर है। "
किरदार ने पाठक के भाव भांप लिए परन्तु सरपट खिलखिलाते हुए कहने लगी  " हाहाहा। मुझे कोई दुःख नहीं है, मैं बहुत खुश हूँ... बस मुझे उदासियाँ लिखना पसंद है.."
"ऐसा कैसे हो सकता है, उदासीन हम सारे ही हैं। ये पूरी दुनिया ही अवसादों पर आधारित है पर फिर भी कोई बेवजह इतना उदास कैसे रह सकता है.. आप चाहे कुछ न कहें आपका हर शब्द एक अभिव्यक्ति है। चलो शब्दों को नकारा भी जा सकता है पर भावों का क्या?
कोई कैसे इतना उदासीन सोच सकता है जब तक उसके साथ कुछ ऐसा ही न घटा हो। और जहाँ तक मैं जनता हूँ हम सब अपने अनुभव ही लिखते हैं। आप यक़ीनन कुछ छुपा रही हैं... ज़रूर कोई बात है...!!"
 इस बार किरदार के होठों पर हंसी कुछ अधिक तीव्र व दुगनी अवधि के लिए ठहर गयी। " हाहाहा, ऐसा कुछ नहीं है,आप मनोविश्लेषण करने का प्रयास न करें। मैं बहुत खुश हूँ..  सुनिए मैंने आज भी कुछ लिखा है पढ़ना चाहेंगे ??
"बिलकुल।"

कुछ दिन पहले की ही तो बात थी जब इन्हीं रास्तों पर चलते हुए तुम्हारा हाथ छू गया था मेरे हाथ से पल भर के लिए। और मेरी निगाहें शर्मगीं होकर झुक गयी थीं।
शर्म का एक कतरा, तुम्हारा लम्स और वो पल सब धूल में गिरे हुए हैं। आते जाते लोग उन्हें कुचलते हुए गुज़रते हैं। ये कुचली हुई बेजान चीज़ें उन्हें नहीं दिखतीं और न ही खून के धब्बे उन्हें नज़र आते हैं।

पाठक पढ़ते ही कुछ देर के लिए एकदम निशब्द हो गयाउसने एक गहरी सांस भरी और पूछा 
"बहुत अच्छा लिखा है पर ये है कौन? किस के लिए लिखती हैं ये सब ?"
" हाहा ! अरे बाबा किसी के लिए नहीं लिखती कहा न आपको मुझे ऐसा ही लिखना पसंद है। आप खामखाँ ही सोचते रहते हैं।"
किरदार ने धीमे मगर स्नेहपूर्ण लहज़े में उत्तर दिया और पाठक कुछ न कह सका।  किरदार की उदासियों ने दिन-ब-दिन उसके प्रति पाठक की भावनाओं की तीव्रता को बढ़ावा देना शुरू कर दिया और देखते ही देखते पाठक में किरदार के लिए एक अजीब किस्म का लगाव पैदा हो गया। किरदार को भी पाठक के हलके फुल्के हंसी ठहाकों की आदत पड़ गयी व अब ऐसे ही कहानी आगे बढ़ने लगी।

वक़्त बेसुध दौड़ा चला जा रहा थाऔर अब उन दोनों को मिले हुए एक पूरा मौसम बीत चुका था। बातों के दौर अब भी निरंतर ज़ारी थे।  कहानी अपने अंत की तरफ बढ़ रही थी। ये पहला मौका था जब किसी कहानी से पाठक इतना जुड़ गया था और उसे डर था कि कहानी के अंत के साथ ही वह किरदार उसको छोड़ कर कहानी के देस वापिस लौट जायेगी। वह ऐसा नहीं चाहता था, उसने तय किया कि वह कभी कहानी को पूर्ण नहीं करेगा, इसलिए हज़ार जिज्ञासाओं के बावजूद वह किरदार से ज्यादा जवाब तलब नहीं करता था। वह भ्रम में बने रहना चाहता था व सिर्फ प्रेम करना चाहता था, सिर्फ और सिर्फ प्रेम बिना कुछ सोचे, समझे व जाने। किरदार की उदासी का बयास जानना इतना ज़रूरी नहीं था जितना कि उसकी ख़ुशी का बायस बन जाना। और इसलिए आगत के गर्त में गड़े हुए कई गहन विस्मयों से अनजान पाठक अपने हर संभव प्रयास के साथ किरदार के जीवन में खुशियों के रंग भरने में मशगूल हो गया। यह समय उसके जीवन पृष्ठों पर स्वर्ण अक्षरों से दर्ज़ होने जा रहा था.....!!  

लेकिन सब कुछ इत्मीनान से शान्ति बक्श होता रहे और कोई बम न फटे, ये भी कोई कहानी हुई भला। कहानी ऐसी नहीं होती। कहानियां न किरदार के अनुसार घटती हैं न पाठक के। लिखने वाले के हाथ में तो कुछ होता ही नहीं। कहानियां नियति द्वारा संचालित की जाती हैं जो कि अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच कर असर दिखाना शुरू करती हैं। आप ताउम्र भविष्य में घटने वाली घटनाओं का अनुमान लगाते रह जाते हैं परन्तु घटित वही होता है जो जिस क्षण के लिए बाध्य होता है। हर हाल में आपका पाठक होना सुरक्षित होता है, आपको बस कहानी को घटते हुए देखना होता है और दिलचस्पी बनाये रखने के लिए कुछ कुछ कयास लगाने होते हैं परन्तु किरदार होना नियति के हाथ की वह कठपुतली बन जाना होता है जिसके अपने वश में कुछ नहीं होता।  वह चाह कर भी अपने जीवन की बागडोर खुद नहीं संभाल सकता। किरदार जिसके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती दिखती है वह एक कहानी का सबसे विवश तत्व होता है।

और यहाँ भी किरदार कोई अपवाद नहीं थी। एक कोमल विवश, कमज़ोर, हताश, भेद्य, शापित व शिथिल स्त्री जो कि पाठक से मिलने से पूर्व ही एक नीले रंग के मायावी जाल में फसी हुई छटपटा रही थी। रेगिस्तान के रेतीले बयाबान में बसा वह मायावी उसे सम्मोहित कर आपने शाब्दिक जाल में फांस चुका था। वह न चाहते हुए भी उसके मायावी चक्र को भेद कर बाहर नहीं आ पा रही थी। लाख प्रयास कर चुकी थी लेकिन रह रह के उस मायावी के शब्द उसे नाग फांस की तरह बाँध लेते। उनमे इतना सम्मोहन होता कि वह क्षणिक आनंद से भर जाती व मायावी के इशारों पर नाचने लगती। और जब उसे बोध होता तो वह मुक्त होने को अधीर हो उठती। उसने सोच-सोच कर खुद का बुरा हाल कर रखा था। उसके अंतर में एक खोखलापन तैयार हो रहा था। वह घंटों घंटों बिना बत्ती जलाये अँधेरे में बैठी रहती। उसके नज़दीक हमेशा ही एक लौ रौशन रहती जिसकी ताप से वह जब तब खुद के अंग जलाया करती। कभी बेहोश हो गिर जाती तो कभी उलटी साँसें भरने लगती। वह बीमार रहने लगी, अपूर्ण सी, बावली हो भटकती रहती यहाँ से वहां। उस मायावी की याद में उदासियाँ लिखती रहती। और अब देखते ही देखते उसके पूरे शरीर पर ज़हरीले रंग की महीन झाइयाँ भी उग आयीं थी। इतने सब के बावजूद ये एक बात उसने कभी भी पाठक से साझा न की और अकेले ही सब कुछ झेलती रही।

पाठक अब तक पूरी तरह किरदार के प्रेम में डूब चुका था, जैसे जैसे कहानी का अंत निकट आ रहा था उसके चेहरे के भाव बुझने लगे थे। किरदार के ओझल हो जाने का भय उसे दिन-ब-दिन कमज़ोर करता जा रहा था। और अचानक उसने इन दिनों किरदार के व्यवहार में एक अजीब किस्म की खीज व क्षोभ भी महसूस किया। ये कोई शुभ संकेत नहीं थे। पाठक के मन में कई तरह की शंकाओं ने जन्म ले लिया। किरदार के प्रति अब उसकी चिंताएं दुगनी हो चली थी व अकुलाहट बढ़ने लगी थीं। वह अब सब कुछ छोड़ छाड़ के पागलों की तरह घंटो-घंटो किरदार की डायरी के सफ़े पलटने लगा। उसका पूरा-पूरा दिन किरदार की लिखी उदासियों में ही उलझ कर रह गया था। विडम्बना यह रही कि वह उस समस्या का समाधान ढूंढने निकला था जिसका उसे कोई बोध ही न था।

और एक दिन अंतत: अपनी अस्थिर प्रतिबद्धता व अथक प्रयासों के फलस्वरूप वह किरदार द्वारा ईजाद की हुई उदास दुनिया में दाखिल हो पाने में सफल हो गया। और अंदर घुसते ही जो उसने देखा उसके पैरों तले की ज़मीन खिसक के रह गयी। वह विचलित हो उठा और उसकी पूरी देह घबराहट से भरने लगी, इससे पहले उसने इतना भयावह दृश्य कभी अपने स्वप्न में भी नहीं देखा था। उसके हलक से शब्दों का प्रवाह यकायक बंद हो गया। उसकी आँखें बुझने लगी व चिपचिपे पसीने से उसके पूरे कपडे तर-बतर हो गए.. कुछ पलों के लिए तो जैसे उसकी साँसें ही रुक गयी थी। उसको अपनी नज़रों पर बिलकुल भरोसा नहीं हो रहा था जो रह रह के उस मायावी की तस्वीरों पर जा कर ठहरती थीं। हर तरफ यहाँ वहां हर दिवार पर जिसकी सैकड़ों तस्वीरें चस्पां थी। परिप्रेक्ष्य से निरंतर बजती कानफोड़ू शोकाकुल धुनें पाठक के मस्तिष्क में चक्रवात सी घूमने लगीं। पूरा घर नीले रंग के गाढ़े धब्बों से भरा हुआ। एक अजीब सा कोलाहल, चित्कारें जो दुनिया भर के सन्नाटे से अकेले ही निबट लेना चाहती थीं। रक्त रिसती कलम और उदासियों में लहराते ज़ख़्मी शब्द। किरदार के अंतर का अवसाद कुंठा की तेज़ आंच पर निरंतर तप रहा था व जिसके प्रभाव-वश वहां हर तरफ दम घोट देने वाली एक असहनीय गंध उत्पन्न हो चुकी थी। दुखों के चमगादड़ पर फैलाये सिर के ठीक ऊपर मंडरा रहे थे और उनकी सीधी परछाईयाँ मध्यस्त में बैठी किरदार के ललाट पर पड़ रही थी।

जैसे ही पाठक की नज़र किरदार पर पड़ी वह अकस्मात् विषाद से भर गया। छवियों से इतर एक पीला पड़ा हुआ बदसूरत चेहरा, आँखें अंदर को धसी हुईं, बाल बेतरतीब बिखरे हुए। पूरी देह पर नीली महीन किरचों के अमिट निशान। हाथ पैर फूले हुए, होंठ सिकुड़ के काले पड़े हुए, नाखूनों की पोरें मलिन मैल से भरी हुईं, आँखों पर बेख्याली, बेसुधगी तारी व सिर लटक के निचे की तरफ झूलता हुआ। पाठक गूंगा, चुप्पा, विचारशून्य भौचक सा खड़ा कुछ देर एक टक किरदार को देखता रहा, उसका मस्तिष्क अब निष्क्रिय हो चला था। आँखों के आगे अन्धकार की कई परतें जमा हो गयीं व वह अचेतन मुद्रा में निर्जीव सा वहां खड़ा रहा।
यह दृश्य बहुत भयानक थाएक क्षण में उस कब्रिस्तान जैसे माहोल में वहां दो ज़िंदा लाशें मौजूद थीं, अपनी अपनी ज़िन्दगियों से बेबस, लाचार, टूटी, हारी हुई दो मुर्दा देह। 

सिर्फ प्राणों को त्यागना भर ही तो मृत्यु नहीं होता। यह तो ताउम्र साथ बनी रहती है। हर एक उम्मीद के मर जाने से जुडी होती है मृत्यु। इसका बायस विश्वास के धागों का उधड़ जाना होता है। जब स्वप्न धूमिल होते हुए दीखते हैं तब मृत्यु जन्मती है। हम जीवन में आये हर एक शुन्य के साथ मृत्यु की सीमा के अंदर प्रवेश करते हैं। यह नकारात्मक बोध नहीं और न ही यह अंत है बल्कि पश्चात का आरम्भ है। हम ताउम्र कई कई मोड़ों पर मरते हैं व उसके उपरांत एक नए अंदाज़ में अपने जीवन चक्र की शुरवात करते हैं। मृत्यु बेहतर जीवन की अथाह संभावनाओं का संसार है.... !!”     

पाठक ने खुद को सँभालते हुए एक लम्बा दम भरा व किरदार की ठोढ़ी को ऊपर सरका उसको सुध में लाने का प्रयास करने लगा। ऐसा करते हुए अचानक उसकी आँखें छलकने लगीं व पूरी देह में एक सरसरी सी लहरा गयी। उसने रुआंसे स्वर में कहा

"
यह क्या हाल बना रखा है अपना, आजतक इतने अवसादों में डूबी रहीं और मुझे एक भनक तक न होने दी। मुझे दुःख इस बात का नहीं कि आपने प्रेम किया, दुःख इस बात का है कि आप भ्रमित रहीं। आप जानती थीं कि वह प्रेम नहीं बल्कि सिर्फ शाब्दिक जाल था जिसमे आप फसीं और फिर भी उलझतीं चली गयीं। मुझे आपको इस हाल में देख कर अब कोफ़्त हो रही है। सबसे अधिक दुःख इस बात का कि मैं हर एक चीज़ से अनजान रहा। जितनी भ्रमित आप रहीं उतना ही मैं भी।  
"क्या बताती आपको, कुछ था ही नहीं बताने लायक, और मैं धीरे धीरे उभरने का प्रयास कर रही थी।"
"यह था आपका उभरने का प्रयास, आपने अपनी हालत देखी है, खोखली हो गयीं हैं आप, ज़रा अपनी सूरत आईने में देखिये।"
"मैं ऐसी ही दिखती हूँ, मैंने आपसे कहा था कि तस्वीरों पर न जाइये।" 
दरअसल जो आप तस्वीरों पर दिखती हैं वह आपकी असलियत है, वही सच्चाई भी जिसे आप इस भ्रम जाल में फंस कर बद से बदतर करती जा रही हैं। आपकी सुन्दर आभा जिसने मुझे आकर्षित किया था न जाने कहाँ खो गयी है। मैंने कभी नहीं सोचा था इस तरह आपसे मुलाकात होगी!"
"आप यहाँ आये कैसे। आपको किसने हक़ दिया मेरी दुनिया में प्रवेश करने का। मैं जिस भी हाल में हूँ... खुश हूँ... यह मेरी बनायी हुई दुनिया है। ये अवसाद मेरे हैं, इन्हें में सीने से लगा के रखना चाहती हूँ, इनके एवज़ में मुझे कभी बेइन्तहां प्रेम नसीब हुआ था।"   
"वह प्रेम नहीं था सिर्फ छलावा था।" 
मैं सब समझती हूँ। परन्तु ये मेरे चुने हुए रंग हैं, मैं इनके साथ खुश हूँ।"
"नहीं आप खुश नहीं हैं, आपको इनसे बाहर आना ही होगा।"
 “कहा न मैंने कि मैं कोशिश कर रही हूँ। आप समझने की कोशिश कीजिये मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये, यही हम दोनों के लिए बेहतर है। मैं नहीं चाहती कि आपकी हालत भी मेरे जैसी ही हो जाए।"
"मेरे लिए अभी सबसे बड़ी चिंता का विषय आप हैं, मैं आपको ऐसे जूझता हुआ नहीं देख सकता।"
"आपको क्यों है मेरी इतनी चिंता?" 
"मुझे आपसे प्रेम है!!"

थोड़ी देर के लिए एकाएक वहां सन्नाटा बरपा हो गया। शब्दों के मौन का समय आ गया था। किरदार अपनी नज़रें झुकाये खड़ी थी। पाठक की आँखों में करुणा व आशा एक साथ तैर रही थी। दोनों में से कोई भी कुछ न कह सका। सिर्फ इंतज़ार करने लगे। ऐसे समय इंतज़ार में रहना बहुत असुविधाजनक होता है। तत्काल क्षणों में इंतज़ार आपको भटकाता है, आपकी प्रतिबद्धता को कमज़ोर करता है। कुछ फैसले बिना इंतज़ार शीघ्र अति शीघ्र ही ले लेने के लिए होते हैं। 
किरदार ने अपनी नज़रें उठा कर पाठक की तरफ देखा व कुछ चिड़चिड़ा कर उसे वहां से जाने के लिए कह दिया। और अचानक पाठक एक बार फिर से टूट गया। उसको किरदार से संवादों के हर एक दौर याद आने लगे। हर वह क्षण जो उन्होंने साथ में बिताये उसकी नज़रों के समान्तर आके ठहर गए।



"किरदारों के सच खुलने लगे थे।  कहानी अब न बराबर बची थी। आखिर के पृष्ठ बिन पढ़े भी छोड़ दिए जाते तो भी कुछ नहीं बदलने वाला था, लेकिन पाठक ऐसा अंत नहीं चाहता था। वह अधीर हो उठा। उसने एक बार फिर से किरदार की तरफ देखा। किरदार जो वहीँ मध्यस्त में जा कर बैठ गयी, चमगादड़ों की परछाइयों के ठीक नीचे। जैसे वे अवसाद ही उसकी नियति हो। जैसे उस भ्रम से निकलना ही न चाहती हो। एक बार फिर से वही शोकाकुल संगीत,वही दम घोटती असहनीय गंध। वही नीले धब्बे व उदास शब्द। नहीं पाठक से किरदार की वह हालत न देखी गयी। और अचानक जाने उसे क्या सूझी, उसने किरदार के प्रति अपना सारा प्रेम, करुणा भाव संचित किया और उसकी तरफ बढ़ने लगा। सतर्कता से उसकी दोनों बाहों को पकड़ कर उसे ऊपर उठाया, अपनी ऑंखें उसकी बुझती हुई आँखों पर केंद्रित कर धीरे से पलकें बंद कर ली। और प्रेम से लबरेज़ अपने होंठ आराम से उसके सिकुड़े हुए होंठों पर रख दिए। ऐसा करते हुए साथ ही उसने अपनी दोनों जेबों से निकाल कर फूलों की घाटी से संचित दुर्लभ फूल हवा में लहरा दिए। और अब देखते ही देखते वह असहनीय गंध एक सम्मोहित कर देने वाली विचित्र सुगंध में तब्दील होने लगी, कानफोड़ू संगीत की जगह सुरीले राग बजने लगे। सारी उदासीन परतें उखड कर नीचे गिरने लगीं। किरदार की देह में तत्क्षण बदलाव नज़र आने लगे। वे नीली झाइयां अदृश्य होने लगी, बिखरे हुए बाल सलीके से एक साथ लय में आकर बंध गए। चेहरे का आलोक एक बार फिर से उदित हो उठा... आँखें चमकने लगीं  अब तस्वीरों पर दिखने वाली वह सुन्दर गुलाबी आभा एक बार फिर से उसके मुख पर आकर ठहर गयी। कुछ ही क्षणों में वह पूरी उदासीन दुनिया स्वर्ग सरीखे एक जादुई लोक में बदल गयी। और अब अचानक नेपथ्य से एक छोटी सी बच्ची की उल्लासपूर्ण किलकारियों की गूँज सुनाई देने लगी। उसकी खिलखिलाहट ने पूरे माहोल को और भी खुशनुमा बना दिया। वह बच्ची आज आनंद से लबरेज़ थी। उसकी माँ ने एक लम्बे अंतराल के बाद जीवन में वापसी की थी।

1 comment:

  1. Bahut Bahut Khoob. ek sadharan kahani itne asadharan roop se kehne ka naya prayog bahut hi sarahniya hai. saare manviya manobhaav jaise udaasi, hansi, kheej, prasannta, karuna, ullas, dukh chhipane ka upakram baandhe rakhta hai ant tak. badi pragatisheel kahani hai. kuchh batein explicit na hokar bhi bahut kuchh samajha jati hain.bahut badhiya.

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