Sunday, June 29, 2014

"सम्भावना-गीत"

कभी स्वीकारा है 
पृथ्वी के भटकाव को, 
दिशाहीनता से सीख लेकर किसी गंतव्य को नकारा है? 
स्वप्नों को पनपते देखा है, 
क्या फलित होते वृक्षों को छोड़ा है फलाफूला?
क्यों हर फसल को सींचते वक़्त 
उसके लहराने की कल्पना की है हाथ में दराती रख कर? 
चाँद की परछाई को पोखरों में क़ैद रखा है, 
पंजे क्यों जमायें हैं ज़मीनों पर?
चीटियों को उड़ते हुए देख 
विषाद से भर जाते हो, मातम करते हो,
क्या कभी सूर्य से आँखें मिलायी हैं?
गंजे पहाड़ों पर छावं की अपेक्षा रखते हो,
कभी किसी एक चीड़ को सुलगने से बचाया है?
हर शब्द को अर्थ से पहचानने की चेष्टा रहती है,
कभी अंतर के अंधकार में लोप होते स्वम को टटोला है ?
चिड़ियों का चहचहाना मुग्ध कर देता है तुम्हें,
कभी तिनके से सी के भी गाँठें लगायी हैं ?
तितलियों के वास्ते रंग
संचित करते देखा जा सकता है क्या तुम्हें कभी,
व तुम्हारी संभावनाओं में विफलता के लिए भी
कोई स्थान रिक्त है या नहीं ?

Monday, June 16, 2014

"कहानियों से जुड़े लोग"


कहानियों की दुनिया एक बहुत दिलचस्प दुनिया है। ये उन लोगों के लिए होती है जो क्षणों में जीतें हैं...जिन्हें खुद के अधूरेपन का आभास होता है... और जो कहानियों के रास्ते अपनी पूर्णता खोजने निकल पड़ते हैं... वे किसी कहानी को अधूरा नहीं छोड़ना चाहते। चूँकि उनकी जिज्ञासा जागृत होती है और वे आगत की घटनाओं को घटित होते हुए देखने के लिए उत्सुक होते हैं इसलिए अधूरी कहानियों से उन्हें कोफ़्त होने लगती है... ये वे लोग होते हैं जिन्हें रहस्यों, चमत्कारों पर पूरा भरोसा होता है। जिन्हें अंतरिक्ष आकर्षित करता है व जो देर रात अँधेरे में दूर पहाड़ों पर जुगनुओं के पीछे भागते भागते किसी गहरी खायी में फिसल जाते हैं परन्तु गिरते नहीं बल्कि दूसरी दुनिया में प्रवेश करते हैं। कहानियों से जुड़े लोगों के "पर" होते हैं.....!!

वे कहानी पढ़ते पढ़ते भूल जाते हैं कि दुनिया में भाषा नाम का कोई माध्यम भी है, सच तो यह है कि वह कहानियां उनके साथ घट रही होती हैं.....वे कहानी में किरदार चुनते हैं.. सबसे पसंदीदा किरदार और उसके प्रेम में पड़ जाते हैं..वे हर पंक्ति के बाद एक गहरी सांस भरते हैं और न जाने किस सोच में डूब जाते हैं..!!
शब्द, व्याकरण, उपमाओं की प्रकृति क्रियाशील है परन्तु वे अपने हिस्से का ठहराव जीते हैं...!!

कहानियों से जुड़े लोग इंतज़ार करते हैं... वे सिर्फ एक पल में सदी भर का इंतज़ार जी लेते हैं... उनका हर एक पल उम्मीद से भरा होता है। उनके लिए यात्रा किसी विशेष प्रयोजन योजनाबद्ध तरह से चलना नहीं, कहीं तक पहुंचना नहीं, किसी गंतव्य की अपेक्षा नहीं बल्कि एक मुक्ति है। वे स्व्छन्द विचरना चाहते हैं। निर्लिप्त नहीं परन्तु पूर्णत: लिप्त भी नहीं। वे खुद में एक साथ कई भावों के समूह समेटे रहते हैं। वे ताउम्र सँकरी पहाड़ी पगडंडियों पे चलते हुए खुले चौड़े रास्तों की कल्पना करते हैं। दरअसल वे चलते ही नहीं बल्कि बहे चले जाते हैं। उनकी प्रकृति ग्रहणशील होती है। वे संवेदनाओं में जीते हैं। उनके लिए हवा का चलना मात्र हवा का चलना नहीं है। वे उस पवन वेग को चरम तक महसूस करना चाहते हैं, वह झोंखा उनकी आत्मा को आनंदित करता है। वे मरणोपरांत स्वर्ग की कामना रखने वाले लोग नहीं बल्कि तबले पर उस्ताद ज़ाकिर हुसेन की अपूर्व थापों व राकेश चौरसिया की बांसुरी से झरती मधुर धुनों की जुगलबंदी सुनते हुए इतना प्रभावित हो उठते हैं कि खुद को कल्पना द्वारा निर्मित दैवीय स्वर्ग पर पाते हैं...!!

Sunday, June 15, 2014

"एक रात की बात- लघु कथा"

बादल छट जाने के बाद हालाँकि आसमान साफ़ था पर वह रात बेहद काली थी.. मैंने अपने जीवन में इतना अँधेरा पहली दफा महसूस किया।
रात बहुत कमसिन, खूबसूरत, वह पतली कमर वाली थी, मैंने उसकी कमर में ही हाथ डाला और कस कर उसे अपनी बाहों में ले लिया था, वह शरमा कर पिघल गयी, और छूट कर पड़ गयी मेरी देह पर..
 अगले कई दिनों तक फिर मैंने सुबह नहीं देखी !!

Tuesday, June 10, 2014

तुम्हारा अर्थ यदि मैं प्रेम से लगता हूँ 
तो यह समझना की दुनिया की सभी भौतिक वस्तुएं 
बाएं पलड़े पर रख कर 
तुम्हारा भार संतुलित करने के प्रति 
अपराधबोध से भर जाता हूँ।
चाहतें न हों ऐसा संभव नहीं अतेव चाहते रहने की प्रक्रिया
को आगे बढ़ाते हुए दुनिया के सभी बंधन तोड़ देना चाहता हूँ।
अपेक्षाओं के पिंजरे से मुक्त कर देना चाहता हूँ 
मेरी सबसे प्रिय चिड़िया 
जिसे मैंने जी बहलाने हेतु महत्वकांक्षा के महीन रेशे में 
सबसे दुखी दिनों पर गुनगुनाने को फसा रखा है।
अपने अँधेरे कमरे में उन किरणों का स्वागत नहीं करता 
जिस सूर्य के आलोक पर सहानुभूति दर्ज़ हो।
गिरा देना चाहता हूँ आस के सभी सूखे पत्ते और ठूंठ हो 
जाना चाहता हूँ किसी पतझड़ के छूछे वृक्ष सा।
तुम्हारे वक्षों के उभारों पर अपनी अनंत असफलता के बावजूद भी 
असहाय नहीं गिरना चाहता।
क्योंकि स्मृतियों की रस्सी को पकड़ कर तुम तक पहुँचने की चेष्टा व्यर्थ है
इसलिए तुम्हारी दिव्य उपस्थिति को किसी भी 
स्मारक वस्तु से नहीं आंकना चाहता, 
मैं तुम्हारी अनुपस्थिति को अपने रुदन से मुक्त करता हूँ !

Tuesday, June 3, 2014

मैंने शब्दों में नहीं बाँधा हैं तुम्हें।
तुममें फड़फड़ाहट बाकि है तो तुम मुक्त हो... 

ये सच है कि तुम वंचित रही हो 
मुझमें नहीं है वो फ़न तुम्हारी सुंदरता के कसीदे पढ़ने का,
मुझे नहीं आती बातें बनानी, रूमानी प्रेम प्रसंगयुक्त।
न मैं प्रेम कविता ही लिख पाता हूँ, 
और न मैंने कभी कुछ विशिष्ट ही किया है- 
तारे तक न तोड़ पाया तुम्हारे लिए,
मुझे कभी तुम में चाँद भी नज़र नहीं आया,
कभी संगीत नहीं सुनाई दिया जब तुमसे बात हो
और चूँकि तुम्हारी खुशबु भी न पहुंची मुझ तक
कि कह सकूँ तुम इत्र हो...

लेकिन जान लो
मेरी कविताओं में संवेदना का संचार तुमसे ही है..
मेरा मर्म, मेरी चेतना, मेरी पीड़ा, मेरी वेदना
सब में तुम अपने अवशेष देख सकती हो..
मेरा आंकलन अब तुम्हारे व्यव्हार पर आधारित है...
तुम्हारी नादानियां, तल्खियां सब मौजू बनेंगी,
देख लेना
मेरी एक भी कविता भाव से वंचित नहीं रहेगी।

सुनो, तुम आकाश ताकना छोड़ो, समंदर को भूल जाओ,
मुझमें डूबी रहो !!
जितनी गहरायी में तुम उतर पाओगी,
स्तर खुलते रहेंगे,
और ये दुनिया मुझे उतना ही गहरा देख पायेगी।

"सुनो प्रिया !"

मुझे तुम्हारी याद आती है
और अचानक बरसों से खाली खंडहर हो चुके
मेरे घर के दरवाज़े से खुद-ब-खुद टूट जाता है ताला।
तुम्हारी छवि किसी सुन्दर चलचित्र सी
गुज़रती रहती है मेरी आँखों के समान्तर
जिस तरह परली तरफ के
पहाड़ के निचे सड़क पर से गुज़रते हैं सूक्ष्म वाहन।
मैं तुम्हारे प्रति हर क्षण संशय में रहता हूँ
और घबराहट में एकाएक पुकार उठता हूँ तुम्हारा नाम
जिस तरह सूर्यास्त होने से पूर्व ही
पुकार उठती है गौशाला मेरी गाय बकरियां।
मैं अनंत उम्मीद से भरा हूँ
जिस प्रकार मेरे घर के ठीक ऊपर दूर जंगल में
खड़ा सबसे ऊँचा देवदार ताकता रहता है छोटे से बल्ब की रौशनी !
सुनो प्रिया !
मुझे मेरे जीवन से बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं हैं!
मैं अपने गावं में किसी अकेली पहाड़ी पर
घंटों तुम्हें सोचता हुआ मुस्कुराना चाहता हूँ...
बस इतना हो,
मैं उस दिव्य शांति में ख़ाली साँसों के
ख़लल नहीं फूंकना चाहता
मैं उस मुरली से झरते मधुर सुरों में तुम्हारा नाम सुनना चाहता हूँ..!!